ये मेरा अपना ही दुःख है ,जो मुझे अंदर ही अंदर जला रहा है। सब कुछ तो है मेरे पास ,सबको यही दिखता है।मेरा सूनापन ,अकेलापन नहीं दिखता ,जिससे मैं हर रोज़ लड़ती हूँ। ये दुःख मुझे किसी गैर ने नहीं अपने ने ही दिया ,उसे अपना कहुँ या ग़ैर, कुछ समझ नहीं आता ,रिश्ता होते हुए भी अपना नहीं ,रिश्ते भी न क्या होते हैं ?जिन्हें अपना समझो, वे ही ठुकरा देते हैं ,क़द्र नहीं करते। कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो अपने -आप बन जाते हैं ,जीवन भर उन रिश्तों को समाज के लिए, कुछ अपनों के लिए जीवनभर ढ़ोना पड़ता है और मैं भी ढ़ो ही रही हूँ। मुझे आज भी भुलाये नहीं भूलता वो दिन जब दीपक मुझे देखने आये
,मुझे पसंद नहीं थे लेकिन सरकारी नौकरी के लालच ने मेरे माता -पिता के आँखों पर पर्दा डाल दिया उन्होंने आँखें होते हुए भी मेरे अरमानों ,मेरे सपनों को जीते -जी मार डाला।जैसे लड़कियों की कोई भावनायें नहीं होतीं ,उनकी नजर में तो लड़के की कमाई देखी जाती है। जबरदस्ती मुझ पर रिश्ता थोपा ,समझने का मौका ही नहीं मिला और मैं रोहन के घर आ गयी। किसी दूसरे शहर में नौकरी करने के कारण मेरे साथ एक रात बिता वो चले गए। मैं ठगी सी रह गयी। न ही एक -दूसरे को समझने ,बातचीत करने का मौका मिला।
,मुझे पसंद नहीं थे लेकिन सरकारी नौकरी के लालच ने मेरे माता -पिता के आँखों पर पर्दा डाल दिया उन्होंने आँखें होते हुए भी मेरे अरमानों ,मेरे सपनों को जीते -जी मार डाला।जैसे लड़कियों की कोई भावनायें नहीं होतीं ,उनकी नजर में तो लड़के की कमाई देखी जाती है। जबरदस्ती मुझ पर रिश्ता थोपा ,समझने का मौका ही नहीं मिला और मैं रोहन के घर आ गयी। किसी दूसरे शहर में नौकरी करने के कारण मेरे साथ एक रात बिता वो चले गए। मैं ठगी सी रह गयी। न ही एक -दूसरे को समझने ,बातचीत करने का मौका मिला।
रोहन का अक़्सर फोन आता ,अपने माता -पिता और घर की बातें करते ,कभी ये नहीं पूछा -तुम कैसी हो ?रूपा। तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं ,ये बातें मन में खटकतीं किन्तु शीघ्र ही मन को समझा लेती , अभी न ही वे मेरे विषय में जानते हैं ,न ही मैं उनके विषय में ,शायद हिचकिचाहट होगी। एक माह बाद आने के लिए कहा -कल्पनाओं में मैं कुछ सपने सजाने लगी ,सोचकर मुस्कुरा जाती। मेरी सहेली भी तो अपने पति के साथ घूमने नेपाल गयी थी ,पता नहीं ,रोहन कहाँ घूमने जायेंगे ?एक माह भी इंतजार में जल्द ही बीत गया। रोहन के आने से मन पुलकित हो गया। रह -रहकर मन में ख़्याल आते कि रोहन कब कहें? कि चलो तैयार हो जाओ !कहीं घूमने चलते हैं ?तीन -चार दिन इंतजार के बाद ,मैंने ही पूछ लिया -हम कब घूमने जायेंगे ?रोहन का ज़बाब सुनकर मुझे धक्का सा लगा ,वो बोला -क्यों घूमने जाना है ?मैंने नजरें झुकाकर कहा -क्यों सब जाते हैं ,न ?विवाह के बाद घूमने। क्या करना है ?वहाँ जाकर ,जो काम वो लोग वहाँ करते हैं वो यहाँ भी ,मैंने वाक्य पूरा होने से पहले ही उसके मुँह पर हाथ रख दिया। किन्तु दिल में कुछ टूटा सा लगा। कैसी सोच है ?इस इंसान की , न ही किसी की भावनाओं की परवाह ,उसके बाद फिर मैंने नहीं कहा ,न ही उसे अपने कहे शब्दों पर पछतावा या दुःख था।
