कुंदनबाबू जब घर आये ,आते ही बोले -कल ही मैं अपनी जमीन -जायदाद का बंटवारा कर दूंगा। उनकी पत्नी सोचने लगी, इन्हें क्या हुआ ?सुबह ही तो अपने दोस्त की शवयात्रा में गए थे ,आते समय ऐसा क्या हुआ,जो इनके मन में ऐसे विचार आये। कुंदनबाबू नहाकर निकले तो उषा देवी पूछ बैठी -ऐसा क्या हुआ ,? जो आते ही बंटवारे की बात करने लगे। वो बोले -पता है ,आज मैं किसके यहाँ गया था ?पत्नी ने नहीं में सिर हिलाया। बोले- मैं रामलाल जी के यहाँ गया था ,उनको अन्तिम विदाई देने। उनके जीवन के बारे में सोचकर ही मुझे ये ख़्याल आया। क्या जिंदगी जी ?पूरी जिंदगी दूसरों के लिए ,पूरे परिवार को जोड़ने में रहे और अंत में उन्हें क्या मिला ?गैर तो क्या ?अपने भी साथ नहीं थे। तुम कैसे जानते हो ?उनके बारे में ,जहाँ तक मैं जानती हूँ वो तो अभी कुछ माह पहले ही गांव से आये थे' ऊषा देवी बोलीं। हाँ ,मैं उनसे अक़्सर कोने में जो बगीचा है ,वहाँ मिलता था ,उनके घुटनों में दर्द रहता था ,तो घूमने आ जाया करते थे। थककर वहीं बेंच पर बैठ जाते थे तभी उनसे बात होती थीं। एक बार वो वहाँ आये किन्तु टहले नहीं ,जब मैं उनके करीब गया तो वो रो रहे थे। मैंने उनसे कारण पूछा ,पहले तो उन्होंने बताया नहीं फिर उन्होंने जो कहानी बताई , सुनकर बहुत ही दुःख हुआ।
रामलाल जी तीन भाई थे ,दो तो वहीं खेती करते थे ,पढ़े जो नहीं थे। रामलाल जी स्नातक तक पढ़े तो उन्होंने बाहर निकलकर नौकरी भी की, लेकिन छुट्टियों में आकर खेती भी करवा देते, कहीं भाई ये न कहने लगें कि बाहर जाकर बदल गया ,अपने हिस्से की मेहनत कर जाते। घर में सुख -शान्ति और प्यार बना रहे उनका यही प्रयत्न रहता। नौकरी से भी अपने खर्चों की कटौती करके घर में पैसा भिजवा देते। उधर पत्नी नाराज ,उन्हें तो खर्चों के लिए पूरे पैसे चाहिए। परिवार बढ़ा ,सदस्य बढ़े बहुत ही ख़ुशी होती उन्हें जब परिवार में कोइ नये सदस्य का आगमन होता, खर्चे भी बढ़े। परिवार में इतने सदस्यों का एक साथ रहना ,एक -दूसरे से असंतुष्ट होना स्वाभाविक था ,कई बार परिवार में झगड़े भी हो जाते लेकिन रामलाल जी को ये था कि सभी मिलजुलकर रहें उनका प्रयत्न यही रहता कि सबकी इच्छाओँ का मान हो। लेकिन इतना बड़ा परिवार कोई न कोई असंतुष्ट हो ही जाता, स्वयं उनकी पत्नी भी उनसे नाराज होकर यहाँ रहने आयी थी। वे गांव में रहकर भी यहाँ अपनी पत्नी के पास खर्च भिजवा देते।वो कोशिश करते अपनी जिम्मेदारियों को बख़ूबी निभा सकें। तभी उषा देवी बीच में ही बोल उठीं -उन पर इतनी जिम्मेदारियां थीं भी कि उन्होंने जबरदस्ती ओढ़ रखीं थीं। तुम जो भी समझो वे बोले।
गांव में रहकर परिवार और बच्चों के बीच प्यार , अपनेपन और भाईचारे का बीज बोते लेकिन बीज तो तभी पनपते हैं ,जब मिटटी अच्छी हो, खाद -पानी सही समय पर मिले ,यहाँ तो बीज ड़लते ही उन पर वैमनस्य की फंफूद जम जाती वे विपरीत परिवेश में भी फूल खिलाने का प्रयत्न करते। सभी की इच्छाओं के
विरुद्ध जबरदस्ती रिश्तों को जोड़े थे ,रिश्ते तो उस जबरदस्ती की रस्सी से बँधे छूटकर स्वतंत्र होना चाहते थे फिर भी इन जबरदस्ती के रिश्तों की डोरी को तोड़ नहीं पा रहे थे क्योंकि अपने हाथों में कुछ नहीं था ,अपने को असहाय पाते ,कुछ करना भी चाहें तो अपने को बेबस पाते। जो नौकरी करते थे वो तो बाहर आ गए ,समझदारों की श्रेणी में तो वही थे। गांव में रहने वालो के पास कुढ़ने के सिवा कोई और रास्ता ही नहीं था। उनकी पत्नी अक़्सर कहती-'' ये कैसा अपनापन ,प्रेम है ,जो जबरदस्ती झेलना पड़ रहा है ,सबको अपनी जिंदगी जीने का अधिकार है ,प्यार ,मान -सम्मान तो दूर होकर भी हो सकता है ,जबरदस्ती के रिश्तों में प्यार नहीं रह पाता।''उषा देवी बोलीं - सही तो कह रहीं थीं उनकी पत्नी ,जितना रिश्तों को बांधोगे वे उतने ही दूर होते चले जाते हैं ,रिश्ते जबरदस्ती के नहीं प्यार के होते हैं। फिर क्या ? उन्होंने अपनी पत्नी का कहना माना कि नहीं।
