humsafar

मैं मधुलिका ,मैं भी कभी तितलियों के पीछे दौड़ती थी ,कभी नीम के पेड़ के नीचे निबौली इकट्ठा करती थी ,कभी अपनी सहेली के यहाँ चली जाती पीछे से मम्मी आवाज़ लगाती रहतीं और मैं उसके साथ स्टापू खेलने में मस्त ,हालाँकि घर आने पर डांट पड़ती। मम्मी चाहतीं थीं ,मैं समझदार बच्चों की तरह साफ -सुथरी अपने घर में रहूँ ,गंदे बच्चों के साथ न खेलूँ लेकिन उन्होंने गंदे बच्चों की परिभाषा कभी मुझे नहीं समझाई। गंदे बच्चे वो जो गरीब हैं या जो कई दिनों तक नहाते नहीं या फिर गाली -गलौच करते हैं  ,बड़े होने पर मैंने अंदाजा लगाया तीनों ही वर्ग के बच्चे उनकी नज़र में गंदे थे क्योंकि जैसे स्थान पर व्यक्ति रहता है या वातावरण में पलता -बढ़ता है तो उसका स्वभाव भी वैसा ही बन जाता है। एक तरह से देखा जाये तो वे सही भी थीं लेकिन मैं क्या करती ?अब हम अमीर तो रह नहीं गए थे। अब हम मध्यमवर्गीय परिवार में आते थे। ऐसी ऊँची सोच होने से कुछ नहीं होता ,उसके लिए ऐसा बनना भी पड़ता है उसके लिए  सुविधा और पैसा होना आवश्यक है लेकिन मुझे इससे क्या ?मैं तो अपनी ही धुन में मस्त खेलती -कूदती। जैसे मुझे तो दुनिया से कुछ लेना -देना ही नहीं ,यही तो बचपन है। मम्मी मेरे लिए बैल्ट वाला फ्रॉक बनाना ,कभी कहती मेरे लिए ज्यादा घूम वाला फ्रॉक बनाना और फिर उस फ्रॉक को पहन मैं अपने आँगन में तेज़ -तेज़ घूमती ,जब वो ज्यादा घूम   के कारण फैल जाता तो खुश होती। ऐसी थीं ,बचपन में मेरी  छोटी -छोटी खुशियाँ। 

             इसी तरह मैंने अपने जीवन के बारह वर्ष पूरे किये,मेरा अल्हड़पन देख बुआ बोलीं -अब तुम बच्ची नहीं रहीं बड़ी हो गयी हो ,संभलकर उठा -बैठा करो। अब इसमें संभलकर बैठने वाली क्या बात है ?तभी शरारत सूझी ,मैंने दूरदर्शन में देखीं थीं कुछ महिलायें इठलाकर चलती हुई ,बस  मैंने उनकी नकल उतारनी शुरू कर दी। मेरा अभिनय देखकर मम्मी और बुआजी बहुत हँसी। उन्हें हँसता देख, मैं भी खुश हुयी कि मेरे अभिनय ने घर का माहौल बदल दिया। इसी तरह मेरे दिन बीतते रहे। एक दिन हमारे जानने वाले ताऊजी थे वे  मुझे मुँगफली देने का प्रयत्न करने लगे किन्तु मैंने इंकार कर दिया मम्मी ने कहा था न लेकिन उन्होंने जबरदस्ती मेरे फ्रॉक में डाल दीं। जब घर आयी तो मम्मी ने बहुत डांटा। मेरी समझ नहीं आया कि मूँगफली लेने में मैंने ऐसी क्या गलती कर दी। अब तो मेरे फ्रॉक पहनने  भी बंद हो गए। पापा ने कहा -अब सूट पहना करो। एक रिश्ते के भाई ने एक दिन मुझे जबरदस्ती बर्फ़ का गोला खाने के लिए कहा ,मना करने पर बोले -'अपने भाई की बात नहीं मानेगी और गोलेवाले से  बोले -भई ,इसे भी एक गोला दे देना। अब बताओ ,इसमें क्या ग़लत है ? मम्मी ने  बुआ की तरफ देखा ,बोलीं -पता नहीं ,ये कब बड़ी होगी ?शरारतें बच्चों वाली ,कुछ समझती ही नही। 
         हर वर्ष उम्र बढ़ती जाती ,अपना असर भी छोड़ने लगी लेकिन मेरी अपनी जिंदगी अपने ही हिसाब से चलती रही लेकिन अब कुछ लोगों की नजरों ने ,'मुझे मेरे होने का एहसास कराया 'कि मैं  कुछ हूँ ,मैं सुंदर होती जा रही हूँ ,अब मैं आईने में अपने को  निहारती ,अपने आप पर ही इठला जाती। उनके कहे शब्द कुछ समझ आते ,कुछ नहीं ,अपने -आप ही आंकलन करती ये मेरी प्रशंसा थी या व्यंग। अपने -आप से ही बातें करती लेकिन अब धीरे -धीरे एहसास होने लगा था ,कहीं कुछ तो ग़लत है। मुझे अपने अस्तित्व का भी एहसास होने लगा ,मेरा अपना वज़ूद है। जब कोई मेरे रूप -रंग की प्रशंसा करता तो अच्छा लगता लेकिन उसकी नजरों से टपकता वहशीपन एहसास दिला देता कि उसकी प्रशंसा निर्मूल नहीं है। मैं अंदर ही अंदर अपने वज़ूद से लड़ती, इस पर खुश होना है या दुखी। उम्र के इस पड़ाव में एहसास होने लगा ,शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो इज्ज़त या सम्मान की भावना रखता हो।उन ललचाती नजरों ने मुझे अपने को संवारने के लिए प्रेरित तो  किया। 

