Bantvara

जब मैं छोटा था , मेरा एक परिवार था ,मेरे परिवार में चाचा ,ताऊ ,ताई ,मौसी आदि रिश्ते थे। सब मेरे अपने थे। मेरा शहर ,मेरा मौहल्ला ,मेरा परिवार, मेरा देश। कहने में ,सब कुछ कितना अच्छा लगता है ?बच्चा था न ,सभी प्यार से बात करते। विद्यालय जाने के लायक हुआ,तब मैं दो भाषाओँ में बंट गया। एक मेरी अपनी 'मातृभाषा दूसरी विदेशी ''इस कारण घर में झगड़ा भी हुआ कि माँ कहती -मेरा बेटाअंग्रेज़ी माध्यम में जायेगा किन्तु पिता ने कहा -हिंदी में। दो लोगों की, दो सोच में मैं बंट गया। इतना ही नहीं ,मेरे विद्यालय में कुछ बच्चे गाड़ियों से आते ,कुछ रिक्शे में किन्तु मेरा मन भी करता कि मैं भी बड़ी सी गाड़ी में बैठकर

जाऊँ। मैंने अपनी इच्छा अपने पिता के सामने व्यक्त की ,तब पिताजी ने मुझे साईकिल पर जाने वाले ,पैदल चलने वाले भी दिखाए ,बोले -देखो ,ये लोग तो पैदल ही चल रहे हैं ,हमारे पास कम से कम स्कूटर तो है। हम इतने अमीर नहीं  कि गाड़ी लें ,तब मुझे पता चला कि हम एक जैसे नहीं कुछ लोग अमीर हैं तो कुछ ग़रीब ,हम लोग अमीरी -ग़रीबी में बंटे हैं। मैंने समय -समय पर अपने को गरीबी -अमीरी की चक्की में पिसते पाया। मैं कभी -कभी दादी के साथ मंदिर चला जाता ,मैं वहाँ जाकर खूब ख़ुश होता क्योंकि वहाँ हमारे कई सारे भगवान जो रहते हैं। मैंने पूछा -मैं किसको पूजूँ ?दादी ने बताया -सब एक हैं ,बस रूप अलग -अलग हैं। चलो मैं यहाँ तो नहीं बंटा ,मेरे मन में बात बैठ गयी कि पूजा किसी भी रूप की करो लेकिन भगवान के पास मेरी प्रार्थना पहुंच ही जाएगी। 
                    आज ईद की छुट्टी है ,मैं अपने पिता के साथ बाज़ार गया ,वहाँ देखा ,कुछ लोग इकट्ठे होकर नए कपड़ों में बाहर निकले। एक -दूसरे  के गले लग रहे थे। मैंने अपने पिता से  पूछा -तब उन्होंने बताया कि ये मुस्लिम हैं। मैंने अपनी पुस्तक में पढ़ा था -'हिन्दू -मुस्लिम ,सिख ,ईसाई ,सब हैं भाई -भाई। ''मैंने कहा -फिर तो ये हमारे ही भाई हुए ,हम भी गले लगेंगे ,हम भी नए कपड़े पहनेंगे किन्तु पिता ने बताया -ये लोग हमारे सम्प्रदाय के नहीं ,इनका मज़हब अलग है।   तब मुझे पता चला कि अमीर -गरीब ही नहीं हम इंसान तो धर्म और मज़हब में भी बंटे हैं। मुझे तो सभी त्यौहार अच्छे लगते थे -दियों वाली दीपावली भी ,दशहरा भी ,सिवईं वाली ईद भी ,मेरा दोस्त  लाता था। क्रिसमस पर सेंटा भी आता था। हमारे विद्यालय का यह अच्छा प्रयास था सबको एक -दूसरे विषय  में पता चले ,प्रेम व भाई -चारा बढ़े। लेकिन मेरे मन में अक़्सर ये प्रश्न उठता  कि हम सब एक होकर क्यों नहीं रहते ,अलग -अलग सम्प्रदायों में क्यों बंटे हैं ?दिखते तो सब एक जैसे हैं फिर अलग -अलग कैसे हुए ?भगवान को अल्लाह कहने से ,अथवा यीशू कहने से क्या वो मालिक भी बंट गया? हम तो बंटे ही ,हमने उसे भी बाँट दिया बल्कि उसने हमें नहीं बाँटा, हम सब एक जैसे ही हैं। 
हमने ही अपने को भाषाओं से लेकर पहनावे तक ,रहन -सहन से लेकर रीति -रिवाज़ों में बाँट लिया। मैं कई बार गुरुद्वारा गया ,वहाँ सेवा भी की ,लंगर भी खाया। उन लोगों का सेवा भाव देखकर मैं भी अपने घर आकर दादी और घरवालों की सेवा के लिए हाजिर रहता। मेरे मन में भाव जागे जब ये लोग न जाने कितने लोगों के प्रति सेवा भाव रखते है ?तब मैं अपने लोगों की सेवा तो कर ही सकता हूँ। 

