meri chhuttiyan

हमारे घर कभी भी मौसी आतीं , उनके आने से घर में चहल -पहल हो जाती।  कभी अपने कुछ किस्से सुनाती ,कभी कोई चुटकुला, काम भी करतीं तो शान्त मन  से अपना  काम निपटाकर अपनी मस्ती में आ जातीं ,उन्हें देखकर कभी लगा ही नहीं कि वो कभी दुःखी या परेशान हुई हों। हमें तो लगता था कि परेशानी तो उनकी ख़ुशी देखकर ही भाग जाती होगी। मैं अपनी छुट्टियों में नानी के घर आयी हुई हूँ और आज  मौसी आ रहीं हैं ,उनके आने की सूचना मिलते ही मेरा मन खुशी से झूम उठा। मौसी आयीं ,खूब बातें हुईं फिर खाना भी खाया। खाना खाने के बाद हम साथ ही लेटे।  मैंने  मौसी से कहा-मौसी आप आयीं हैं तो अब मेरी छुट्टियाँ आराम से कट जाएँगी। मुझे बहुत सारी खरीददारी भी करनी है। मौसी बोली -अच्छा ,क्या -क्या खरीदना है ?मैंने कहा -जब बाज़ार चलेंगे तो देख लेना। हमने और भी बहुत सी बातें कीं ,बातें करते -करते कब शाम हो गयी पता ही नहीं चला ,वो तो जब मामी ने चाय के लिए बुलाया तब ध्यान आया। चाय पीकर एकाएक मौसी बोलीं -चलो ,चुनमुन तुम्हें खरीददारी करा देते हैं [वो प्यार से मुझे इसी नाम से पुकारती हैं ]देखें ,तुम अपनी मौसी का  कितना ख़र्चा करवाती हो ?मैंने अचकचाकर कहा -अब इस समय ! हाँ, खरीददारी का कोई मुहूर्त थोड़े ही होता है ,जब मन किया चल दो। मैं जल्दी से तैयार हुयी और उनके पीछे -पीछे चल दी। मैं सोच रही थी, पता नहीं कौन से मॉल में ले जायेंगी या किसी  दुकान में ?अभी  मुझसे पूछा भी नहीं ,किस दुकान में जाना है ?मैं अपने प्रश्नों का जबाब पाने के लिए आगे  बढ़ी। 

             अभी हमें चलते हुए पंद्रह मिनट ही हुए होंगे ,मैंने पूछा-मौसीजी ! कब तक पैदल चलेंगे ? वो  बोलीं -बस आ ही गया। मैं अपने आस -पास देखने  लगी, वहाँ मुझे कोई मॉल नहीं दिखा ,मैं सोच थी ,पता नहीं मौसी किधर ले जा रहीं हैं ?थोड़ी दूर भीड़ नजर आ रही थी ,मैं बोली -मौसी वहाँ भीड़ है, उधर कहाँ जा रही हो ?मौसी बोली -यही है ,हमारी मंजिल। मतलब मैंने मुँह सिकोड़ते हुए कहा -यहाँ ,हाट बाजार में क्या ढंग का मिलेगा ?मैं तो किसी बड़ी दुकान से ही खरीदूंगी ?तब मौसी बोली -देखो ,कितने लोग यहाँ से सामान खरीद रहे हैं ?ये मत सोचो कि मेरे स्तर का सामान है या नहीं।'' सामान स्तर से नहीं आवश्यकता से लिया जाता है। तुम्हें जिस चीज की आवश्यकता है वो यहाँ मिल रही है। जब हमारी आवश्यकता की पूर्ति यहाँ से हो रही है और वो भी कम पैसों में ,तो फिर बड़ी दुकान पर जाकर क्यों दिखावा करना ?''जब हमारा काम यहीं से चल रहा है समय और पैसे दोनों ही बच रहे हैं तो फिर दूर क्यों जाना ?यदि यहाँ तुम्हारी पसंद का सामान नहीं मिला तो कल मॉल चलेंगे। चुनमुन  हिचकिचाते हुए मौसी से बोली -मैं तो कभी अपने यहाँ भी ''हाट बाजार 'नहीं  जाती ,शर्म आती है कि कहीं मेरी कोई दोस्त न देख ले। मौसी बोली -पहली बात तो तुम्हारी कोई सहेली वहाँ जाएगी नहीं ,वहाँ आई तो इसका मतलब ,वो भी वहीं घूमती है। तुम्हें बता देती होगी ,इस बाज़ार से या उस  मॉल से लाई हूँ। 