कुछ उसकी ऐसी आदतें थीं जो सराहनीय नहीं थीं ,मैंने मम्मी से भी बताया तो बोलीं -सबकी अपनी -अपनी पसंद होती है ,सोच होती है ,थोड़ा तो परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढ़ालना पड़ता ही है। रोहन तो चले गए अपनी निशानी मेरे पास छोड़कर ,मैं अकेली उनके माता -पिता की सेवा और उनके आने वाले बच्चे के इंतजार में समय बिताने लगी। बच्चा भी आया तो जिम्मेदारी भी बढ़ी , तब मुझे रोहन का एक स्वार्थपूर्ण नया रूप देखने को मिला। इतनी जिम्मेदारियों में से कोई भी जिम्मेदारी संभालने को तैयार नहीं। काम से निपटकर आती तो झिड़क देता ,तुम करती क्या हो ?मेरे लिए समय ही नहीं। मैं सोचती ,-कैसा ग़ैर जिम्मेदार आदमी है ?इसी की औलाद है ,इसी के माता -पिता ,सहायता करना तो दूर ,अपने लिए समय न मिले तो झिड़क देता है इसके दिमाग में मेरी भी किसी भावना की परवाह है भी कि नहीं ?इन्हीं परिस्थितियों के चलते दो भाई -बहन आ गए। बड़े दिनों में आना होता तो भी एक इच्छा सी रहती कि बच्चों के पापा आयेंगे। व्यवहार भी बर्दाश्त हो जाता लेकिन अब तो रोहन की बदली इसी शहर में हो गयी। अब तो छोटे -मोटे झगड़े या कहा -सुनी ,लगभग रोज़ाना ही हो जाती। मैं भी कब तक चुप रहती ?
एक दिन तो रोहन ने अपने मन की गंदगी पूरी तरह निकाली बोला -पता नहीं ,कहाँ -कहाँ घूमती रहती है ?क्या मतलब ?मैंने पूछा। जब सबके पति बाहर का काम करते हैं तो उनकी पत्नियों को बाहर घूमने जाना नहीं पड़ता। फिर उसने मुझे घूरकर देखा ,बुदबुदाया -पता नहीं ,बच्चे भी किसके हैं ?लेकिन मैंने सुन लिया कि उसने मेरे चरित्र पर लाँछन लगाया है ,मेरे तन -बदन में जैसे ज्वाला सुलगने लगी ,कितना खुदगर्ज़ इंसान है ये ,इसे तो कहते हुए शर्म भी नहीं आई। मैंने अपने आपको संभालते हुए कहा -क्या कहा ?क्या ये बच्चे तेरे नहीं और कहाँ से लाई मैं ?मैं पत्नी हूँ तुम्हारी ,कोई बाहर वाली नहीं। बाहर वाली भी तुझसे अच्छी होती हैं और तू उनसे कम थोड़े ही है ,वो बोला।गुस्से के कारण और उसके शब्दों के कारण मैंने अपने को टूटा हुआ सा महसूस किया लेकिन मैं तुरंत ही संभल गयी। प्यार का एहसास तो हुआ नहीं और उसके लानत भरे शब्दों का बोझ सहा नहीं जा रहा था। उसने मेरे आत्मसम्मान और इज्ज़त को गाली दी है। इसके मन में पहले से ही ये गंदगी भरी है जो आज निकल गयी। वो बोली -मैंने तो कभी नहीं कहा कि तुम मुझसे दूर रहकर कहाँ -कहाँ मुँह मारते रहे ?क्योंकि मेरी सोच इतनी घटिया नहीं। पता नहीं कुछ लोग पति बनकर क्या साबित करना चाहते हैं ?