माँ में अब भी बचपना है ,
कभी -कभी माँ बच्ची नज़र आती है।
सब कहते हैं ,माँ हिम्मती ,साहसी ,
त्यागी ,ममता की मूरत नज़र आती है।
मैं सोचता हूँ ,माँ में अब भी बचपना है।
माँ ! अब भी बच्ची नज़र आती है।
कभी -कभी पिताजी से झगड़ती है ,
गुस्साती है। कभी -कभी माँ बच्ची नज़र आती है।
मनाओ, तो मान जाती है,समझाओ तो समझ जाती है।
गलतियों पर हमारी, रूठ जाती है।
सारा दिन काम में लगी रहती है।
पर ,हमारे लिए ही सोचती है।
ख़ुशी के मौकों पर ,संग हमारे नाच उठती है।
संग हमारे खिलखिलाती है।
हमें सीखाने के फेर में ,अपने को भूल जाती है।
उसकी जिंदगी हमारे इर्द -गिर्द घूमती नज़र आती है।
कभी -कभी बच्चों की तरह मुस्काती है।
पिताजी से हमारे लिए लड़ जाती है।
कभी -कभी माँ बच्ची नज़र आती है।
कभी हम बाहर जाते हैं ,
तो आंचल से ऑंसू छिपा जाती है।
बहुत दिन बाद मिलने पर ,गले लिपटकर रो देती है।
कभी हमारे भले के लिए कठोर बन जाती है।
कभी -कभी माँ बच्ची नज़र आती है।
कठोर सास बन, अधिकार जताती है।
फिर बेबसी ले ,मासूम नज़र आती है।
बच्चों संग बच्ची बन जाती है।
अपने बड़ेपन का भी एहसास दिलाती है।
अपनी की गलतियों पे मुस्काती है।
मन ही मन , पछताती है ,भीड़ से अलग नज़र आती है।
कभी -कभी माँ बच्ची नज़र आती है।