          बेटा ,ऐसा सोचने से कुछ नहीं होता ,मैंने देखा है ,कुछ सामान यहाँ भी अच्छे मिल जाते  हैं और ये  ही सामान बड़ी दुकानों में अधिक पैसों में मिलते हैं। इन सबमें सबसे महत्वपूर्ण है ,अपना बज़ट। अपना बजट देखकर ही हमें सामान लेना चाहिए ,यदि हम उसके आधार पर नहीं चलेंगे तो सब  गड़बड़ा जायेगा किसी एक वस्तु पर तो हम अपना अधिक से अधिक पैसा नहीं लगा  सकते और भी तो चीजें लेनी होती हैं। मौसी! आप ये क्या भाषण देने लगीं ?एक -दो सामान खरीदने के लिए इतना क्या सोचना ?सोचना पड़ता है ,अभी तुम अपने घर में  हो ,मम्मी संभाल लेती है ,पापा कमाते हैं तो अभी तुम ये नहीं सोचोगी लेकिन अब बड़ी होती जा रही हो,तुम्हें  समझ आना चाहिए। कल तुम्हारा विवाह होगा तो ऐसे ही सोचकर चलना होगा वरना तुम तो उस लड़के का भट्टा बिठा दोगी कहकर मौसी हँसने लगी। मैं बिना इच्छा वहाँ घूमने लगी तभी मैंने एक चीज देखी, लेनी तो नहीं थी मेरे पास थी लेकिन मैंने ऐसे ही पूछ लिया ,कितने का है ?उसने बताया पचास रुपया। सुनकर मैं ताज्जुब में आ गयी ,मौसी को थोड़ा दूर ले जाकर बताया बिलकुल ये ही सामान मैं डेढ़ सौ रूपये का लायी। मौसी बोलीं -मैं न कहती थी ,अब जो लेना है ले लो। मेरा भी उत्साह बढ़ा ,मैंने अपनी जरूरत का सामान लिया मौसी ने भी एक -दो सामान लेकर , हम घर की तरफ मुड़  गए।  मैं ख़ुश थी, तभी मैंने मौसी से पूछा --आपने ये सब कहाँ से सीखा ?मौसी किसी दार्शनिक की तरह बोली -''जिंदगी की किताब से, जो नए -नए अनुभव देती है और उनसे हम सीख लेकर जीवन को सरल बनाने का प्रयत्न करते रहते हैं। '

          उनके व्यवहार से तो मैं पहले से ही प्रभावित थी ,आज उनकी सोच भी मुझे सराहनीय लगी।  मैं बोली -कुछ बात तो है, मेरी मौसी में।  हम लोगों ने घर आकर खाना खाया फिर कैरम खेलकर सो गए। सुबह जब  मैं उठी तो मौसी अपने घर जाने की तैयारी में लगी थी। मैंने मौसी से कहा -आप अभी जा रहीं हैं ,मैंने तो सोचा था कि आप कुछ दिन हमारे साथ रहेंगी ,अब तो मेरा मन नहीं  लगेगा ,मैंने मुँह बनाते हुए कहा। तभी नानीजी ने सुझाव दिया - तू ही अपनी मौसी के साथ चली जा ,अभी  तो तेरी छुट्टियाँ बची हैं। मैंने मौसी की तरफ देखा -वो चुप थीं ,फिर बोल उठीं -हाँ ,जाकर तैयार हो जाओ। उनकी तरफ से हाँ होते ही मैं दौड़कर गयी ,तैयार  होकर अपना थैला लेकर आ गयी। रास्ते भर मौसी चुप रहीं ,घर पहुंचकर बोलीं -जाओ !