व्यक्ति कितना भी अच्छा हो , उसका कैसा भी व्यवहार हो ,उसने न जाने कितनी कठिनाई और परेशानियाँ झेली हों ?लेकिन उसके दिल का दर्द कौन समझ सकेगा ?उस पर क्या बीत रही है ?किसी ने भी उसके दिल का दर्द समझने का प्रयत्न ही नहीं किया कि वो कितने अपमान और परेशानियों से जूझ रहा है ?घरवालों को क्या ?उन्हें तो ज़िंदगी एक सौदेबाज़ी सी लगती है। यहाँ बात नहीं तो दूसरी जगह सही लेकिन मैं क्या करूँ ?कैसे इस दिल को समझाऊँ? कि इस दिल के आईने में दूसरी तस्वीर नहीं लग पायेगी। उसने ही न जाने ,मेरे दिल के कितने टुकड़े कर दिए ?जो रह -रहकर मुझे चुभते हैं ,अब उन्हें कैसे समेटूँ ?जब जगह ही नहीं तो दूसरी तस्वीर कहाँ लगाऊँ ?किन्तु घरवालों को लगता है कि मेरे जख़्मों का इलाज़ भी यही है। सोचा तो इन लोगों ने पहले भी था --इसका विवाह कर देंगे ,इसकी घर -गृहस्थी बस जायेगी ,इसे खाने -पीने की परेशानी भी नहीं होगी। आदमी तो न जाने क्या -क्या सोचता है ?सोचता कुछ है और हो कुछ और जाता है। माता -पिता भी अपने बच्चे के भले के लिए ही सोचते हैं ,इन्होंने भी सोचा,लेकिन कहते हैं ,न - ''मन चाही होती नहीं ,हर चाही तत्काल। ''मैं भी सपने सजाने लगा था ,एक खुशहाल परिवार के ,जहाँ खुशियाँ ,प्रेम ,अपनापन ,बेइंतहा प्रेम करने वाली सुंदर सी पत्नी। मैंने भगवान से कोई परी नहीं मांगी थी ,बस मैं ये चाहता था कि दोनों साथ में अच्छे लगें ,एक दूसरे के पूरक लगें ,वो मुझे और मेरी भावनाओं को समझे उनकी क़द्र करे। मैंने ज़िंदगी से ज्यादा कुछ नहीं चाहा था बस एक उम्मीद लगाई थी -जैसे और लोग जीवन बसर करते हैं ,एक दूसरे का साथ देते हैं ,मैंने भी बस ये ही चाहा था।
माता -पिता की मेहनत रंग लाई और हम सब एक लड़की देखने गए ,जब सुमन को बुलाया गया तो उसे मैं देखता ही रह गया। मुझे लगा मेरी किस्मत मुझ पर कुछ अधिक ही मेहरबान है ,उसके माता -पिता ने बहुत ही अच्छा नाम रखा उसका -सुमन यानि की पुष्प ,फूल। उसकी बड़ी -बड़ी कजरारी आँखें ,घने काले ,लम्बे बाल ,गुलाबी पतले होंठ ,कुछ ग़ुलाबी लिए गोरे गाल ,उसे देखकर मेरी तो कुछ पूछने की हिम्मत ही नहीं थी कि कुछ पूँछु। जब आ रहा था ,तो बहुत कुछ सोचा था ,पूछुंगा -उसकी पसंद -नापसंद ,उसकी रूचि ,उसे मैं पसंद हूँ कि नहीं या उसने मुझमें ऐसा क्या देखा जो मुझे पसंद किया। मैं लड़की देखने पूरे आत्मविश्वास के साथ गया था लेकिन जब वो सामने आयी तो जो सोचा था सब भूल गया कि कुछ पूछना भी था। घरवालों ने मेरी तरफ देखा और मैंने हाँ में सिर हिला दिया। घरवालों ने क्या बात की ?क्या तय किया ?सुमन ने क्या जबाब दिया ,उसने भी मुझे पसंद किया या नहीं। मेरा तो किसी भी बात पर ध्यान ही नहीं रहा। मैं तो बस कनखियों से उसे देखे जा रहा था , उसको देख जैसे मेरे सोचने समझने की क्षमता ही न रही ,मैं तो मंत्रमुग्ध सा ,आज्ञाकारी बच्चे की तरह अपने माता -पिता के साथ आ गया लेकिन मैं अपना दिल तो वहीँ छोड़ आया था ,अब वो मेरा नहीं रहा। उधर से भी मंजूरी होने पर ,मेरा मन तो बल्लियों उछल रहा था। मैं बार -बार अपनी