          इसी सोच के चलते मुझे लगता हर व्यक्ति ही गलत है मेरी सुंदरता पर हर व्यक्ति की नजर रहती लेकिन एक व्यक्ति जो मेरी जिंदगी में आया ,उसने मेरी सोच को बदलने पर मजबूर कर दिया। हमारे पड़ोस में एक लड़का आया वो नौकरी करता था उसकी बदली हमारे ही शहर में हुई और हमारे ही पड़ोस में रहने लगा। वो लम्बा -तगड़ा ,आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक था। उसके आकर्षक व्यक्तित्व पर तो मैं भी रीझ गयी। मैं उसकी नजरों में अपने लिए कुछ तलाश रही थी लेकिन उसकी नजरों में मुझे कुछ नजर नहीं आया ,मैंने अपने -आप को भरोसा दिलाया ,नहीं ये भी ऐसा ही होगा। वो बहुत ही इज्ज़त और सम्मान से बातें करता। उसका व्यवहार मुझे अपनी और खींचने पर मजबूर कर रहा था। वो हमेशा एक दायरा बनाकर रहता ,कभी किसी भी तरह से हाथ न छू जाये ,या फिर हम कहीं चलते टकरा न जायें वो इन बातों का हमेशा ध्यान रखता। मैंने अक्सर लोगों को बस में या भीड़ में टकराने या छूने के बहाने ढूँढ़ते देखा और वो हमें आते भी देखता तो चार क़दम पहले ही रुककर हमारे निकलने का इंतजार करता। हमारे परिवार में उसका आना -जाना बढ़ गया था। कभी हम लोग कहीं बाहर भी जाते तो वो एक अंगरक्षक की तरह एक सुरक्षात्मक घेरा बनाकर चलता। मैं अभी उसे परख़ ही रही थी ,या फिर उसने मेरी भावनाओँ को पढ़ लिया। उसने बिना देर किये एक दिन हमारे परिवार को बताया कि वो विवाहित है।

        मुझे सुनकर लगा,इसकी पत्नी कितनी खुशनसीब होगी? जिसे ऐसा सुलझा ,महिलाओं का मान -सम्मान करने वाला पति मिला। उससे मिलकर मेरी सोच बदल गयी कि हर व्यक्ति की नजर और सोच ग़लत नहीं होती। अब मैं भी ऐसे ही 'हमसफ़र' के सपने सजाने लगी जिसके साथ रहकर अपने को सुरक्षित और सम्मानित महसूस कर सकूं।एक   दिन मैंने मम्मी से कह ही दिया -मुझे भी  ऐसा ही'' हमसफ़र  ''ढूँढना। मम्मी मेरी बात सुनकर बोलीं -अभी इसका बचपना नहीं गया ,पता नहीं कब बड़ी होगी ?
















laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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