आज मेरी सहेली तनु हमारे घर आयी ,उसने 'मिनी स्कर्ट '' यानि दादी की बोलचाल में ''छोटा घाघरा ''पहने थी। घर में सभी लोग थे क्योंकि आज रविवार है ,मैं जल्दी से उसे अपने कमरे में ले आई क्योंकि दादी जी को इस तरह के कपड़े पसंद नहीं हैं। मैं भी, जब भी अपने विद्यालय जाती हूँ ,अपनी स्कर्ट को थोड़ा घुटनों तक पहनकर जाती हूँ ,तब भी दादी कुछ न कुछ कह ही देतीं। दादी कहतीं -भले घर की लड़कियाँ ऐसे वस्त्र नहीं पहनतीं। हम कहते -दादी ,ये आजकल का 'फैशन ''यानि इसी तरह के वस्त्रोँ का चलन है तब दादी का भाषण शुरू हो जाता ,कहतीं - आधुनिकता दिखानी है तो विचारों और व्यवहार में दिखाओ। ऐसे कपड़ों से आधुनिकता नहीं झलकती। ऐसे भाषण लगभग रोजाना सुनने को मिल जाते ,आज तनु आई है, तो दादी की निगाहें पड़ने से पहले ही मैं उसको अपने कमरे में ले आई ,फिर भी पता नहीं उन्हें किस तरह पता चल गया? कि कोई आया है ,यह जानने के लिए दादी मेरे कमरे में ही आ धमकीं।
उन्होंने तनु को देखा फिर मुस्कुराईं ,तनु ने उन्हें नमस्ते किया और वो वहाँ से चलीं गयीं। तनु को भेजकर मैं थोड़ा आश्वस्त हुई कि दादी ने उसके सामने कुछ नहीं कहा।मैं सोच रही थी,- कि दादी ने तनु को कुछ नहीं कहा ,हमारे तो पीछे पड़ी रहतीं हैं। मैंने दादी से कहा -मुझे तो झट से टोक देती हो ,तनु को कुछ नहीं कहा -तब दादी बोलीं- तुम मेरी पोती हो ,वो पोती जैसी ,ये अधिकार उसके अपने माता -पिता का है मेरा नहीं ,मेरा अधिकार तुम लोगों पर है तुम मेरे अपने हो। तब मुझे महसूस हुआ दादी हमें अपनेपन के कारण ही अधिकार भी समझती हैं ,तभी हमें कहती हैं। हम सब अपने -अपने काम में लगे थे। तभी दादी बोलीं -हमारे समय में तो लड़कियों को लड़कियों के विद्यालय में ही पढ़ाया जाता था। पहले तो लड़कियों को पढ़ाना ही नहीं चाहते थे कि पढ़-लिखकर क्या करेंगी ?घर के काम सीखेंगी तो उनके काम आएगा दूसरे घर जाकर घर ही तो सम्भालना होता है। फिर दादी गर्व से बोलीं -उस समय पर मैंने ही कहा, कि मुझे पढ़ना है। घरवाले बोले -ये सब काम न करने के बहाने हैं ,तब मैंने कहा -मैं काम भी करुँगी और पढूंगी भी।
उन्होंने तनु को देखा फिर मुस्कुराईं ,तनु ने उन्हें नमस्ते किया और वो वहाँ से चलीं गयीं। तनु को भेजकर मैं थोड़ा आश्वस्त हुई कि दादी ने उसके सामने कुछ नहीं कहा।मैं सोच रही थी,- कि दादी ने तनु को कुछ नहीं कहा ,हमारे तो पीछे पड़ी रहतीं हैं। मैंने दादी से कहा -मुझे तो झट से टोक देती हो ,तनु को कुछ नहीं कहा -तब दादी बोलीं- तुम मेरी पोती हो ,वो पोती जैसी ,ये अधिकार उसके अपने माता -पिता का है मेरा नहीं ,मेरा अधिकार तुम लोगों पर है तुम मेरे अपने हो। तब मुझे महसूस हुआ दादी हमें अपनेपन के कारण ही अधिकार भी समझती हैं ,तभी हमें कहती हैं। हम सब अपने -अपने काम में लगे थे। तभी दादी बोलीं -हमारे समय में तो लड़कियों को लड़कियों के विद्यालय में ही पढ़ाया जाता था। पहले तो लड़कियों को पढ़ाना ही नहीं चाहते थे कि पढ़-लिखकर क्या करेंगी ?