साँप ,चूहा, छछूँदर ,नेवला इत्यादि जीव ऐसे हैं, जो बिल में रहते हैं ,जब तक ये बिल जंगलों में अथवा बाहर होते हैं ,तब तक इनसे हमें कोई खतरा नहीं ,हम सुरक्षित हैं। किन्तु जब ये जीव घर में ही बिल बना दें तो हमारे लिए खतरा बन जाते हैं। घर में सामान का नुकसान तो होता ही है ,देर -सवेर हमें काट भी सकते हैं। चूहा कहने को तो, हमारे पूज्यनीय, देवताओं में अग्रणी ,महादेव के पुत्र ,'गणपति जी 'की सवारी है। किन्तु ये 'मूषक राज 'तो हमारी फ़सलों पर भी आक्रमण करते हैं यानि सीधे हमारे 'पेट पर ही लात मारते 'हैं। गोदामों में अपना तहलका मचाते हैं। घर में आ जायें तो, रही -सही ,बची -खुची जो फसल आती है ,उसके पीछे लग जाते हैं। वो हाथ न लगे तो हमारी ख़ास वस्तुओं पर हाथ साफ करते हैं। मूषक राज पूरे घर में अपना आतंक मचाकर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं। हमने उन्हें अपने' पुज्य गणपति जी' की सवारी समझ सम्मान दिया लेकिन वो तो हमारी ज़िंदगियों से खेलने से भी बाज नहीं आते और यदि उनसे बीमारी [प्लेग ]लग जाये तो घर के घर तबाह हो जाते हैं।
ये तो मूषकराज ही अकेले बिल में रहने वाले जीव नहीं। बिल के अंदर तो सांप भी रहते हैं। कुछ छोटे ,कुछ बहुत बड़े, सांप छोटा हो या बड़ा सांप तो सांप ही होता है। उसे किसी पर रहम नहीं आता। सांप को कितना भी दूध पिला दो ,वो तो डसेगा ही क्योंकि उसकी प्रकृति ही ऐसी है। सांप से रहम की उम्मीद करना व्यर्थ है। सांप आकृति में ,रंगों में अलग -अलग हो सकते हैं किन्तु काम सभी का डसना ही है। बिल तो बिल ही है चाहे बाहर सेंध लगे अथवा घर में नुकसान तो दोनों ही तरफ से है। एक दिन' गणपति जी 'मुस्कुराते हुए दिख गए ,हमने कहा -प्रभु !ये क्या माया है ?हमने प्यार जताया , विश्वास किया ,सम्मान किया फिर भी मूषकराज ने हमारे विश्वास का नाजायज़ फायदा उठाया और अपनी हरकतों से बाज नहीं आये। तब'' गणपतिजी ''हंसकर बोले -मूषकराज की तो प्रकृति ही ऐसी है ,भगवान ने तो उन्हें बनाया ही ऐसा है। दूसरों के घरों में बिल बनाना ,उनका छोटा -मोटा नुकसान करना। ये तो तुम्हारी गलती है ,जब तुम्हे मालूम है ,ये जीव ही ऐसा है। तुम तो इंसान हो ,तुममें समझ है ,बुद्धि है तो इनसे निपटना भी तुम्हें ही पड़ेगा। तभी 'गणपतिजी ' मुस्कुराये ,बोले इनकी इन्हीं हरकतों के कारण ही तो मैंने इन्हें अपना वाहन बनाया है।
ये बिल पता नहीं कितने गहरे ,और दूर -दूर तक होते हैं ?जिस कारण मूषक महाराज पकड़ में भी नहीं आ पाते। उन्हें ललचाने के लिए पिंजरे में रोटी रखी। मूषक महाराज अपने लालच कारण पकड़े गए ,लालच के कारण ही वो कैद में हैं ,निकलना चाह ही रहे थे कि तभी सर्प महाराज दिखे ''इधर कुंआ ,उधर खाई ''बाहर निकलते ही सर्प महाराज तो सीधे खा ही जायेंगे। उनका भोजन बनने से तो अच्छा है कि कैद में ही रहे। कम से कम जान तो बची रहेगी। मूषकराज ने समझाया -हम तो बिल के जीव हैं लेकिन सर्पराज कहाँ मानने वाले थे ?बोले -हम तुमसे ताकतवर हैं ,तुम हमारा भोजन हो। तुम जैसे न जाने कितने आये ,कितने गए ?हम कभी किसी के मित्र नहीं हुए ,हम तो इंसान को भी नहीं बख्शते फिर तुम्हारी क्या बिसात ?
मूषकराज सोच रहे थे -कि इंसानों को भी दुश्मन बनाया और सर्पराज तो कभी अपने थे ही नहीं। तब मूषकराज को आभास हुआ कि मैं तो व्यर्थ में ही अपने को राजा माने बैठा था ,मुझसा बेबस इंसान तो कोई नहीं। बिल भी नजदीक नहीं कि मौका हाथ लगे तो अपने प्राण बचाऊं। इस बिल ने भी न जीवन दूभर बना दिया। तभी गणपति जी बोले -मूषकराज बिल मुसीबत नहीं वरन तुम्हारा लालच तुम्हें ले डूबा ,तुम्हें तो मेरे कारण इन लोगों ने मान -सम्मान दिया ,तुम्हें ही ये रास न आया।