anjane raahi

मैं  कितना परेशान हुआ था ?रोया  था ,गिड़गिड़ाया था लेकिन पिताजी ने मेरी एक भी न सुनी थी। अपनी भावनाओं को किस -किस तरह दफ़नाया था ?ये लोग क्या  जाने ,कैसे मेरे दिल के, मेरे अरमानों के टुकड़े -टुकड़े हुए थे किन्तु घरवालों  को मेरे अरमानों ,जज्बातों से जैसे कोई मतलब नहीं था। कहने को तो उनके  घर का चिराग़ था लेकिंन उस चिराग़ की धुंआ -धुंआ होती जिंदगी उन्हें नज़र नहीं आ रही थी। ज़िंदगी से जैसे विश्वास उठ  गया था ,जीने  इच्छा ही न रही। पिताजी के वो शब्द  कानों में गूंज रहे हैं ,जब उन्हें मेरे और पलक के बारे में पता चला था -'उन्होंने साफ और सीधे शब्दों में कह दिया था ,कि हम ब्राह्मण और वो दलित ,अपनी जात का सर्वनाश न होने देंगे ,ऐसा प्यार गया चूल्हे में ,जिसमें अपनी जात ,अपने परिवार की  मान-मर्यादा का ख़्याल न हो। हमने तुम्हें पाला -पोसा ,इस दिन के लिए कि बड़े होकर एक दलित लड़की के लिए अपने घर की इज्ज़त दांव पर लगा दो। पाल -पोसकर इतना बड़ा किया ,अब हमारा इतना भी

अधिकार नहीं कि अपने बच्चे के सही -ग़लत के फ़ैसले हम  सकें। मैंने समझाने का प्रयत्न करते  हुए कहा -पिताजी अब पहले जैसी बात नहीं रही, उसके पिता की सरकारी नौकरी है ,वो भी अभी पढ़ रही है , वो भी सरकारी नौकरी में लग जाएगी। अब तो उन्हें  सरकारी सुविधाएं भी बहुत मिल
ती हैं। 
                 पिताजी समझाने से और तैश में आ गए ,बोले -तो क्या अपनी जात बिगाड़ दें ,सात पुश्तों के लिए कलंक लग जायेगा। हमारे ख़ानदान में ऐसा कभी नहीं हुआ ,जो लोग हमारे साथ भी बैठने लायक़ नहीं उन्हें अब रिश्तेदार बना लें। वो लड़की भी, देखो कितनी चालाक है ,उसने भी ब्राह्मण का ही लड़का चुना। सक्षम विवश सा होता हुआ बोला -अब जात -पात को कोई नहीं मानता। न ही मैं ,न ही वे लोग। पिताजी ने अपना पक्ष रखा बोले -वे लोग मानते हैं ,उसने अपनी ही बिरादरी का या अपने से छोटी बिरादरी का लड़का क्यों नहीं देखा ?उसने तुम्हें ही क्यों चुना ?कभी सुना है कि किसी दलित ने अपने से छोटी बिरादरी में विवाह किया। हर आदमी आगे  बढ़ना चाहता है ,ऊपर देखता है और तुम नीचे गिर गए। जात  -पात का भेदभाव न दिखाकर तुम तो नीचे गिरते जा रहे हो और वो लोग आगे बढ़ते जा रहे हैं ,उन्हें तो सरकारी नौकरी भी जैसे झोली में आकर गिर रही हैं ,मैं उसके बाप को भी जानता हूँ ,वो 'थर्ड क्लास ''आदमी अफसर बना बैठा है और मैं पढ़ाई में अव्वल होने पर भी ''गैर सरकारी ''नौकरी बजा रहा हूँ। वो गाना सुना है ''राम चंद्र कह गए सिया से ,ऐसा कलयुग आयेगा ,हंस चुगेगा दाना तिनका ,कव्वा मोती खायेगा। ''इस कहावत के पश्चात कुछ देर तक वहाँ शांति रही। मैंने अपना प्रयत्न जारी रखते हुए ,बात को आगे बढ़ाना चाहा -प्यार में ये सब चीजें कहाँ सोची जाती हैं ?धर्मपाल जी का गुस्सा बढ़ गया ,बोले -क्या हमारी बिरादरी में लड़कियाँ नहीं रहीं। उसको तो तुम्हें नीचे गिराना था और तुम गिर गए। बड़े आये सरकारी नौकरी का रौब लेकर वो मुँह में ही बुदबुदाए ,फिर बोले -सरकारी नौकरी है, तो क्या खरीद लिया ?उसके बाप की भी हिम्मत देखो ,अपनी बेटियों को खुले आम छोड़ रखा है ,कहीं भी मुँह मारती फिरें। पता है, किसी अच्छे घर के लड़के को ही फ़सायेगीं। उनकी बात सुन सक्षम को गुस्सा आया लेकिन अपने पर काबू रखते हुए ,बोला