क़िस्मत को सराह रहा था। सुमन की तस्वीर जब मेरे दोस्तों ने देखी ,तो वे भी जल -भून गए और मुझ पर व्यंग्य कसने लगे -''लंगूर को हूर मिल गयी। '' उनके व्यंग से मैं चिढ़ा नहीं ,उस व्यंग्य में भी मुझे सुमन की प्रशंसा छिपी नज़र आयी। मुझे लगता ,बस वो किसी तरह विवाह करके मेरे घर आ जाये,कल्पना करके मैं स्वयं ही आत्मविभोर हो उठता। अभी विवाह को एक माह बाक़ी था ,एक दिन मेरी इच्छा उससे बात करने की हो आयी और फिर एक दिन साहस जुटाकर मैंने उसके घर फोन कर ही दिया। फ़ोन उसने उठाया भी 'हैलो 'किया, मैंने थूक सटकते हुए ,उससे पूछा-कैसी हो सुमन ?लेकिन उसके जबाब के बदले में उसकी मम्मी की आवाज़ आयी। बोलीं -सुमन ठीक है , उसकी मम्मी ने सफाई दी -बेटा वो शरमा गयी ,इसीलिए फ़ोन मुझे पकड़ा दिया। बताओ -आपने कैसे फोन किया ?बस ऐसे ही ,कहकर मैंने हालचाल पूछकर फ़ोन काट दिया।
मेरा तो जैसे काम में मन ही नहीं लग रहा था हर वक़्त वो ही नज़र आ रही थी। किसी तरह शादी का दिन भी आया और हम दोनों ''परिणय -सूत्र ''में बंध गए ,वो मेरी होकर मेरे घर आ गयी। मैं बार -बार अपनी किस्मत को सराह रहा था ,मुझे तो लग रहा था -जैसे चाँद मेरे आँगन में ही निकला है। विवाह के बाद मैंने मौका देख उससे बात करने का प्रयत्न किया लेकिन वो वहाँ से हट भीड़ में जा बैठी। रात को जब मैं अपने कमरे में पहुँचा , वो सो चुकी थी। आज सोचता हूँ तो लगता है ,सोने का अभिनय कर रही थी। दिन में भी ,मैं किसी बहाने पास जाने या बात करने का प्रयत्न करता तो वो किसी न किसी बहाने से इधर -उधर हो जाती। रात में जल्दी सो जाती ,एक सप्ताह वो यहाँ रही ,उसके बाद वो गौने के लिए और अपनी परिक्षा देने के लिए एक माह के लिए अपने घर चली गयी। मैं सोच रहा था -एक सप्ताह साथ रहने के बाद भी मैं उससे बात न कर सका और न ही उसने मुझसे कुछ कहा। उसके जाने के बाद मैंने महसूस किया कि उसने भी अपनी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं की। उसने एक माह तक किसी भी तरह का सम्पर्क नहीं किया।
मैंने ही एक -आध बार फोन करने का प्रयत्न किया तो उसकी मम्मी ही उठाती और बताती कि वो अभी पढ़ रही है अथवा सो रही है। मेरी उससे बात न हो सकी। एक माह पश्चात वो घर आयी ,माता -पिता ने उसे मेरे साथ ही नौकरी पर भेज दिया। अपने फ्लैट में पहुँचकर मैंने सामान रखा मैंने कहा -ये हमारा छोटा सा आशियाना है, इसे देख लो ,कुछ कमी लगे तो मुझे बता देना। वो चुपचाप घर देखती रही। मैं अज़नबी की तरह उससे बात किये जा रहा था और वो बस हां अथवा ना में जबाब देती। उसकी तो कोई और प्रतिक्रिया ही नहीं थी। अब मेरा मन बेचैन हो रहा था। आखिर वो चाहती क्या है ?क्या सोचती है ?यह मैं कैसे जान पाऊंगा ?