नहीं ,उन्हें यक़ीन था कि सभी के अपने -अपने स्वार्थ में हैं, कोई भी जिम्मेदारी न ही समझना चाहता था और न ही उठाना चाहता था। इस तरह तो परिवार बिखर जायेगा ,जो एकता में शक्ति है, परिवार का जो मान है ,समाज में इज्ज़त है , वो नहीं रहेगा।एक साथ रहेंगे तो परिवार की ताकत बनी रहेगी , उनकी ये सोच थी कुंदन बाबू बोले। ये भी सही सोचते थे ,उषा देवी बोली।गुस्से में परिवार के सदस्य कोई कार्य नहीं करते ,गाय -भैसों को चारा -पानी स्वयं रामलाल जी ही करते रहते ताकि घर में शांति बनी रहे। कभी किसी ने ये जानने का प्रयत्न नहीं किया, कि वे क्या चाहते हैं ,या उनकी भी कोई इच्छा है? सबसे अलग -थलग पड़े रहते ,अपनी इच्छाएं तो बता जाते लेकिन किसी ने उनके बारे में नहीं सोचा। वो गाँव में ही क्यों पड़े थे ?यहाँ भी तो आ सकते थे ,अपने बीवी बच्चों के पास उषा देवी बोलीं। हाँ ,यही प्रश्न मैंने भी किया था,कुंदन बाबू बोले। तब उन्होंने बताया-' कि मेरे एक बड़े भाई ने मरते समय वचन लिया था कि बच्चों का ख़्याल रखना ,उन्हें किसी भी तरह की परेशानी मत होने देना,देखना मेरा परिवार बिखरे नहीं। उसी वादे को जो निभा रहे थे ,इसीलिए उनकी घृणा बर्दाश्त कर रहे थे।उषा देवी बोलीं - ये बात तो है ,पहले लोग वचन के पक्के होते थे ,अब तो पीठ दिखाते ही बदल जाते हैं। आजकल के लोग क्या समझेंगे ?जबान की कीमत ,मान -सम्मान ,बस अपनी ही धुन में बहे जा रहे हैं ,ये ही पता नहीं ,जाना कहाँ है ?
अब उनकी उम्र भी ढ़लने लगी थी ,अब काम भी कम होता था ,बच्चे जो अभी ठीक से बड़े भी नहीं हुए वो भी कुछ का कुछ कह जाते ,उनके कार्यों के लिए उन्हें लानत भेजते। पहले घर का जो बड़ा होता था सभी उसका कहना मानते थे और वो निःस्वार्थ भाव से सबको साथ लेकर चलता लेकिन अब किसी का भी आधिपत्य स्वीकार करना नहीं चाहते। अपनी सोच के आधार पर अलग जीवन जीना पसंद करते हैं। आप आगे बताइये फिर क्या हुआ ?उषा देवी बोलीं। जब बिमार हुए तो गॉँव वालों ने मुँह पर ही कहना शुरू किया -'अब तो हमारा पीछा छोडो ,अपने बच्चों के पास जाइये। यहाँ आये तो अब उनके बच्चों को भी उनकी आदत नहीं रही। कुछ ग़लत करते देखते, रोकते या टोक देते ,तो बच्चों को अच्छा नहीं लगता। अपने ही बच्चों से भी इस तरह का व्यवहार ,उन्हें तिल -तिलकर मार रहा था। ऐसे ही उस दिन बगीचे में बैठे अपनी जिंदगी को याद कर रो रहे थे। सबको प्यार देने का प्रयत्न किया ,सब मिलजुलकर रहें ,यही कोशिश की फिर भी बदले में मैंने क्या पाया ?घृणा। भाई को दिए वादे के चक्कर में मेरा अपना परिवार भी मुझ से दूर हो गया। समझ नहीं आता ,मैं कहाँ ग़लत था या हूँ।
इसीलिए मैंने भी सोचा ,लोग बदले हैं ,समय भी बदला है ,जमाना बदल रहा है क्यों न मैं भी इन बन्धनों को तोड़ दूँ। न ही मैं किसी से अपेक्षा रखूँ ,न ही किसी को विवश करूं। जो भी जैसे भी अपनी जिंदगी जीना चाहता है जिए। हम भी अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त रहें। इसी सोच के साथ वे अपने को हल्का महसूस कर रहे थे। अब उन्होंने जो किया उससे वो जिम्मेदारियों के पिंजरे से मुक्त हो ,स्वतन्त्र पंछी की तरह तरह जीवन जी रहे थे।