अपना थैला रूही के कमरे में रख दो और आराम  कर लो। रूही मुझसे छोटी ,मौसी की बेटी है। मैं उसके कमरे में  जाकर उससे मिली, हम आपस में बातें करने लगे। मौसी घर का काम समेटने में लग गयी ,मौसाजी अपने दफ़्तर जा चुके थे ,उन्होंने ही अपने लिए नाश्ता बनाया होगा ,वो ही घर को फैलाकर छोड़ गए होंगे। मौसी दोपहर तक काम में लगी रहीं। मैं देख रही थी कि मौसी के बिना एक दिन में ही घर कितना अस्त-व्यस्त हो गया? मैंने  रूही के विद्यालय से दिया गया, गृहकार्य उसे पूरा कराया फिर मौसी ने दोपहर के खाने के लिए हमें बुलाया ,खाना खाकर थोड़ा आराम करने लगीं। शाम को जब मौसी ने अपनी सास के लिए चाय बनाई तो उन्होंने अपनी नाराज़गी व्यक्त की, बोलीं -जब तुम्हें मालूम है कि तुम्हारे बिना एक  ही दिन में घर अस्त -व्यस्त हो जाता  है तो तुम जल्दी नहीं आ सकती थीं। मुझसे अब   इतना काम नहीं होता ,कहकर वो बाहर कुर्सी पर बैठ गयीं। 

        शाम को मौसाजी के आने से पहले ही मौसी ने खाने की तैयारी कर ली थी, बस रोटी सेंकनी रह गयी थीं। इतने समय का सदुपयोग करते हुए मौसी कपड़ों पर स्त्री करने लगीं। मैं देख रही रही थी कि मौसी हमारे घर या नानी के घर जब भी जाती  हैं कितनी खुश और हंसती -खिलखिलाती हैं ?यहाँ तो उन्हें मुस्कुराने की भी फुरसत नहीं। मौसाजी आये ,उन्होंने चुपचाप खाना खाया ,फिर बोले -वहाँ रुकने की क्या आवश्यकता थी ?शाम को भी तो आ सकतीं थीं। मौसी बोली -माँ ,ज़िद करने  लगीं ,एक रात रुककर जाना। तभी मौसाजी चिढ़कर बोले -और महारानीजी ,रुक गयीं। मुझे उनके घरवालों  का ऐसा व्यवहार पसंद नहीं आया। मैं सोच रही थी या यूँ समझो मैंने अंदाजा लगाया कि मौसी इसीलिए मुझे यहाँ लाने  के नाम से चुप हो गयीं थीं। अच्छा हुआ, जो मैं यहाँ आई इससे मुझे पता तो चल गया कि मौसी के ससुराल वाले उनके साथ, कैसा रूढ़  व्यवहार करते हैं ?अब नाना -नानी को सब बताउंगी। क्या सोचकर आई थी ?कि खूब घूमेंगे फिरेंगे ,मजे करेंगे ,यहाँ का वातावरण तो एकदम विपरीत है। एक -दो दिन बाद मैंने मौसी से कहना शुरू किया कि मुझे अब घर वापस जाना है। मौसी शायद मेरी मनः स्थिति को समझ गयी थीं। बोलीं -क्या मन नहीं लग रहा। मैंने हाँ में गर्दन हिलायी , आप घर जातीं हैं तो कितना खुश रहतीं हैं ,हम मज़े करते हैं ,यहाँ तो .... मौसी बोलीं -''हँसना ,मजे करना और बाहर घूमने से अलग भी  एक जिंदगी है ,उसे कहते हैं ,जिम्मेदारी।'' लेकिन वहाँ भी तो आप काम करतीं हैं, मैंने उनकी बात बीच में काटते हुए कहा। हाँ करती हूँ लेकिन वहाँ मेरी जिम्मेदारी नहीं होती ,वहाँ मैं मदद करती हूँ लेकिन यहाँ पूरी जिम्मेदारी है ,तुम्हारे मौसाजी की उनकी मम्मी की। हर घर का वातावरण एक जैसा नहीं होता ,सोच भी एक जैसी नहीं होती। 