रात को भी वो बिस्तर से उठी और सोफ़े पर सो गयी। मैंने एक दिन देखा, दो दिन , न ही वो कोई बात करती, न ही कुछ पूछती ,मैं भी कुछ पूछता या कहता तो हाँ या ना में ही जबाब देती। मैं भी अनमना सा उसकी निगाहों में अपनी जगह तलाशता ,लेकिन उन आँखों में कुछ नहीं था। इस तरह एक सप्ताह बीत गया। आज रविवार है ,मैंने सोचा ,आज उसे थोड़ा घुमा लाऊँगा, फ़िल्म देखेंगे ,बाहर ही खाना खा लेंगे। किन्तु उसने सामान का पर्चा मेरे हाथों में थमा दिया। मैं बाज़ार गया ,जल्दी से सामान खरीदा और घर की तरफ रवाना हो गया। मेरे हाथ में सामान के साथ दो टिकटें भी थीं। घर जाकर मैंने देखा उसने कपड़े धोने के लिए डाले थे। मैं सोच रहा था कि पूरे सप्ताह का काम आज ही करेगी। मेरे कपड़े उसने कभी नहीं धोये ,मैं अपने कपड़े स्वयं ही धोता था ,आज भी अपने कपड़े धोने के लिए डाले थे। आज मैं समझ पा रहा था कि वो जानबूझकर अपने को व्यस्त दिखा रही थी।
मैंने ही एक -आध बार फोन करने का प्रयत्न किया तो उसकी मम्मी ही उठाती और बताती कि वो अभी पढ़ रही है अथवा सो रही है। मेरी उससे बात न हो सकी। एक माह पश्चात वो घर आयी ,माता -पिता ने उसे मेरे साथ ही नौकरी पर भेज दिया। अपने फ्लैट में पहुँचकर मैंने सामान रखा मैंने कहा -ये हमारा छोटा सा आशियाना है, इसे देख लो ,कुछ कमी लगे तो मुझे बता देना। वो चुपचाप घर देखती रही। मैं अज़नबी की तरह उससे बात किये जा रहा था और वो बस हां अथवा ना में जबाब देती। उसकी तो कोई और प्रतिक्रिया ही नहीं थी। अब मेरा मन बेचैन हो रहा था। आखिर वो चाहती क्या है ?क्या सोचती है ?यह मैं कैसे जान पाऊंगा ?रात को भी वो बिस्तर से उठी और सोफ़े पर सो गयी। मैंने एक दिन देखा, दो दिन , न ही वो कोई बात करती, न ही कुछ पूछती ,मैं भी कुछ पूछता या कहता तो हाँ या ना में ही जबाब देती। मैं भी अनमना सा उसकी निगाहों में अपनी जगह तलाशता ,लेकिन उन आँखों में कुछ नहीं था। इस तरह एक सप्ताह बीत गया। आज रविवार है ,मैंने सोचा ,आज उसे थोड़ा घुमा लाऊँगा, फ़िल्म देखेंगे ,बाहर ही खाना खा लेंगे। किन्तु उसने सामान का पर्चा मेरे हाथों में थमा दिया। मैं बाज़ार गया ,जल्दी से सामान खरीदा और घर की तरफ रवाना हो गया। मेरे हाथ में सामान के साथ दो टिकटें भी थीं। घर जाकर मैंने देखा उसने कपड़े धोने के लिए डाले थे। मैं सोच रहा था कि पूरे सप्ताह का काम आज ही करेगी। मेरे कपड़े उसने कभी नहीं धोये ,मैं अपने कपड़े स्वयं ही धोता था ,आज भी अपने कपड़े धोने के लिए डाले थे। आज मैं समझ पा रहा था कि वो जानबूझकर अपने को व्यस्त दिखा रही थी।
मैंने उससे कहा -कपड़े कल धो लेना ,फ़िल्म देखने चलते हैं ,पहले तो वो चुपचाप काम करती रही फिर पता नहीं क्या, मन में आया होगा ?तैयार हो गयी।वो काली साड़ी ,लाल ब्लाउज़ में बेहद खूबसूरत लग रही थी ,मैं सोच रहा था कि किसी को खुलने में समय लगता है ,इसी कारण मैंने बाहर घूमने का कार्यक्रम बनाया था। हम दोनों पास -पास बैठे थे ,मैंने उसका हाथ पकड़ना चाहा लेकिन उसने अपना हाथ छुड़ा लिया ,हमने साथ -साथ खाना खाया। इस बीच हम दोनों में कोई बात नहीं हुई ,घर आकर वो फिर से अपना तकिया उठाकर सोने के लिए चल दी ,मैंने कहा -कहाँ जा रही हो ?यहीं सो जाओ !अब तो हम शादीशुदा हैं, तुम मेरी पत्नी हो लेकिन न ही उसने कोई उत्तर दिया न ही रुकी और सोफ़े पर जाकर सो गयी। मुझे बहुत क्रोध आया ,आख़िर ये चाहती क्या है ?