घर के काम सीखेंगी तो उनके काम आएगा दूसरे घर जाकर घर ही तो सम्भालना होता है। फिर दादी गर्व से बोलीं -उस समय पर मैंने ही कहा, कि मुझे पढ़ना है। घरवाले बोले -ये सब काम न करने के बहाने हैं ,तब मैंने कहा -मैं काम भी करुँगी और पढूंगी भी।
हमें अपने को सबित करके दिखाना होता था कि हम पढ़ाई के साथ -साथ घर के काम भी कर सकते हैं। जिंदगी एक तरह से समझो हमारे लिए चुनौतीपूर्ण थी। नंबर भी अच्छे लाने होते थे वरना घर वाले कह देते- रहने दो ,पढ़ने के लिए ,ध्यान तो है नहीं, पढ़ाई में ,तुम्हारा। आजकल तो बच्चों को इतनी सुविधाएँ हो गयीं हैं ,बच्चा समझ भी नहीं पाता और विद्यालय में उसका दाख़िला भी हो जाता है उसे कुछ भी साबित करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। लड़का -लड़की का कोई भेद नहीं, किसी भी अच्छे विद्यालय में भर्ती करा देते हैं। लड़कियों पर काम का भी कोई दबाब नहीं ,फिर भी आजकल के बच्चे इन सुविधाओं का लाभ तो उठाते नहीं और न जाने किन -किन कामो में लगे रहते हैं ,हम समझ गए कि दादी किसी न किसी बात के लिए भूमिका बाँध रही हैं ,तभी मोनू बोला -मैं अपने ट्यूशन 'जा रहा हूँ ,उसने अपनी मोटरसाइकिल निकाली ,गर्म जैकेट पहनी फिर दस्ताने ,टोपा और लम्बे वाले जूते पहनकर गया। दादी खाली बैठी हमें ऐसे ही देखती रहतीं या यूँ समझो घूरती रहतीं कि बच्चों के पास इतनी सुविधाएं होने के बावजूद अच्छे नंबर भी नहीं आ पाते ,तभी चिंटू बोल उठा -क्या दादी आप भी कभी' ट्यूशन 'गयी हैं। दादी जो बात कहने के लिए भूमिका बाँध रहीं थीं ,उसे भूलकर वो अपने समय की यादों में खो गयीं ,बोलीं -अरे ,इतनी ठंड में अपने विद्यालय जाते थे ,चारों तरफ कोहरा ही कोहरा हम तीन -चार सहेलियाँ इकट्ठा होकर जातीं थीं ,मुँह से धुंआ निकालते हुए, किसका धुंआ सबसे ज्यादा निकलता है ?इसी तरह हँसते -खेलते चले जाते थे ,पैदल जाते थे तो इतनी ठंड महसूस नहीं होती थी। शाम को मैं हमारे गाँव के ही मास्टरजी थे उनसे गणित पढ़ने जाती थी। चिंटू बोला -तो आप गणित में कमजोर थीं। हूँ, दादी ने इतना छोटा सा ही जबाब दिया लेकिन दादी तो शायद ओर ही ख्यालों में खोई थीं। सर्दियों में तो दिन जल्दी ही छिप जाता है हमें छः बजे बुलाते थे ,उस समय तो गांवों में खम्बे भी नहीं होते थे। आते -आते तो अँधेरा घुप हो जाता था ,मेरे पास तो टार्च थी ,मेरे पिताजी ने लाकर दी थी लेकिन कुछ बच्चे नहीं ला सकते थे तो उन्होंने जुगाड़ लगाया। बड़े उत्साह से दादी बोलीं -पता है ,कैसे ?