प्यार अपनापन तो दूर स्वामित्व व अधिकार की भावना आ जाती है ,जैसे औरत कोई इंसान नहीं ,जीता -जागता पुतला हो ,जब चाहो उसका उपयोग करो और जब जी चाहा तिरस्कार। उन्हें लगता है ,पत्नी नामक प्राणी में भावनायें होती ही नहीं ,बस वो उपयोग की वस्तु है ,मेरा तो अनुभव ऐसा ही है लेकिन अब और नहीं। एकाएक शेरनी की तरह दहाड़ी --यदि मुझ पर विश्वास न हो तो' टैस्ट 'करा लो !तेरे दिमाग में मेरी इतनी इज्ज़त और सम्मान है। अरे !कोई कुत्ते को भी पालता है उससे भी मोह हो जाता है ,स्वार्थी इंसान तूने अपने बच्चों की माँ को गाली दी है। मैंने तो तेरा घर परिवार संभाला ,तेरे बच्चे पैदा किये। हर परेशानी में अकेली जूझती रही ,तूने मुझे ही नहीं अपनी माँ को भी गाली दी है ,जब तेरी नज़र में औरत की कोई इज्ज़त ही नहीं तो वो भी एक औरत ही है।
रोहन उसके तीख़े शब्दों को सुन उस पर हाथ उठाने चला लेकिन आज तो जैसे रूपा के अंदर ज्वाला धधक रही थी ,बहुत दिनों का दबा ज्वालामुखी जैसे आज फट पड़ा था ,उसके मन में रोहन के प्रति कोई सम्मान बाकि न रहा रूपा ने उसका हाथ पकड़ लिया ,बोली -मुझे अबला या बेचारी औरत न समझना ,अरे !तू मेरे प्यार के लायक ही नहीं। थू है ,तुझ पर इतने दिनों अपने माता -पिता की सेवा और बच्चों का ये सिला दिया तूने मुझे। मुझे अफ़सोस है ,तेरे जैसे इंसान के लिए मैंने अपनी जिंदगी के कई साल बर्बाद कर दिए। अरे ,ये तो माँ -बाप के दिए संस्कार थे जो मैं अब तक तुझे झेलती आई। तू तो मेरे दिल में भी जगह न बना सका। तू समझता है ,तू कमाता है और मैं खाती हूँ उससे ज्यादा तो मैंने नौकर की तरह तेरे यहाँ काम किया है। मैं अब भी इतना दम रखती हूँ ,मैं अपना और अपने बच्चों का पेट भर सकती हूँ। लेकिन अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकता ,बच्चे तेरे भी हैं , अपने बच्चों का तो खर्चा देगा। रोहन जो इतनी देर से उसकी बातें सुन रहा था ,रूपा का कहा एक -एक शब्द उसके अहम पर हथौड़े जैसी चोट कर रहे थे ,वो भी चीखा बोला -मैं जानता था कि तू नागिन है ,एक न एक दिन हमें ज़रूर ड़सेगी ,देख कैसी फुंफकार रही है ?पति -पत्नी का तेज़ झगड़ा होते देख बच्चे रोने लगे। रूपा बच्चों को लेकर दूसरे कमरे में आ गयी।
अब उसका मन रोहन की तरफ से पूरी तरह कट चुका था ,वो रो रही थी सोच रही थी --क्या जिंदगी है। माता -पिता अपनी जिम्मेदारी पूरी कर देते हैं। ये भी नहीं देखा कि लड़का कैसा है ,उसका स्वभाव कैसा है ?लड़की विवाह लायक हुई नहीं कि विवाह कर दो। वे तो अपनी जिम्मेदारी से मुक़्त हो जाते हैं ,जीवन तो उस लड़की को काटना होता है। जब लड़की परेशान होती है तो स्वयं भी परेशान होते हैं लेकिन परेशानी से समस्याएं तो हल नहीं होतीं ,झेलती तो वो लड़की ही है। शायद सालभर ,आठ साल अथवा दस साल या फिर जीवनभर। तभी मस्तिष्क में विचार आया ,ये सब तो किस्मत की बात है। निया और उसका पति दोनों ही कितने सुखी हैं ?