-ऐसी बात नहीं है पिताजी!लेकिन पिताजी और क्रोध से आग बबूला '' हो उठे ,बोले -और कैसा है ?हमें मत सिखाओ !हमने दुनिया देखी है। बिरादरी में किस -किस से मुँह छिपाते फिरेंगे ?कि बेटा दलित बहु घर में लाया है। क्या हमारे समाज में लड़कियों का अकाल पड़ गया ?जात -पात का भेद ही मिटाना है तो क्या इस तरह मिटेगा ?अपनी जात की ख़ानदान की लुटिया ही डुबो दें। जब किसी भी तरह न माने तो माँ से मनवाने का प्रयत्न किया लेकिन माँ तो पिताजी से भी दो क़दम आगे थीं ,उन्होंने साफ़ -साफ़ इंकार कर दिया। बेटे की भावनाओं उसकी इच्छा से ज्यादा ख़ानदान की इज्ज़त प्यारी थी। मैं अपने अरमानों की गठरी लिए। महीनों रोता -भटकता रहा। 
          उधर पलक ने भी मेरा इंतजार न कर अपना विवाह कर लिया।उसके पिता भी कम न थे, उन्होंने भी ''निमंत्रण पत्र ''भेजा , पता नहीं क्या दर्शाना चाहते थे ? हमारे यहाँ से कोई नहीं  गया लेकिन जब  पलक अपनी ससुराल से आती तो एक बार मेरे घर की तरफ अवश्य ही देखती। मैं विवशता से परिपूर्ण लाचार दृष्टि से उसे निहारता। उसके विवाह के पश्चात मैंने फिर कभी उससे मिलने का प्रयत्न भी नहीं किया। उधर माता -पिता अब मेरी ज़िंदगी के विषय में सोचने लगे कि जब इसका विवाह हो जायेगा तो उसे भूल ,ये भी आगे बढ़ जायेगा।  इंकार करने के  बाद भी उन्होंने एक सुंदर ,सुशील ,पढ़ी -लिखी कन्या से मेरा विवाह करा ही दिया। कभी -कभी लगता है कि जो माता -पिता अपने बच्चों से इतना प्यार करते  हैं ,पूरा जीवन बच्चों पर ही न्यौछावर करते हैं ,उनके सुख -दुःख का ख़्याल रखते हैं। वो कैसे ,उनके प्यार के लिए कठोर बन जाते हैं ?शायद बच्चों से ज़्यादा उन्हें अपनी इज्ज़त प्यारी होती है। 'साधना' सुंदर ,मेहनती ,कर्मशील  महिला थी किन्तु वो फिर भी 'पलक 'का स्थान हटा ,वो  मेरे ह्रदय में अपनी जगह  न बना सकी। मैं अक़्सर उसमें पलक को खोजने का प्रयत्न करता और फिर निराश हो उठता। हम साथ होते हुए भी एक -दूसरे से अनजाने थे। वो चाहती थी, कि मैं जैसी भी हूँ उसी रूप में' मैं 'उसे वो ही मान -सम्मान और प्यार दूँ ,जिसकी वो वास्तव में हकदार थी। उसने मेरी,माँ -पिताजी की सेवा में कोई कसर न छोड़ी। दो बच्चों के बाद उसने भी किसी'' गैर सरकारी विद्यालय'' में नौकरी भी करनी शुरू कर दी। 