वो जो चाय पीने वाले कुल्हड़ होते हैं न ,उन्हें आड़ा करके उसमें मोमबत्ती लगाते थे और उसमें बारीक़ कपड़ा लगाकर उसे टॉर्च की तरह प्रयोग करते थे। उन लोगों के अविष्कार को देखकर मुझे अपनी टॉर्च अच्छी नहीं लगी मैंने भी घर में कहा -मुझे भी ऐसी ही टॉर्च बनाकर दीजिये ,तब मुझे घरवालों ने समझाया ,तब जाकर मानी।
उस जिंदगी में सुविधाएं तो कम थीं लेकिन एक -दूसरे को समझने और उनके साथ समय बिताने के मौक़े बहुत थे। साथ ही जो सुविधाएं न होती थीं उनको अपना दिमाग लगाकर जुगाड़ करके पाने का प्रयत्न करते थे। तुम लोगोँ की तरह नहीं सारा दिन फ़ोन में लगे रहो ,न कहीं आना ,न कहीं जाना ,पता नहीं क्या -क्या करते रहते हो ?हमें लगा ,जब से दादाजी गए हैं दादी अपने को अकेला महसूस करतीं हैं ,हम लोग अपनी पढ़ाई और अन्य कामों में लगे रहते हैं। हमने बताया ,दादीजी ये फोन आदि चीजें व्यर्थ नहीं हैं। इसमें नई -नई चीजें सीखने का मौका मिलता है ,देश -दुनिया की खबरें मिल जाती हैं ,इससे पैसे भी कमा सकते हैं। घर बैठे नए -नए दोस्त बन जाते हैं। अपनी बिमारी के विषय में भी जान सकते हैं उनके घरेलू इलाज भी। इस छोटे से फोन में सारी दुनिया समायी है। किसी से बात करनी हो तो आमने -सामने बैठ कर बातें कर सकते हैं। दादी में हमने फ़ोन के प्रति आकर्षण पैदा कर दिया अब वो हमें कोसती नहीं कि सारा दिन फोन में लगे रहते हो।हमने महसूस किया ,जब दादाजी साथ होते थे तो दादी उनसे बातें करती कभी -कभी लड़तीं भी थीं ,अब तो अकेली बैठी माला जपती रहतीं हैं या फिर हमें आते -जाते देखती रहतीं हैं।
दादीजी का जन्मदिन वाला है और हम सबने सलाह करके दादीजी को उपहार दिया और उनका जन्मदिन भी मनाया ,वो अंदर ही अंदर खुश थीं, दिखाने के लिए वो मना करतीं रहीं। अब उन्होंने अपना उपहार खोला ,उसमें एक फोन था ,दादी बोलीं -मैं अब इस उम्र में फोन लेकर क्या करुँगी ?हमने कहा- अब आप नहीं ,ये फोन करेगा। मैंने दादी के फोन में कुछ रिश्तेदारों के नंबर डाल दिए और दादी का 'फेसबुक 'अकाउंट भी बनाया।'' व्हाट्स एप 'भी डाला। दादी को समझाने में दो -तीन दिन लग गए। एक -दो खेल भी डाल दिए अब दादी उन्हें देखती कोई गलत बटन दब जाता तो मुझे पुकारती। धीरे -धीरे दादी सब सीख़ गयीं। हिंदी में सब पढ़ और समझ लेती थीं ,गूगल पर कुछ भी बोलकर अपनी पसंद का विषय निकाल लेतीं थीं। 'फेसबुक 'पर भी दोस्त बन गए। अब तो दादी' फ़ेसबुक 'पर किसी की पोस्ट 'पढ़कर हँसती ,मुस्कुरातीं उन्हें पसंद भी करतीं और अपने विचार भी लिखने लगीं। अब दादी हमें न देखकर फोन पर लगीं रहतीं ,अब उन्हें एक दोस्त जो मिल गया था।