हर परिस्थिति में एक दूसरे का सहयोग करते हैं ,मेरी क़िस्मत में तो भगवान ने ऐसा ही पति लिखा है तो इसमें दूसरे का क्या दोष ? रूपा और रोहन एक ही नाव पर सवार विपरीत दिशा के दो राही बन गए। रोहन के अहम ने भी उसे झुकने नहीं दिया ,दोनों अलग -अलग कमरों में पड़े रहते। एक माह हो गया।गुस्सा थोड़ा कम हुआ लेकिन अब वो नदी के उन दो किनारों की तरह थे जो कभी मिल नहीं पाते। रोहन अब रूपा के साथ एक पल भी साथ नहीं रहना चाहता था। उसने अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए ,उससे तलाक़ की बात कह दी लेकिन अब रूपा उसकी धमकियों से डरने वाली नहीं थी ,उसे पता था कि दो बच्चों के साथ कहाँ जाएगी ?माता -पिता के पास गयी भी तो उन्हें दुःख के सिवा क्या दे पायेगी ?हालाँकि उन्हें अब भी पता है कि उनकी बेटी परेशान है लेकिन इतनी संतुष्टि तो है जैसी भी है अपने घर को संभाल तो रही है उसने रोहन से कहा -तुम सोचते हो ,मैं तुम्हें तलाक़ देकर मुक्त कर दूंगी ये तो तुम्हारी गलत सोच है। मेरी जिंदगी तो नर्क बन ही गयी पर तुम्हें भी चैन से नहीं रहने दूंगी। अपनी जिम्मेदारियों से पीछा नहीं छुड़ा सकते तुम। उस रात इतनी तू -तड़ाक के बाद अब एक होना तो शायद सम्भव ही नहीं था। उफ़ ...!कितनी ठंड है ?उसने अपनी लिहाफ़ को चारों तरफ से दबाने का प्रयत्न किया।
एक पल उसने अपने सोते हुए बच्चों की तरफ देखा ,बच्चे तो कितने मासूम होते हैं ?वो तो ख़ुश होकर सो जाते हैं कि मम्मी हमारे साथ सो रही है। वो हर रात इस भयावह काली रात से लड़ती है ,उसकी इच्छाएं रह -रहकर दम तोड़ती नजर आती हैं। उसका अंतर्मन उसे झकझोरता -''कहाँ है तू ,किसलिए और किसके लिए जी रही है ?माना कि वो अपने बच्चों का सहारा है लेकिन कोई तो मेरा भी सहारा बनता ,मेरी ये भयावह काली रातें बाँट लेता। अधिक ठंड के कारण उसका गला सूखता है ,वो लिहाफ़ को ऊपर तक खींचकर सोने का असफल प्रयास करती है। और दिन में फिर से किसी सैनिक की तरह उठ खड़ी होती है। गर्मी ,सर्दी ,बरसात ,न जाने कितने दिन माह बने ?माह वर्ष बन गुजरते रहे ,न कोई उसका साथी ,न हमदर्द।' कासे कहे 'अपना दर्द।
एक पल उसने अपने सोते हुए बच्चों की तरफ देखा ,बच्चे तो कितने मासूम होते हैं ?वो तो ख़ुश होकर सो जाते हैं कि मम्मी हमारे साथ सो रही है। वो हर रात इस भयावह काली रात से लड़ती है ,उसकी इच्छाएं रह -रहकर दम तोड़ती नजर आती हैं। उसका अंतर्मन उसे झकझोरता -''कहाँ है तू ,किसलिए और किसके लिए जी रही है ?माना कि वो अपने बच्चों का सहारा है लेकिन कोई तो मेरा भी सहारा बनता ,मेरी ये भयावह काली रातें बाँट लेता। अधिक ठंड के कारण उसका गला सूखता है ,वो लिहाफ़ को ऊपर तक खींचकर सोने का असफल प्रयास करती है। और दिन में फिर से किसी सैनिक की तरह उठ खड़ी होती है। गर्मी ,सर्दी ,बरसात ,न जाने कितने दिन माह बने ?माह वर्ष बन गुजरते रहे ,न कोई उसका साथी ,न हमदर्द।' कासे कहे 'अपना दर्द।



