Nhi,mein esi nhi

बचपन से मेरे मन में , लोगों की सेवा का भाव था। जब भी कभी में सफेद कपड़ों में किसी'' नर्स '' को देखती ,तो उसे बहुत ही अच्छा लगता ,वो मन ही मन सोचती कि मैं इसी तरह के सफ़ेद कपड़े और टोपी पहनूँगी। एक दिन मम्मी से भी कहा -मम्मी मुझे भी ऐसे ही बनना है।  मम्मी बोली -इसके लिए पढ़ना भी पड़ता है और दूसरों  सेवा में मेहनत भी लगती है ,मैंने कहा -कोई बात नहीं ,मैं ''नर्स '' ही बनूँगी। मैंने पढ़ाई भी की और प्रशिक्षण  भी लिया । जब  मेरे पिता को पता चला तो बोले -सेवा तो 'डॉक्टर बनकर भी की जा सकती है उसके लिए 'नर्स 'बनना ही आवश्यक नहीं। किन्तु उसके लिए और पढ़ाई करनी होगी और समय लग जायेगा और नर्स को देखकर जो मुझे अच्छा लगता है वो बात डॉक्टर में नहीं लगती मैंने अपने पिता को समझाया। उन्होंने मुँह बनाते हुए कहा -जैसी तुम्हारी मर्ज़ी। मेरी नौकरी भी लग गयी ,मैंने बड़ी मेहनत और लग्न से काम किया। धीरे -धीरे मेरा  अनुभव बढ़ता गया। मैं महिलाओं की छोटी -मोटी बीमारियों की दवा भी जानती थी। गर्भवती महिलायें मेरे सम्पर्क में ज्यादा आती थीं ,उनकी बीमारियों से संबंधित काफी

जानकारी मुझे हो गयी थी ,जो डॉक्टर का शुल्क देने में असमर्थ  थीं ,उन्हें मैं ऐसे ही दवाई लिख दिया करती थी ,उनका भला हो जाता। उसी अस्पताल में एक लड़का काम करता था ,हम दोनों साथ काम करते थे तो एक -दूसरे के और करीब आ गए। जब पिता को पता चला तो बहुत ही नाराज़ हुए। मैंने अपने परिवार की इच्छा के विरुद्ध उससे विवाह कर  लिया। घर वालों ने भी मुझसे रिश्ता तोड़ दिया। 
            प्रदीप और मैं एक साथ काम करते ,साथ -साथ आते -जाते। सब कुछ अच्छा चल रहा था परिवार बढ़ा तो मुझे नौकरी छोड़नी पड़ी ,सब कुछ प्रदीप ही संभालते। दो बच्चों के बाद इतना समय नहीं मिल पाता कि मैं बाहर नौकरी करने जा सकूँ ,अब प्रदीप के भी तेवर दिखने लगे, वो कहता- अपने घर चली जाओ ,वे कुछ न कुछ तो मदद करेंगे ही।प्रदीप ने अब अपनी लालच मुझे बता ही दी,प्रदीप बोला - मैंने सोचा था, कि तुम्हारे घरवाले पैसे वाले हैं कुछ तो फायदा होगा ही ,उन्होंने तो तुमसे रिश्ता तोड़ कर कुछ मतलब ही नहीं रखा ,क्या तुम्हारा  उनकी ज़ायदाद में अधिकार  नहीं था ?मैंने कहा -जब मैंने तुम्हारे लिए अपने उन माता -पिता को ही छोड़ दिया जिन्होंने मुझे पैदा किया ,पाला -पोसा तो क्या उनकी जायदाद उनसे भी क़ीमती हैं ?परेशान होने की आवश्यकता नहीं है ,कुछ दिनों की परेशानी है धीरे -धीरे सब ठीक हो जायेगा। प्रदीप ने इसके बाद मुझसे कुछ नहीं कहा ,किन्तु मेरे मन में इच्छा थी कि घर की आमदनी किसी तरह से बढ़े। किस्तों पर मकान भी ले रखा था ,उसकी किस्तें भी उतारनी थीं। मैंने घर के ही एक कमरे  में अपने अनुभव के आधार पर अपनी दुकान खोल ली।  