          यहाँ ऐसे ही तो नहीं हंँस सकती ,खुश तो रहती हूँ ,मम्मीजी हैं उनका रिश्ता बड़ा है ,तुम्हारे मौसाजी अपने काम में व्यस्त रहते हैं ,उन्हें हर काम समय पर और  व्यवस्थित चाहिए इसीलिए उनके हिसाब से काम करना पड़ता है ,वैसे स्वभाव के वो अच्छे हैं। कभी काम का बोझ न हो तो हँसते -बोलते भी हैं। सबके अलग -अलग स्वभाव होते हैं। आप ऐसे वातावरण में कैसे रह लेतीं हैं ?आपका दम नहीं घुटता मैंने प्रश्न किया।  इसमें दम घुटने वाली क्या बात है ?अब ये घर मेरा है घर के लोगों को समझना उनकी इच्छाओं के मान रखना मेरा कर्त्तव्य है ,चौबीसों घंटे तो हम हँसी -मज़ाक नहीं कर सकते न,मौसी ने समझाने का प्रयत्न किया। नहीं ,मैंने उस दिन मौसाजी को क्रोधित होते हुए देखा है ,मुझे अच्छा नहीं लगा ,नाना -नानी को जब पता चलेगा, तब देखना, वो क्या कहते हैं ?क्या तुम पागल हो, अपने  घर की छोटी -छोटी बातें  किसी को नहीं बताते मौसी बोलीं। क्यों? वे तो आपके मम्मी -पापा हैं,मैंने कहा। तो क्या? अपने घर की छोटी -छोटी बातें उन्हें तो बताने नहीं जाउंगी ,क्या तुम अपने ससुराल की बातें अपनी मम्मी से बताओगी ,उन्हें परेशान करोगी। ऐसा नहीं होता है ,अपने घर की बातें हर किसी से नहीं बतायी जातीं ,चाहे वो अपने ही घरवाले क्यों न हों ?पति -पत्नी में तो हँसी -मज़ाक ,नोक -झोंक या हल्का -फुल्का झगड़ा चलता ही  रहता है तो सुलझा भी लेंगे ,बाहर के किसी भी व्यक्ति को शामिल करोगे तो झगड़े बढ़ते हैं और गलतफ़हमियाँ भी। 

            यदि तुम्हारे मौसाजी की कुछ बातें या हरकतें कई बार  मुझे पसंद नहीं आती हैं ,ऐसा भी तो हो सकता है कि तुम्हारे मौसाजी को भी मेरी कुछ बातें पसंद न आती हों। कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता ,थोड़ा बहुत निभाना पड़ता ही है। यदि मैं अपने घर की बातें या तुम्हारे मौसाजी की बातें मैं बार -बार तुम्हारे नाना -नानी को बताउंगी तो उन्हें गुस्सा आएगा। परिणाम क्या होगा ?वे अपने दामाद से नफ़रत करने लगेंगे या उनके मन में उनके लिए वो इज्ज़त न रहेगी। जब अपनी ससुराल जायेंगे तो उन्हें वो सम्मान न दे पाएं। तब मैं ये भी नहीं बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी कि ससुराल में उनका अनादर हो। पति का फ़र्ज है कि वो अपने घर पत्नी का मान रखे और पत्नी अपने घर में अपने पति का सम्मान बनाये रखे, समझी। मैं ये नहीं  कहती कि यदि तुम पर अत्याचार हो रहा हो तो सहन करो।  गलत का विरोध करो, लेकिन औरों को भी समझने का प्रयत्न करना चाहिए। हर कोई एक जैसा नहीं होता। मैं सोच रही थी कि मेरी छुट्टियाँ चल रहीं हैं ,लेकिन मौसी से तो मुझे जिंदगी जीने की सीख मिली है। इस तरह मेरी छुट्टियों का सदुपयोग हो गया। 


















 
laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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