तृप्ति !तृप्ति !उठ जा बेटा ,देख सूरज सिर पर चढ़ आया ,ये लड़की भी न जाने क्या करेगी ?हम तो अगले दिन उठते ही दीये देखने जाते थे ,जिन दियों को रात में पंक्ति से लगाया था। रात में भी कई बार जा जाकर देखते थे कि जल रहे हैं या नहीं। तृप्ति आंखें मूँदे मम्मी का बड़बड़ाना सुन रही थी और बातों को नजरअंदाज करके सोने का प्रयास भी कर रही थी। वो हैं कि उनका बड़बड़ाना अभी तक चालू है। जिन दियों का तेल समाप्त हो जाता, उनमें दुबारा तेल डालती थी ताकि मेरे घर के दीये देर तक जलते रहें और सुबह उठकर ,सारे दीये इकट्ठे करती। जो पटाख़े रात में नहीं जल पाते थे ,उन्हें उठाकर अलग रख देते थे और रात का फैलाया सारा कचरा साफ कर देते थे। हमारी मम्मी को हमें उठाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी। हम तो उनके कहने से पहले ही उठ जाते थे ,क्योंकि त्योहारों के दिनों में खूब मन लगता था। मन में उत्साह रहता था। आजकल के बच्चों को देख लो, न ही किसी काम को करने का उत्साह ,न ही कुछ करना चाहते हैं। तृप्ति बिस्तर में लेटे -लेटे ही तेज़ आवाज में बोली -मम्मी !अब दीपावली गयी। हाँ पता है ,मम्मी बोलीं -उसके बाद क्या सफाई नहीं होती ?अभी तो दो त्यौहार और हैं ,उनकी भी तैयारी करनी है। वो शायद रंगोली के पास गयी होंगी ,उसे देखते ही बोलीं -हम तो अपने हाथों से रंगोली बनाते थे और उसे' 'भाई - दूज ''तक सहेजकर रखते थे ताकि बिगड़ न जाये।
माँ को पता था, कि बेटी उठने का आलस कर रही है ,वो भी कम नहीं, कुछ न कुछ बात उसके कानों में डाले जा रहीं थीं - ये नहीं की, काम में अपनी माँ की मदद कर दें। मैं अपनी माँ का कितना ख्याल रखती थी ,उनके साथ ही काम में लग जाती थी और ये 'महारानीजी ''माँ काम में अकेली लगी रहे ,इन्हें कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता। शिखा को बोलते -बोलते या यूँ कहें, बड़बड़ाते हुए इतनी देर हो गयी। तब तृप्ति मुँह बनाते हुए उठी और बोली -क्या मम्मी ,आपका रोज का काम हो गया ,आराम से सोने भी नहीं देतीं। और कितना सोयेगी ?सात बज रहे हैं ,हम तो छः बजे ही उठ जाते थे ,जितने समय में तुम उठी हो, इतने में तो घर का आधा काम हो जाता था ,पता नहीं अगले घर कैसे गृहस्थी संभालेगी ?शिखा बोली।-पता नहीं ,अगले घर जाकर कैसे गृहस्थी संभालेगी ?पता नहीं आपको ,क्यों अगले घर की चिंता लगी रहती है ?अभी मैं कहीं नहीं जा रही ,तो न ही स्वयं परेशान हों ,न ही मुझे करें , तृप्ति तुनकते हुए बोली। जैसे उसे कुछ याद आया ,बोली -रही बात दियों की ,अब दियों की इतनी रौशनी कहाँ होती है ?दीये जलाओ तो , इतनी रौशनी होती ही कहाँ है ?सब लोग अब दियों की जगह बिजली की लडियाँ जलाते हैं उस रौशनी में दियों का प्रकाश नहीं दिखता। और जब बनी -बनाई रंगोली आती है तो क्यों घंटों रंगोली में समय बर्बाद करना ?
अच्छा ,तरह -तरह से फोटो खींचने में समय बर्बाद नहीं होता ,जो हमारी परम्परायें हैं ,उन्हें ताक पर रखकर दिखावटी चीजों के पीछे लगे रहो। घर में तभी मन लगता है ,जब घर में त्योहारों जैसे काम हों ,हमारी माँ तो कई दिन पहले घर में साफ -सफाई में लग जाती थी फिर मिठाई बनती थीं। नये -नये सामान खरीदे जाते थे पांच दिन के त्योहारों में ,पांचों दिन कढ़ाई चढ़ती थी। अब देख लो , एक दिन भी पकवान खा लें ,अगले दिन हिम्मत नहीं होती। अगले दिन नये कपड़े पहनकर दोस्तों के साथ पिज्ज़ा खाने चल देते हैं।
दोस्तों संग फोटो लो ,नये कपड़े पहन घूमने चले जाओ ,बस तुम लोगों का यही त्यौहार है। पूजा में भी ध्यान नहीं रहता ,उस समय भी फोटो खींचकर डालने की पड़ी रहती है कि कितने लाइक मिलेंगे ?जैसे ये मोबाईल ही सारी दुनिया हो गया। मुझे भी बातों में लगा दिया ,अब जल्दी से नहा लो कहकर शिखा रसोईघर की तरफ भागी। पता नहीं ,अगले घर कैसे अपनी जिम्मेदारियों को निभाएगी ?जाते हुए ,तृप्ति ने सुन लिया ,बोली -आप चिंता न करो ,मैं सब संभाल लूंगी ,आपको शिकायत न मिलेगी। शिखा झट से बोली -शिकायत आयी भी, तो ये मत समझना कि माँ है ,मेरा पक्ष लेंगी ,पहले देखूंगी कि गलती किसकी है ?जो भी गलत होगा उसे ही कहा जायेगा। सुनकर तृप्ति चिढ़कर बोली -हाँ ,आप क्यों मेरा साथ देने लगीं ?आपको तो पहले ही मुझे निकालने की लगी रहती है ,कैसे मुझसे पिंड छूटे ?उसकी बात सुन शिखा थोड़ी भावुक होकर बोली -माँ कभी अपनी बेटी का बुरा चाहेगी।