        उसने अपनी तरफ से हर सम्भव प्रयास किया कि वो घर में सबकी चहेती बने लेकिन मैं चाहते हुए भी उसे वो प्यार और अपनापन न दे सका। परिवार में ये भी होता है ,जब पति से ही वो सम्मान या प्यार न मिले तो माँ का व्यवहार भी बदलने लगता है और इसका दोष वो बहु को ही देती है कि तुझमें ही कमी है जो अपने पति का प्यार न पा  सकी। पिताजी सेवा निवृत हुए। आमदनी सीमित रह गयी ,घर में उन्नति कैसे हो ?कई वर्ष हो गए घर की मरम्मत और पुताई भी नहीं हुई। सास का तो अपने पति की कमाई में खुला हाथ था, ऊपर की भी थोड़ी बहुत कमाई हो जाती थी। अब हाथ सिकोड़कर काम करना पड़ता ,तो  झुंझलाहट होती ,क्रोध आता, जो साधना पर निकलता -पढ़ने के बाद भी कोई ढंग की नौकरी नहीं ,सारा दिन खटो, तब जाकर कुछ रुपल्ली हाथ लगती है। उधर साधना तड़के उठते ही घर के  काम में जुट जाती उसके पश्चात अपने काम पर जाती फिर वहाँ से आकर काम करती। कभी -कभी उसे लगता कि वो'' कोल्हू के बैल'' की तरह सारा दिन लगी रहती है ,फिर भी कुछ हासिल नहीं हो रहा। आजकल इंसान का  कोई मूल्य नहीं ,उसका मूल्य तभी तक है ,जब तक कि कुर्सी है और जब कुर्सी नीचे से निकल गयी तो कब तक खड़े रहोगे ?कभी तो पैर थकेंगे ?उधर छोटे के लक्षण कुछ ठीक नजऱ नहीं आ रहे ,वो भी सारा दिन आवारागर्दी में रहता ,ऐसा माता -पिता को लगता। उसकी नौकरी भी लग गयी और उसने विवाह भी कर लिया। 
           हम सबके लिए ये बहुत ही चौंका देने वाली ख़बर थी ,उसने '' प्रेम विवाह 'किया वो भी अंतर्जातीय।  किया भी किससे ?पलक की छोटी बहन मनु से। माता -पिता में अब इतने विरोध की ताकत नहीं रही फिर भी अपनी जात -बिरादरी का रोना रोया और दोनों को घर में घुसने नहीं दिया। दोनों बाहर ही एक घर किराये पर लेकर रहे। एक वर्ष पश्चात , छोटी बहु ने ''करवा चौथ ''पर पूजकर सास को एक सुंदर और महंगी साड़ी भेजी। पहले तो उन्होंने वो साड़ी बेमन से देखी थोड़ी -बहुत बातें ऊँच -नीच बेटे को समझायी और उसने सुनी भी। जब उनकी भड़ास निकल गयी तो बेटे के जाने के बाद साड़ी को अपने तन से लगाकर देखा। उन्हें वो साड़ी बेहद पसंद आयी और उसे दिखाते हुए ,सक्षम के पिताजी से बोलीं -देखो ,बड़ी बहु ने तो ऐसी सुंदर और महंगी साड़ी कभी नही पूजी। दोनों ही शांत थे ,लगता था जैसे दोनों ने ही परिस्थितियों से समझौता कर लिया। यह सब देखकर तो सक्षम के दिल के फफोले फूट पड़े ,वो सोच रहा था -ऐसा कदम उसने क्यों नहीं उठाया ?आज वो और मैं साथ -साथ होते ,इस तरह अपनी जिंदगी का सर्वनाश होते न देखता। साधना भी वहाँ आकर दो घड़ी भी सुखपूर्वक न रह सकी। पढ़ी -लिखी होने के बाद भी ,नौकरी करने के बावज़ूद भी, सारा दिन नौकर की  तरह लगी रहती। पति का प्यार तो मिला ही नहीं अब तो सास -ससुर को भी नहीं भाती। जब से उसे पलक और सक्षम के विषय में पता चला तो दूरियाँ और बढ़ गयीं। कम से कम वो रिश्ते निभाने का प्रयत्न तो करती थी अब तो उसने भी कोशिश बंद कर दी। 

 
           जब से छोटी ने महंगी साड़ी पूजकर दी है तबसे उसकी इज्जत बढ़ी है ,अब किसी ने ध्यान नहीं दिया कि वो कौन है ,किसके  पैसे से आई है , साधना ने मुँह बिचकाकर मन ही मन सोचा -सब पैसे की ही माया है। जात  -बिरादरी कुछ भी नहीं ,बस पैसा बोलता है ,आज के युग की यही सच्चाई है ,यही सोचकर वो ठंडी आहें भरती। काश !मैं  भी अमीर माँ -बाप की औलाद होती या मेरी कोई सरकारी नौकरी होती। अति तो तब हुई, जब छोटी एक बेटे की माँ बनी और उसे ससुराल में ससम्मान प्रवेश कराया गया। सब रिश्तेदारों और बिरादरी से मिलवाया गया, उसके बेटे का बहुत बड़ा कार्यक्रम [जसुटन ]करवाया गया। जसुटन तो मात्र बहाना था ,असल में तो उस कमाऊ बहु से सबको मिलवाना था। रिश्तेदार भी खुश थे कोई भी कुछ नहीं बोला। जसुटन में पलक भी अपनी गाड़ी से उतरी ,उसे देख साधना को लगा जैसे वो अपनी बहन की  नहीं ,अपनी जीत पर ख़ुशी मनाने आयी है कि मैं नहीं तो मेरी बहन ही सही। सक्षम उसे दूर से देख रहा था साधना उसे घूर रही थी कि इसके कारण ही मेरी जिंदगी में  आज भी मेरा पति मेरे साथ होकर भी मेरे साथ नहीं है। गलती किसकी है, किसको दोष दें ?ये तीनों राही एक -दूसरे से जुड़कर भी एक -दूसरे के साथ नहीं। अपनी -अपनी डगर चले जा रहे हैं ,कुछ पहचाने से अनजाने राही। 






















laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

Post a Comment (0)
Previous Post Next Post