मुझसे विवाह नहीं करना था या मेरे साथ रहना नहीं चाहती ?न जाने कितने प्रश्न उसके मष्तिष्क में कौंधने लगे ?वो देर तक सोचता रहा ,पता नहीं कब उसे नींद आयी? सुबह जब उठा तो सिर में कुछ भारीपन था। सुमन को सामने देख उसका वही व्यवहार याद आया, फिर से अनेक विचारों ने उसे घेर लिया। उसकी चाय की इच्छा हुई किन्तु बनाने की इच्छा नहीं हो रही थी ,सिर दर्द के कारण उठा भी नहीं जा रहा था। उसने रोज़ाना की तरह अपनी चाय बनाई और पीने लगी।उसने पूछने का भी नहीं सोचा कि चाय पियेंगे अथवा आप देर से क्यों उठे है ?तबियत तो ठीक है लेकिन पूछती भी तो कैसे ?जब उसने मुझे अभी तक अपनाया ही नहीं। सिर में कुछ अधिक भारीपन था उठने की हिम्मत नहीं हो रही थी, मैंने सुमन से कह ही दिया -एक कप चाय बना दो ,सुनकर उठी और चली गयी। मैं सोच रहा था -'ये यहां रह रही है ,काम कर रही है, सिर्फ अपना। मैं जो पैसे देता हूँ, सामान दिलवाता हूँ ,उन सबको संभाल लेती है। चार दिन पहले मैं जो हार लाया ,चुपचाप रख लिया। घर पर , सामान पर अधिकार है किन्तु जिससे ब्याहकर आयी है उसके प्रति भी कुछ कर्त्तव्य हैं ,ये नहीं जानती या जानते हुए भी अनजान बन रही है। वो चाय लेकर आयी और चुपचाप रखकर चली गयी।
मैंने उससे बात करना बेहतर समझा ,मैंने पूछा -तुम ऐसा व्यवहार क्यों करती हो ?क्यों चुपचुप सी रहती हो ?क्या तुम्हारा यहाँ मन नहीं लगता ?आखिर मैं पति हूँ तुम्हारा ,पूरी जिंदगी तो हम इस तरह नहीं रह सकते। वो चुपचाप सुनती रही मैंने फिर से पूछा -क्या तुम्हें मैं पसंद नहीं या मेरी कोई बात ?जबाब दो !वो बोली -क्या तुमने कभी सोचा है ?कि तुम मेरे लायक हो ?उसने मुझसे ही प्रश्न किया। मुझे तुम पसंद नहीं थे ,मैंने मना भी किया ,तो माता -पिता ने सफ़ाई दी -''लड़का अच्छी कम्पनी में 'प्रबंधक 'है ,खूब कमाता है ,सबसे बड़ी बात कुछ खाता -पीता भी नहीं ,वरना आजकल के तो शराब ,गुटखा इत्यादि नशा करते हैं। यह सोचकर वो स्वयं ही संतुष्ट हो गए ,मुझे भी सुनाया लेकिन मुझसे पूछा भी नहीं, कि मैं क्या चाहती हूँ ?मैंने कोशिश भी की ,तो मेरी बातों को नजरंदाज कर दिया। मेरा ये जबरदस्ती का विवाह है ,न ही तुम मुझे पहले पसंद थे ,न ही अब ,उसकी बातें सुनते -सुनते वो जड़ हो गया ,वो बस चुपचाप बैठा सुने जा रहा था और वह न जाने क्या -क्या कहे जा रही थी ?वो सोच रहा था जिसे अपनी क़िस्मत समझे बैठा था वो तो अपनी थी, ही नहीं। क़िस्मत मुझे बहला रही थी। सोने के खोल में ,ज़हरीली कटार अपने साथ ले आया। उसके मुँह से बस इतना निकला -ये बात तुम पहले भी तो बता सकती थीं ,मैं स्वयं ही इंकार कर देता ,उसे लग रहा था ,जैसे वो रिक्त हो गया हो ,उसमे जान ही न रही हो। सोचने -समझने की क्षमता ही कम हो गयी हो ,वो बहुत देर तक इसी तरह लेटा रहा। आज काम की भी छुट्टी हो गयी ,वो जैसे शक्तिहीन हो गया। उसे पड़े -पड़े शाम हो गयी। शायद नींद से जगा हो ,उसे लग रहा था जैसे उसने कोई बुरा सपना देखा हो लेकिन उसका मस्तिष्क तेज़ी से दौड़ रहा था।