            सबके धर्म ग्रंथ भी अलग -अलग ,सब अपने- अपने को ही श्रेष्ठ साबित करना चाहते। मैंने सभी ग्रंथ तो पढ़े नहीं लेकिन जितना भी ज्ञान हुआ उसके मुताबिक सभी ग्रंथ प्रेम से रहना सिखाते। मैं तो अपने सम्प्रदाय के लोगों में ही बंट गया। एक दिन मैं खेल रहा था, तभी माँ चिल्ला उठी -अरे डब्लू ,उधर मत जाओ !उधर जमादारनी है ,तुम उससे भिड़ जाओगे ,नहाना पड़ेगा। मैंने पूछा -क्यों ,क्या ये हिन्दू नहीं ?हम जैसी नहीं ,मेरे मन में प्रश्न कुलबुलाए। बाद में पता चला कि हम लोग चार वर्णों में बंटे हुए थे -ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य ,शुद्र और इसी आधार पर कर्म भी बँटे हुए थे। तब पता चला ,हम तो जाति -पाँति , कर्मों के आधार पर ऊंच -नीच में भी बँटे  हैं। इतना ही नहीं, भगवान को भी अपनी ही सोच के आधार पर बाँट दिया -कुछ लोग वैष्णव ,कुछ शैव भक्त ,कहीं काली की पूजा होती ,कहीं गणपति जी विराजमान होते। सबको मालूम है कि भगवान एक है ,उसी ने सबको बनाया लेकिन इंसान ने तो भगवान को भी अलग -अलग रूपों में अलग -अलग नामों में बाँट दिया दिया। भक्ति को भी बांटा -प्रेम भक्ति ,योग भक्ति और भी न जाने क्या -क्या ?जैसे -जैसे उम्र बढ़ने के साथ -साथ समझ आ रही है ,मुझे लगता जैसे मैं कोई इंसान नहीं वरन कोई शिकार [मक्खी या कोई भी कीट ]हूँ जो इस मकड़जाल में फँसता जा रहा हूँ। ये जाल बड़ा ही मज़बूत और विस्तृत है ,इसका कोई तोड़ नहीं ,न ही  मेरा सामर्थ्य ,बस मैं छटपटा ही सकता हूँ। 
            सोचा ,मन की शांति के लिए किसी गुरु को ही धारण कर लिया जाये ताकि मुझे सही राह मिले ,मेरी छटपटाहट कम हो। मेरा विचार सबको पसंद आया साथ ही प्रस्ताव भी ,मेरे गुरु से दीक्षा लो ,मेरे गुरु को धारण करो। यहाँ गुरु भी आश्रमों के रूप में अपनी दुकान खोले बैठे हैं ,कुछ तो व्यापार  में ही लिप्त हैं। इतने गुरूओं में सच्चा गुरु तलाशना मुझ अज्ञानी के लिए ,भूसे के ढेर में सुईं ढूंढने के समान है। समाज में

राजनीति में भी लोग बँटे थे। कुछ इस समुदाय के ,कुछ दूसरे समुदाय से ,एक- दूसरे पर आरोप मँढते ,अपनी गलतियों को छिपा दूसरे की बातें उछालते ,जब भी जिसका पलड़ा भारी हो जाता ,वही पलटवार करता। इस चक्की में पिसता  कई  हिस्सों में बँटा हुआ ,आम आदमी। जो पहले से ही ऊँच -नीच ,जाति -पाँति ,अमीर -ग़रीब ,अपने -अपने पसंद के समुदायों में बँटे थे लेकिन कुछ भक्त ऐसे हैं जो अंधभक्त कहलाते हैं जो अपने उस समुदाय से बँधे हैं। सच्चाई के साथ नहीं। किसी न किसी समुदाय से अपने स्वार्थ पूर्ण कर्मो के लिए बँटे हैं। सबसे बड़ी बात इतने हिस्सों में बंटने के बाद भी वो अपने को सच्चा और अच्छा साबित करता है। मैं सही हूँ दूसरा गलत। वो स्वयं ही इस जाल में उलझकर रह जाना चाहता है क्योंकि जब तक उसको इस बात की समझ होती है तब तक उसकी उसे आदत पड़ चुकी होती है। 











laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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