khao ,piyo moj karo

हमारे देश में खाने -खिलाने का पहले से ही बहुत  प्रचलन है ,''अतिथि देवो भवः ''की परम्परा रही है हमारे देश में।  हमारे देश के लोग स्वयं खाने के साथ -साथ खिलाने में भी विश्वास करते  हैं ,इसे कहते हैं 'भाई -चारा '',भाई -चारा ''भी ऐसे लोगो के साथ ही रखा जाता है जो समय आने पर मुँह न मोड़े ,वो भी इस भाई -चारे को निभाने में यकीन रखता हो। समय बदला ,लोग बदले ,खाने -खिलाने के तौर -तरीक़े भी बदले ,आजकल तो खिलाने से ज्यादा खाने में यकीन रखते हैं ,करें भी क्या ?महंगाई भी तो इतनी बढ़ गयी है।

आदमी सारा दिन मेहनत में लगा रहता  है कि किस तरह से खाया जाये ,?कहाँ से खाया जाये ?इतनी लगन और मेहनत से तो वो काम भी नहीं करता, जितनी मेहनत से वो खाने के लिए जुगाड़ लगाता है ,लगाए भी क्यों न ?इस पापी पेट के लिए क्या -क्या नहीं करना पड़ता ,इस पेट को खाने की आवश्यकता तो पड़ती  ही है और जब बैठे -बिठाये खाने को मिल रहा है तो फिर क्यूँ ,कोई मेहनत करे। खाने -खिलाने में तो इतना विश्वास है, कि  अपने स्वार्थ के लिए ,हम दूसरे की थाली को खींचने में भी शर्म महसूस नहीं करेंगे। हमने ये कहावत जो सुनी है -जिसने की शर्म ,उसके फूटे कर्म। तो भई ,हम अपना कर्म पूरी तत्परता से निभाते हैं। 
                  कभी -कभी तो हम मेज के नीचे से भी खा लेते हैं ,खाने का तो हमें इशारा ही काफी है ,जब भी दांव लगे, हम खा ही लेते हैं ,ऐसे हमें क्या घूर  रहे हैं ,हम ही  ऐसे अकेले व्यक्ति नहीं, जो खाते हैं, हमने तो लोगों को चारा तक खाते देखा है।  हम तो इंसानों का भोजन ही खाते है ,कुछ तो जानवरो को भी नहीं छोड़ते। हम अकेले ही  खाने मैं विश्वास नहीं करते ,सबको साथ लेकर चलते हैं।  इसे कहते हैं -''सम्मिलित भोज '',इसमें हम किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करते ,इसमें  छोटी कुर्सी से लेकर, बड़ी कुर्सी तक को खिलाना पड़ता है क्योंकि जो खा नहीं पाते ,आदर्शवादी बनते हैं ,अथवा उनका दांव नहीं लगता तो वो कुढ़ते हैं ,हमसे जलते हैं। अपनी ईमानदारी का ढिंढोरा पीटते हैं किन्तु मन ही मन इच्छा जाग्रत रहती है ,कभी खाने का मौका हमें भी मिले। एक दिन तो एक साहब ने कह भी दिया कि स्वयं ही खाते रहेंगे या हमें भी खाने का मौका  देंगे,अकेले खाते रहियेगा तो पेट खराब हो जायेगा।  हम भी नर्म दिल के व्यक्ति हैं ,हमने कहा -आपको किसने रोका है ?आप  भी खाइये  या फिर हमारे'' सम्मिलित भोज '' में शामिल हो जाइये। खाते -खाते कभी मन हमें धिक्कारता है तो हम इस मन  को समझा देते हैं ,आजकल जिसे भी मौका मिले खा लेता है फिर हमने कौन सा गुनाह कर दिया ?हम नहीं खायेंगे तो कोई और खायेगा तो फिर हम इस मौक़े को क्यों जाने दें ?

               ये शिक्षा तो हमें बचपन में ही  मिल जाती है, हमारी इस शिक्षा की नींव हमारे अपने ही विद्यालयों से पड़ती है ,जब हम देखते हैं, कि' शिक्षा के मंदिर 'में  भी उसी का दाख़िला लेते हैं ,जो ज्यादा से ज्यादा दान अथवा चंदा दे। हमारे माता -पिता अपने बच्चे के भविष्य के लिए, उसके सुख के लिए, कुछ भी कर गुजरते हैं। कहीं ज्यादा खाया जाता है ,कहीं कम। कुछ लोग तो ऐसे हैं जो अकेले ही खाने में विश्वास करते हैं। खाने की कोई सीमा नहीं ,कोई कितना भी खा सकता है? ततपश्चात जो  खा नहीं पाते ,उनकी ऐसी बद्दुआ लगती है कि न उगलते बन पाता है ,न निगलते। आदमी खाये क्यों न ?वो बचपन से ही मेहनत करता है , अपना बचपन गंवा ,पढ़ता है और देखता है कि आगे बढ़ने के लिए ,उसने भी तो न जाने कितनों को खिलाया ?जब उसका स्वयं खाने का नंबर आया तो हाथ पीछे कर ले ,उस मौक़े का भरपूर सदुपयोग करना आवश्यक है। हमारा तो यही विश्वास है ''खाओ ,पियो मौज करो ''तभी तो सेहतमंद रहोगे और कार्य में भी ध्यान लगेगा। वो कहावत तो सुनी ही होगी -'भूखे भजन न होये गोपाला ''इसलिए खाइये ,खिलाइये मौज करते रहिये।  ''
laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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