जिन महिलाओं को छोटी -मोटी कोई परेशानी होती, मैं दवाई लिख देती ,उनका इलाज कम पैसों  में हो जाता और घर बैठे मेरे थोड़े पैसे बन जाते। अब मेरा शौक़ ,मेरा जज़्बा मेरी ज़रूरत बन गए थे। मैं भी पैसे कमाकर अपने बच्चों को एक अच्छी परवरिश देना चाहती थी। मैंने डॉक्टरनी साहिबा से बात कर ली कि मैं जो भी केस आपके पास लाऊंगी उसमें मेरा भी कमीशन होगा। मैंने आमदनी बढ़ाने के साधन जुटाने आरम्भ कर दिए , उधर प्रदीप ने नौकरी छोड़ दी। मैं जितना भी आगे बढ़ने का प्रयत्न करती, उतना ही पीछे चली जाती। पैसा कमाने के लिए मैंने जचकी भी करनी शुरू कर दी ,जो केस मैं निपटा सकती थी ,मैं ही कर देती ,जो संभाल नहीं पाती उसे डॉक्टर साहिबा, के पास  ले जाती। धीरे -धीरे कम खर्च वाले ज्यादा केस आने लगे किन्तु मेरा  सारा दिन मरीजों के साथ बीतने लगा। 

              मैंने अब आवश्यकतानुसार एक कमरा और बनवा लिया ,प्रदीप भी अब मेरे साथ ही काम में हाथ बटाने लगे। कभी भी किसी भी समय केस आ जाता। मेरी रात -दिन की मेहनत से लोग मुझे जानने  लगे और आमदनी भी बढ़ी। एक दिन सुबह -सुबह मेरे घर का दरवाजा किसी ने खटखटाया। ठंड का मौसम था ,मैं अभी दो घंटे पहले ही एक जचकी करके  लेटी थी , उठते हुए जोर पड़ रहा था। धुंध भी थी ,अब दरवाजा पीटने जैसी आवाज़ आने लगी। मैंने दरवाज़ा खोला -एक महिला अपनी बेटी के साथ खड़ी काँप रही थी। मैंने दोनों को अंदर बुलाया ,उनके आने का कारण जानना चाहा। वो बोली -मुझे मेरी बेटी  का गर्भपात करवाना है। मैंने उसकी बेटी को ध्यान  से देखा ,उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे। मैंने उसका नाम पूछा -क्या नाम है इसका ?उसने बताया -रज़िया। क्यों इसका पति नहीं चाहता ?ये बच्चा, मैंने पूछा। पहले तो वो चुप रही, फिर बोली -अभी इसका निक़ाह नहीं हुआ है ,मैंने उस लड़की को ध्यान से देखा। मैंने सलाह दी ,उसी से इसका निक़ाह करा दो, जिसका बच्चा है ,मैं गर्भपात नहीं करती। वो महिला रोने लगी ,बोली -मैडमजी ,इज्ज़त का सवाल है, मैं इसके दूने पैसे दूँगी ,इस ग़रीब माँ का ये काम कर दो। मैंने उसकी परेशानी समझी और  अपनी भी। लड़के का'' शिक्षा शुल्क ''भी जमा कराना है ,अब मेरी सेवा ही , मेरा व्यापार बन गया था। मैंने अपने मन को समझाया -मुझे क्या ?मुझे तो अपने काम से मतलब होना चाहिए।मैं कोई ज़बरदस्ती तो कर नहीं रही ,इनकी ही इच्छा है ,पता नहीं ,किसी की क्या परेशानी है ? मैंने उस लड़की का गर्भपात कर दिया ,ऐसा केस मैंने पहली बार किया था तो थोड़ा  दुःख था कि अपने सेवा भाव को त्यागकर मैंने स्वार्थ को चुना , फिर समय के साथ -साथ  वो भी कम हो गया।'समय ,परिस्थितियों और जरूरतों ने मेरी सोच बदल दी''। आगे कौन नहीं बढ़ना चाहता ?मैं भी अपने बच्चों को अच्छी परवरिश देना चाहती थी।    
