shok[hobby ]

ये ही तो छोटे -छोटे शौक ,छोटी -छोटी इच्छाएं तो होती हैं ,बेटियों की ,क्या कोई खजाना माँग लिया ?ये सब जिद तो अपने पापा से ही कर सकती है। हम जो मेहनत करते हैं ,कमाते हैं ,अपने बच्चों की इच्छापूर्ति के लिए ही तो करते हैं ये सब ,फिर अगले घर चली जायेगी ,तब किससे ज़िद करेगी ?जब मैं अपने विद्यालय से आऊँगा तो कौन दरवाज़े पर खड़ी हो ,मेरी प्रतीक्षा  करेगी ? मास्टरजी ने अपनी  पत्नी को समझाते हुए कहा। क्योंकि मास्टरजी बेटी  की हर ज़िद पूरी कर देते थे। आज बेटी की इच्छा थी, समोसे खाने  की , तो गर्मागर्म समोसे ले आये ,परसों तो उसे दुकान पर ही ले गए थे, वहीं उसे रसमलाई खिलाकर ले  लाये।

उनकी  इन्हीं बातों को देखते हुए उनकी पत्नी उन्हें समझा रही थी ,वो कह रहीं थीं --जब देखो ,अपनी बेटी की ख्वहिशें पूरी करते रहते हैं , घर में और भी तो बच्चे हैं ,आप जो भी चीज़ें लाते  हैं सर्वप्रथम उसके लिए रखी जाती है ,उसके उपस्थित न होने पर भी सबसे ज्यादा उसके लिए रखते हैं। वो अक़्सर कहती -पिताजी !आप जो भी वस्तु या चीज लाये हैं ,मैं दो लूँगी। मास्टरजी उसकी इसी बात को ध्यान में रखते हुए जो भी सामान लाते उसके लिए  दोगुनी चीज अलग से निकालकर रख देते। उन्हें किसी पर विश्वास नहीं था इसी कारण अपने हाथों से अपनी निगरानी में रखते। उनकी इन हरकतों को देखते हुए ,उनकी पत्नी कहती -आप अपनी बेटी को बिगाड़ रहे हैं ,घर में और भी तो लोग हैं ,सबके बराबर दिया करो ,इसे अगले घर भी जाना है ,इसकी वहाँ इच्छाएँ पूरी न हो पाई तो तो इसे ही परेशानी होगी। तब मास्टरजी कहते -क्यों न हो पायेंगी ?हम लड़का ऐसा ही ढूंढेंगे जो हमारी बेटी की खुशियों का ख़्याल रखे जो इसकी इच्छाओं को पूरा करे।  
       माता -पिता कितने सच्चे -सीधे होते हैं ?वो अपने बच्चों के बारे में बुरा  कहना तो दूर ,सोच भी नहीं सकते। उनका यही प्रयत्न रहता है कि ज़माने भर की  खुशियाँ उनकी झोली में डाल दें और बच्चे को  किसी भी तरह का दुःख या तकलीफ़ न पहुँचे। अपने मायके में बेटियाँ भी कितनी नाजुक़ होतीं हैं ?तनिक भी चोट लगी नहीं कि सारा घर सिर पर उठा लेतीं हैं। हाय !मेरे हाथ में चोट लग गयी या मेरा हाथ कट गया। अपनी बेटी की इतनी सी तकलीफ़ देखकर उसके पिता उसे पट्टी बांधते और जिस भी कारण से चोट लगती , तुरंत करने के लिए मना कर देते। आज ही की बात लो ,उसकी मम्मी ने उसे आलू छिलने के लिए बैठा दिया ,चाकू भी छिलने वाला था उसकी एक छोटी सी खरोंच उसे लग गयी और दुलारी  ने जो शोर मचाया उसके पिता ने आलू और चाकू दोनों उसके हाथ से छीने और अपनी श्रीमतिजी को डाँटने लगे -तुम्हे क्या आवश्यकता थी, इससे आलू छिलवाने की। मम्मी बोलीं -क्या अब मैं इससे मदद भी नहीं ले सकती ?मास्टरजी ने दुलारी  के हाथ में दवाई लगाई और स्वयं ही सब्जी काटने बैठ गये। 
         मास्टरजी ने बड़ी धूमधाम से बेटी का विवाह किया ,कितने अरमानों से उसे डोली में  बिठाया।  बिटिया भी संस्कारों में बँधी ,अपने पिता की लाड़ली दूसरे घर यानि ससुराल आ गयी। उसने अपनी घर -गृहस्थी को अच्छे से संभाला। परिवार  का ख़्याल रखते -रखते कभी -कभी खाना ,खाना  भी भूल जाती। माता -पिता तो प्रयत्न कर सकते हैं कि हमारे बच्चों को किसी भी प्रकार की परेशानी न उठानी पड़े ,बच्चे की क़िस्मत तो नहीं बदल सकते। यही तो हुआ ,उनकी दुलारी के साथ। लाड़ में ही तो उसका नाम 'दुलारी 'रखा था ,अपने पापा की लाड़ली जो थी। शुरू में तो उसका पति अज़नबी की तरह रहा वो समझ नहीं पाई कि उसका स्वभाव केेसा है ,वो क्या सोचता है ?उसके बारे में जानने का प्रयत्न करती तो भड़क उठता ,वो अपनी ही दुनिया में खोया रहता। उसके माता -पिता की सेवा में लगी रहती तो कहता- मेरा ध्यान ही नहीं है। अपनी तरफ से दुलारी का यही प्रयत्न रहता कि उसकी किसी बात से दीपक को गुस्सा न आये लेकिन कुछ न कुछ ऐसा हो जाता कि वो अपना होश खो बैठता। वो उसके स्वभाव को समझ नहीं पा  रही थी ,कभी लगता वो मानसिक रूप से बिमार है अगले ही पल वो शांत हो जाता। एक दिन तो दीपक ने गुस्से में आकर उसके ऊपर कोई डिब्बा फेंककर मारा ,बात सिर्फ इतनी ही थी कि वो बाहर दरवाजे तक सब्ज़ी लेने गयी थी और दीपक उसे किसी काम के लिए पुकार रहा था ,वो सुन नहीं पाई ,अंदर आते ही उसने आव देखा -न ताव सीधे उसके ऊपर डिब्बा फेंका जो दुलारी के माथे पर जा लगा। 