उसने सुमन से कहा -इस ज़बरदस्ती के रिश्ते में अब हम और नहीं रहेंगे ,तुम अपनी तैयारी कर लो, कल अपने घर जा सकती हो। जो वस्तु मेरी है ही नहीं, उसके लिए क्या भ्रम बनाये रखना। उसने अपने मन को समझाया। अगले दिन मैंने उसे भारी मन से गाड़ी में बिठा दिया , किन्तु मेरा मन कह रहा था कि वो बोले -जो भी मैंने कहा-'' झूठ है ,एक मज़ाक था'' लेकिन वो गाड़ी में बैठी और चली गयी ,मुड़कर भी नहीं देखा। कुछ दिनों बाद उसकी मम्मी का फ़ोन आया -ये इस तरह यहाँ क्यों आई है ?मैंने जबाब दिया - मुझसे बेहतर तो इसका जबाब आपकी बेटी ही दे सकती है। इसके एक माह पश्चात तलाक़ का नोटिस आ गया। उसने अपने घरवालों को किस तरह समझाया अथवा क्या बताया ?मैं नहीं जानता ,एक हल्की उम्मीद थी कि घरवाले कारण जानना चाहेंगे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। अब तो ये बात मेरे घरवालों को भी पता चल गयी ,उन्हें इस बात का बेहद दुःख हुआ यदि ये बात पहले ही पता चल जाती तो ये ताम -झाम तो न होते।' मेरे बच्चे की जिंदगी नर्क बना दी, माँ दुःखी होते हुए बोली। तलाक़ का केस चला किसने किस पर क्या आरोप लगाये ?क्या फ़र्क पड़ता है ?किन्तु जिंदगी तो एक बड़ा झटका दे ही गयी। उससे उबरने में दिन, महीनें ,वर्षों लग गए। माता -पिता को तो अपने बच्चे की चिंता थी ,वो तो अपने बच्चे का बसा घर देखना चाहते थे।
धीरे -धीरे वो उन परेशानियों से उबरे ,शर्मिंदगी और उठानी पड़ी और उसके साथ ही एक नाम और जुड़ गया ''दुहाजू ''उसे देखने लड़कीवाले आते ,उसे शंका से निहारते ,आस -पड़ोस और रिश्तेदारों से छानबीन करते ,जैसे मैंने कोई अपराध किया हो। उनके प्रश्न होते - पहली वाली तो इतनी सुंदर थी फिर इनका तलाक़ [संबंध विच्छेद ]क्यों हुआ ?क्या दहेज़ के कारण ?या लड़के का किसी लड़की के साथ चक्कर था। सब लड़की का दुःख देख और समझ पाते हैं लेकिन मैं तो रो भी नहीं सका क्योंकि मैं शक्तिशाली पुरुष जो हूँ। मैं अत्याचार के लिए ही जाना जाता हूँ ,मेरे सहन करने की शक्ति को कोई नहीं देखता ,न ही जानना चाहता। कि मेरी आत्मा भी रोती है ,मेरा भावुक मन भी, वफ़ा को तलाशता है। प्रश्न करता है, कि उसने मेरे साथ ऐसा क्यों किया ? पहले ही मना कर देती ,तो ये मन इतनी उम्मीद न लगाता और ज़िंदगी में इतनी हलचल तो न मचती। मेरा दिल मेरे अरमान टुकड़े -टुकड़े हो गए थे। माँ ने कहा -इसमें इतना अफ़सोस क्यों है ?जो तेरी ही नहीं थी ,उसका कैसा दुःख ?जिंदगी में कई हादसे ऐसे हो जाते हैं जिनकी हमें उम्मीद ही नहीं होती, फिर भी ज़िंदगी चलती है हम जीवन जीते हैं ,उसमें भी कोई भलाई ही छिपी होगी ,उस झूठ और धोखे के लिए केेसा शोक ?माँ की बातों को सुन मैंने हाँ कर दी ,कहते हैं न -''दूध का जला ,छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है ''अबकि बार मैंने लड़की से बात भी की ,वो सुंदर होने के साथ -साथ सीरत की भी सुंदर थी जो उसकी सुंदरता से कई गुना अच्छी थी ,जो धीरे -धीरे मेरे जख्मों पर मरहम का काम कर रही थी। कुछ घाव ऐसे थे ,जो अपराध जो मैंने किये ही नहीं ,अनजाने ही उनकी सज़ा भुगत रहा था।