           अभी छः -सात माह ही बीते होंगे ,वो महिला अपनी बेटी के साथ फिर आ खड़ी हुयी ,मुझे ताज़्जुब हुआ। उसने काम करवाया ,पैसे दिए और चली गयी। मेरे साथ एक नर्स[निर्मला ] और भी थी , जब मैं नहीं मिलती तो वो काम संभाल लेती  थी। लगभग दो वर्ष पश्चात वो दोनों माँ -बेटी  मुझे फिर से दिखीं , मैंने सोचा -'अब तक तो इसका निक़ाह हो ही गया होगा। मैंने पूछा -अब कैसी हो ?वो महिला रुआंसी बोली -मैडमजी ,इसका गर्भपात ही कराना है ,सुनकर मुझे गुस्सा आया तुम इसका निक़ाह क्यों नहीं करा देती ?कौन है इसके बच्चे का बाप ?पता नहीं ,मैडम जी !कुछ बोलती ही नहीं ,न ही बताती है,कई बार मार -पीट भी लिया। तभी मेरे पास वो दूसरी नर्स आयी ,उन माँ -बेटी को देखकर बोली -तुम फिर से आ गयीं  ,मैंने पूछा - क्या तुम जानती हो ,इन्हें ?वो बोली -जब आप नहीं थीं, तब दो बार गर्भपात की दवाई ले जा चुकी और दो बार गर्भपात करवाया भी है। ये इसका पांचवां या छटवां गर्भपात होगा उसने सोचते हुए बताया। मैं उस लड़की को घृणा की दृष्टि से देख रही थी ,उसका चेहरा पहले की ही भांति ठोस था ,वो धीरे -धीरे कमज़ोर हो रही थी। मैं सोच रही थी-' गर्भपात के समय कितना कष्ट होता है ?इसे उसका भी डर नहीं। अबकि बार मैंने उसकी माँ को भी डाँटा ,क्या तुम अपनी लड़की का ख़्याल भी नहीं रख सकतीं ?मेरे इतना कहते ही उसने रोना -पीटना शुरू कर दिया -क्या करूँ मैडम !हम ग़रीब लोग ,मैं क्या -क्या देखूँ ?घर का काम या कमाई करूं ,हमें तो पता ही  नहीं चलता ,कब, कहाँ चली जाती है ?कहकर रोने लगी। मैंने कहा -अब रोओ मत !जाओ ,बाहर बैठो !मैंने उस लड़की को सुई लगाई फिर मैंने कुछ दवाई लिखकर उसकी माँ को दी ,वो दवाई लेने चली गयी। मुझे रज़िया पर बहुत गुस्सा था। मैंने देखा ,उसके कपोलों पर अश्रुधारा बह रही थी ,मैंने कहा -अब रोने का कोई फ़ायदा नहीं ?जब तुम ऐसे काम करती हो ,तब नहीं सोचतीं  कि कितने कष्ट झेलने पड़ते हैं ?कितनी परेशानी होती है ?जिसके पास भी जाती हो ,वो तो आराम से रहता है ,तुम और तुम्हारे माता -पिता परेशानियाँ झेलते हो। 

              तुम्हें अपने माता -पिता की इज्ज़त और परेशानियों का भी ख्याल नहीं ,तुम अपने -आप को ही देखो, कितनी कमज़ोर हो गयी हो ?