           कभी -कभी उसकी  सास भी 'आग में घी डालने' का कार्य करती ,कहती -इसकी माँ ने इसे कुछ नहीं सिखाया। तब उसे अपनी मम्मी की चिंता का ख़्याल आया कि वो नहीं चाहतीं थीं- कि मेरी बेटी को किसी भी तरह के ताने -उलहाने सुनने को मिलें। आज वो बहुत देर तक रोती रही आज उसे अपने पिताजी की नहीं मम्मी की याद आ रही है। डिब्बा लगने से उसके माथे में गूमड़ सा  निकल आया। अपने हाथों से दबाती रही ,सोचती रही पिताजी की तो दुलारी थी किन्तु मम्मी के तो ज़िगर का टुकड़ा थी ,उनकी परेशानी निर्मूल नहीं थी ,उसने दवाई लगाई और काम में जुट गयी। कोई उससे पूछने वाला भी नहीं था  कि उसने खाना भी खाया या नहीं। औरत समाज से ,परिवार से सबसे लड़ सकती है यदि उसका पति उसके साथ है। यहाँ तो उसका पति जिसके लिए वो अपना घर छोड़कर आई ,वो ही अपना नहीं लग रहा। 
           किसी ने उसे सलाह दी कि तुम्हारा पति जब बच्चों मुँह देखेगा तो अपने -आप ही सुधर जायेगा ,इस कारण वो बच्चे की माँ भी बनी लेकिन दीपक के व्यवहार व स्वभाव में कोई अंतर् नजर नहीं आया। एक दिन उसके पिताजी उसके लिए त्यौहार पर मिठाई और कुछ कपड़े इत्यादि  लेकर गए लेकिन  झगड़े की आवाज आ रही थी ,वो अंदर गए ,सब शांत हो गए। दुलारी तो पिताजी को देख भावुक हो उठी किन्तु रोई नहीं ,मुस्कुराकर  ,बोली --आज हम बाज़ार जाने वाले थे ,उसी के लिए पर्चा बना रही थी। उसने चाय -नाश्ता बनाया हालाँकि मेरा मन नहीं था लेकिन मैंने सोचा ,थोड़ा ठहर जाऊँगा तो शायद बात का पता चले लेकिन मेरी बेटी तो अभिनय भी अच्छा  सीख गयी। मैं सोच रहा था ,मेरे घर की नाजुक़ सी बिटिया कब हिम्मती ,मजबूत बन गयी? वो स्वयं ही नहीं जानती ,बात -बात पर ज़िद करने वाली , इच्छाओं को दबाना सीख गयी। कहती थी ,पिताजी मेरे घर  में नौकर -चाकर और गाड़ियां होंगी ,आसमानों की सैर करने वाली मेरी बिटिया कब दो कमरों तक सीमित रह गयी ,उसने अपनी इच्छाएं दबाना भी  सीख लिया ,वो स्वयं ही नहीं जानती। विवाह के बाद अपनी इच्छाओं के विरुद्ध भी जूझती हैं। विवाह के बाद कैसे बदल जाती हैं ये बेटियां? पिताजी !उसकी आवाज़ से ध्यान टूटा, खाना खा लीजिये। नहीं ,मेरी कोई इच्छा नहीं ,अब मैं चलूँगा। मैं अपने घर आ तो गया लेकिन मन में बेचैनी थी। 
           एक दिन  दीपक  शराब पीकर उसे बहुत ही उल्टा -सीधा कहा ,पहले तो वो देर तक रोती रही लेकिन उसके मन ने पुकारा -क्यों रो रही है ,किस लिए और किसके लिए ?बहुत सहा ,अब नहीं सहना है ,उसकी अन्तरात्मा विरोध करने पर उतारू हो चुकी थी ,उधर उसके पिताजी ने सोचा -बेटी ने तो कुछ बताया ही नहीं लेकिन हम तो महसूस कर सकते हैं कि वो परेशान है ,अब मैं और अपनी बेटी को अत्याचार सहने नहीं दूंगा ,उसका अपना घर है ,वो कोई लाचार या बेबस नहीं ,अभी उसके माता -पिता जिन्दा हैं ये बातें सोचते हुए उन्होंने बेटी को फोन लगाया। बोले -तुम हमें नहीं बताओगी तो क्या हमें पता नहीं चलेगा ?