दोस्तों संग फोटो लो ,नये कपड़े पहन घूमने चले जाओ ,बस तुम लोगों का यही त्यौहार है। पूजा में भी ध्यान नहीं रहता ,उस समय भी फोटो खींचकर डालने की पड़ी रहती है कि कितने लाइक मिलेंगे ?जैसे ये मोबाईल ही सारी दुनिया हो गया। मुझे भी बातों में लगा दिया ,अब जल्दी से नहा लो कहकर शिखा रसोईघर की तरफ भागी। पता नहीं ,अगले घर कैसे अपनी जिम्मेदारियों को निभाएगी ?जाते हुए ,तृप्ति ने सुन लिया ,बोली -आप चिंता न करो ,मैं सब संभाल लूंगी ,आपको शिकायत न मिलेगी। शिखा झट से बोली -शिकायत आयी भी, तो ये मत समझना कि माँ है ,मेरा पक्ष लेंगी ,पहले देखूंगी कि गलती किसकी है ?जो भी गलत होगा उसे ही कहा जायेगा। सुनकर तृप्ति चिढ़कर बोली -हाँ ,आप क्यों मेरा साथ देने लगीं ?आपको तो पहले ही मुझे निकालने की लगी रहती है ,कैसे मुझसे पिंड छूटे ?उसकी बात सुन शिखा थोड़ी भावुक होकर बोली -माँ कभी अपनी बेटी का बुरा चाहेगी।
गृहस्थ जीवन आसान नहीं होता ,विवाह करना ही जीवन का उद्देश्य नहीं, उसको सही तरीक़े से निभाना ,उसमें रच -बस जाना भी मायने रखता है। आजकल तो लड़के -लड़कियों ने भी इन रिश्तों को खेल समझ रखा है, साथ रहते हैं और विचार नहीं मिले तो अलग हो गए। जीवन के महत्वपूर्ण दिन तो समझने में ही बिता दिए। ये जो अभिनेता हैं, इन्होने ही रिश्तों को खेल बना दिया। क्या है ये ?''लिव इन ''क्या होता है ?हमारी तो पूरी ज़िंदगी निकल गयी अभी तो हम भी नहीं समझ पाए इन रिश्तों को ,वे कुछ साल रहकर कैसे समझेंगे ?रिश्ते निभाये जाते हैं ,समझे नहीं जाते ,न ही समझ में आते हैं। बेटी की तरफ देखते हुए बोली -तुम जैसे नौजवान ,उन्हें 'फॉलो 'करते हो ,'फॉलो' करने वाले भी ऐसा ही सोचते हैं। ओह ,मम्मी !मैं अभी सारा काम समेटती हूँ ,पता नहीं ,अभी और कितना ' लैक्चर 'सुनने को मिलेगा। शिखा बोली -मेरी ये बातें अभी ''लैक्चर ''लग रही हैं लेकिन जब जिंदगी की समझ आएगी ,तब कहेगी ,कि माँ ठीक कहती थी। बस समझने से पहले, समय न निकल जाये। इसी तरह नोक -झोंक के साथ ,माँ ने अपनी बेटी की भावनाओं को समझते हुए ,समय से ही ,उसके साथ काम कर रहे लड़के के साथ, उसका विवाह करा दिया।बेटे का विवाह भी हुआ ,बेटे के विवाह के समय घर में काफी सुविधाएं हो चुकी थीं। किसी के घर की बेटी, अब हमारे घर की इज्ज़त ,लक्ष्मी ,अन्नपूर्णा बन गयी लेकिन वो तो जैसे सपनों की दुनिया में खोयी थी। अमीरी में पली -बढ़ी ,वो क्या जाने घर गृहस्थी के गुर ?ये तो सास की जिम्मेदारी ही बनती है।
अपने घर -परिवार की जिम्मेदारी ,वहाँ की परम्पराएँ ,वहाँ के संस्कार, जो उन्हें अपनी सास से मिले थे। बहु तो सुबह देर तक सोती रही ,सोचा नई -नई बहु है पंद्रह दिन बाद उन्हें लगा कि अब बहु को उसकी जिम्मेदारियों से अवगत कराना आवश्यक है। शिखा देख चुकी थीं, कि बड़ी दीदी ने अपनी बहु को कुछ नहीं सिखाया, न ही बताया ,आज वो अपने मन मुताबिक कार्य करती है। बहु को बेटी बनाने के लिए उसकी माँ भी तो बनना पड़ेगा। अगले दिन ही उन्होंने बहु को समझाया कि ये घर तुम्हारा है और अपने घर की जिम्मेदारी जितनी जल्दी समझ लो, उतना ही बेहतर। हुआ भी ऐसा ही ,मैं माँ बनी, तो वो भी बेटी बन गयी ,थोड़ी लापरवाह है ,कोई बात नहीं ,अभी बच्ची है, धीरे -धीरे सब संभाल लेगी। इधर बहु सीख रही है उधर बेटी भी अपनी जिम्मेदारियों में व्यस्त है। सास भी खुश और माँ भी किन्तु ये दोनों ज़िम्मेदारी तो मुझे ही निभानी थीं। माँ के पेट से कोई सीखकर नहीं आता। सास हो या माँ मेरे दायित्व तो दोनों ही तरफ हैं। चाहे वो बेटी हो या बहु। वहाँ किसी का घर न उजड़े, यहाँ भी बात बनी रहे ,इसी कारण कोशिश जारी है और रहेगी।