वे बेचारे मेहनत -मजदूरी करके तुम्हें पाल रहे हैं ,तुम्हें ये काम करते हुए शर्म भी नहीं आती। आज रज़िया बहुत रोयी और फिर रोते -रोते बोली -'' नहीं ,मैं ऐसी नहीं '' फिर  उसने जो कहानी मुझे सुनाई ,मुझे अपने कानों पर यक़ीन नहीं हुआ ,आज भी वो इसीलिए बोली -उसकी माँ वहाँ जो नहीं थी ,रज़िया ने भी कहा- कि अम्मी को कुछ न बतायें ,उसकी बातें  सुनकर मैं हैरान थी कि वो गरीब ,बेचारी लगने वाली महिला इतनी क्रूर भी हो सकती है। उन दोनों माँ -बेटी के जाने के बाद ,मैं सोच रही थी- कि जिंदगी भी कैसे -कैसे लोगों से मिलवा देती है ?जो जीवन में कुछ न कुछ सीख़ दे ही जाते हैं। निर्मला मुझे सोचते हुए ,देखकर बोली -क्या हुआ ,क्या सोच रहीं हैं ?मैंने कहा -तुम्हें पता है ,कि इस लड़की की ये सगी माँ नहीं है। निर्मला बीच में ही बोली - तब भी  कितना ख़्याल रखती है ?उसके साथ ही रहती है। मैंने कहा- नहीं ,साथ तो इसीलिए रहती है कि कभी, किसी को कुछ बता न दे। आज रज़िया ने ही मुझे बताया- कि उसकी माँ तो  दूसरी बेटी  होने के बाद , किसी बीमारी के चलते गुज़र गयी ,तब उसके अब्बा ने उसकी इस माँ से  दूसरा विवाह किया। इसने आते ही इसकी पढ़ाई बंद करवा दी ,घर के सारे काम करवाती। जब पंद्रह वर्ष की हुयी तो पैसे लेकर  इसे ज़बरदस्ती ग़ैर मर्दों के पास भेजती ,उसका  सौदा करती। नहीं जाती, तो मारा -पीटा ,खाना नहीं दिया। मैंने पूछा -तुम्हारे पिता यानि अब्बा कुछ नहीं कहते। बोली -वो तो दारू पिए रहते हैं ,नई अम्मी का ही कहा सुनते हैं। सारा दिन काम पर शाम को दारू फिर जो अम्मी कहती करते। एक दिन पता भी चल गया तो पता नहीं,  इस अम्मी ने  क्या सिखाया ?हाथ में जब नोट आये तो उसकी भी बोलती बंद हो गयी। 
             मैंने एक दिन कहा भी तो बोला -बेटी हमारी है ,तो हमें ही कमाकर खिलाएगी। अपने अब्बू -अम्मी  के लिए इसका भी तो फ़र्ज बनता है।एक दिन मैंने अपने अब्बू कहा -मेरा निक़ाह कर दो। तब नई अम्मी बोली -वहाँ भी तो ये ही सब करना है ,यहाँ तो दो पैसे हाथ लगेंगे ,वहां तो कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। मेरे कई गर्भपात कराये ,यहॉँ भी जब लाई जब दूसरी डॉक्टरनी ने मना कर दिया कि अब इसका शरीर बहुत कमज़ोर हो गया है। मेरे सामने उसकी माँ का बेचारा रूप , शैतानी रूप में नज़र आ रहा था। निर्मला [नर्स ]बोली -अब क्या सोचा है ,आपने ?कुछ तो करना ही है, बेचारी बच्ची के लिए मैंने उत्तर दिया।  कुछ दिन बाद एक फोन आया और वो निर्मला को काम बताकर चली गयी। किसी थाने में पहुंची ,उसे देखकर वो बोले -आपकी  शिकायत पर हमने तहक़ीक़ात की, तो पता चला कि ये बात सही है। मैंने कहा -उन बच्चियों को इनके चंगुल से छुडाइए। उन बच्चियों को किसी आश्रम में भेज दिया गया और उनकी शिक्षा और परवरिश की जिम्मेदारी मैंने स्वयं ले ली।  





















 
laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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