बेटी की ख़ुशी तो माँ -बाप उसके चेहरे से पढ़ लेते हैं। तुम तैयार रहना ,मैं तुम्हें लेने आ रहा हूँ ,अब मेरी बेटी और बर्दाश्त नहीं करेगी ,अपने घर आएगी। लेकिन उधर से जो जबाब आया वो सुनकर हैरत में पड़ गए। 
 दुलारी बोली -पिताजी अब यही मेरा घर है ,अपनी परेशानियों से डरकर या बचकर कब तक भागूँगी ?यहीं रहकर  उन परिस्थितियों से लड़ूंगी। मैंने कहा -लड़ना क्यों है ?अपने घर आओ ,इससे [दीपक ] तलाक़ ले लेना और हम तुम्हारा दूसरा विवाह कर देंगे। मेरी नाजुक सी बिटिया को जिंदगी ने क्या -क्या सीखा दिया ?,बोली -मेरी किस्मत में  यदि सुख होता तो दीपक ही क्या बुरे थे ?ये मेरी लड़ाई है ,इसे मैं ही लड़ूंगी  जीतूंगी भी कहकर ,उसने फोन रख दिया। मैं सोच रहा था ,अगर वो ऐसा कह रही है तो कुछ सोचा ही होगा। कितना सहा है ,उसने ?औरत  सहती है ,उठने का प्रयत्न करती है ,परिस्थितियों से लड़ते -लड़ते और मजबूत हो जाती है। दुलारी ने अब नौकरी कर ली और अपने अधिकार के लिए आज भी प्रयासरत है। न जाने कितनी दुलरियाँ आज भी मेरी दुलारी की तरह ही प्रयासरत हैं ,उनकी हिम्मत को मेरा आशीर्वाद।   

















     
laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

Post a Comment (0)
Previous Post Next Post