MAA!MUJHE UDNE DO

विभा !विभा !कहाँ ,चली गयी ?ये लड़की ,ये लड़की  भी न एक जगह टिकती  ही नहीं ,कभी कहीं ,कभी कहीं ,घूमती ही रहती है। सरोजिनी जी अपनी बेटी को लेकर परेशान थीं। भाभी !विभा यहीं कहीं खेल रही होगी ,बालक ही तो है , आ जाएगी,जायेगी कहाँ ?सुधा  बाहर से आते हुए बोली। सरोजिनी परेशान होते हुए बोली -बहनजी !तुम नहीं जानतीं ,थोड़ी सी लापरवाही भी जिंदगी भर का दुःख का कारण बन सकती है। आप तो यहाँ कुछ दिनों पहले ही आयीं हैं। आपको पता  नहीं ,यहाँ का माहौल केेसा है ?मैं भी बाहर निकलती हूँ तो यहाँ के लोग गिद्ध की तरह मुझे भी घूरते हैं इसीलिये तुम्हारे भइया ,मुझे बाहर नहीं जाने देते ,साग -सब्ज़ी भी स्वयं ही लाते हैं। एक दिन मैं बाज़ार गयी ,मैं सब्जी लिए बिना ही घर आ गयी। ऐसे घूरते हैं ,जैसे पहले औरत कभी देखी ही न हो। ये शहर नहीं ,कस्बा है। यहाँ औरतें कम ही बाहर निकलती हैं। यहाँ के लोगों की नज़र ठीक नहीं ,उन्हें तो हम ठीक नहीं कर सकते ,अपनी सावधानी तो बरत सकते हैं ,अपने  बच्चे का ही ध्यान रखना होगा। कहती हुई, सरोजिनी फिर से आवाज़ देने लगीं। विभा .... विभा .... तभी विभा ने घर के अंदर प्रवेश किया ,उसने अपने हाथों से अपनी फ्राक समेट रखी थी ,शायद उसमें कुछ रख रखा था।

 
                  भाभी ने उसे देखा तो डाँटने लगी -कहाँ थी ?अब तक ,मैं इतनी देर से आवाज़ लगा रही थी। मैं तो सामने उस पेड़ के नीचे से फूल उठा रही थी वो खिसियाकर बोली। ये कहते हुए ,उसने अपने फ्राक को छोड़ दिया छोड़ते ही फूल वहाँ बिखर गए। फूलों को समेटते हुए ,भाभी बोली -बिना बताये ,कहीं जाने की आवश्यकता नहीं ,समझी ! नहीं मम्मी ,इन्हें फेंको नहीं ,इतनी मुश्किल से इकट्ठा किये हैं। उसके कहने पर उन्होंने वो फूल एक गमले में सजा दिए और बोलीं -और कौन -कौन था ,तुम्हारे साथ ?सुनीता और पम्मी, विभा ने छोटा सा जबाब दिया।उन लड़कियों के साथ सरोजिनी ने चौंककर बात दोहराई। कितनी बार कहा है ?उन लड़कियों के साथ मत खेला करो न ही वो पढ़ती -लिखती हैं ,गंदी भी रहती हैं ,सर में जुएँ भरी रहती हैं। उनके साथ रहकर क्या सीखेगी ?गंदी बातें ही न फिर आदेश देते हुए बोलीं -उनके साथ ,अब मत खेलना। विभा चिढ़कर बोली -फिर मैं किसके साथ खेलूँ ?सारा दिन यहाँ मत जाओ ,वहाँ मत जाओ ,इसके साथ मत खेलो ,उसके साथ मत खेलो। तो मैं करूँ क्या ? गुस्से से लगभग चिल्लाते हुए विभा बोली। 
             भाभी बोली -यहीं ,मेरी नजरों के सामने खेलो, छत पर खेलो या आँगन में ,मेरी नजरों के सामने रहो। किसके साथ और कैसे खेलूं ?विभा झल्लाई। अकेली खेलो ,मेरे साथ खेलो। अब तो बुआ भी आ गयी ,बुआ के साथ खेलो। मुझे भाभी का ये व्यवहार पसंद नहीं आया। मैंने भाभी से कहा -बच्चे तो बच्चों में ही खेलते हैं। मानती हूँ ,बहनजी लेकिन यहाँ का वातावरण मुझे पसंद नहीं। इस तरह मेरा बचपन गुजरा थोड़ी बड़ी हुई तो विद्यालय जाने लगी। तो मम्मी ने सख्ताई से हिदायत दी कि घर से सीधे स्कूल जाना ,स्कू ल से सीधे घर आना। मैं कल अपने विद्यालय नहीं जा पाई मेरा सारा काम रह गया मैंने सोचा ,कि अपने क्लास की लड़की से नोट्स ले लूँ। किंतु मम्मी नहीं जाने देंगी। काम तो पूरा करना ही है सोचकर मम्मी से पूछा -मम्मी मुझे अपनी सहेली से नोट्स लेने जाना है। मम्मी रसोईघर से ही बोलीं -कितनी बार बोला  है ?स्कूल में  ही खाली समय में  अपना काम कर लिया करो ,कहीं नहीं जाना। मैं अपने कमरे में चुपचाप बेे ठ गयी। मैं सोच रही थी कि मैं क्यों पैदा हुई ? क्या सारे बंधन मेरे ही लिए  हैं ,मैं लड़की हूँ ,इसमें मेरी क्या गलती है ?कुछ देर बाद मम्मी  देखने आयीं ,मेरा मुँह देखकर बोलीं -कल जल्दी जाते ही काम कर लेना। 

              नहीं ,जब मैडम खड़ा करेंगी या शिकायत आएगी तो मुझे मत कहना। पहली  ही क्लास  है ,कैसे काम करुँगी ?और' मैं' मुँह बनाकर बैठ गयी।मेरी बात का असर हुआ। मम्मी बोलीं -चली जाओ ,अपने साथ अपने भइया को ले जाना। ठीक है, कहकर मैं तैयार हो गयी ,छोटा भइया, जिसके आधे से ज्यादा काम मैं करती हूँ वो मेरा अंगरक्षक बनकर चल रहा था। मम्मी ने भइया को समझाया -दोनों जल्दी घर आना अपनी बहन का ध्यान रखना। पन्द्रहवें -सोहलवें साल में अच्छी -बुरी नजरों का असर महसूस होने लगा। कोई घूरता तो अजीब लगता सोचा ,मम्मी से अपनी परेशानी बताऊँ ,फिर सोचा -विद्यालय भी जाना बंद करा देंगी, उन नजरों को  ही झेला। अब मेरा मन बाहर घूमने का, दोस्तों से बातें करने का मन करता। मेरा मन किसी पंख कटे पंक्षी की तरह फ़ड़फ़ड़ाता रहता। मैं ऊँचे आकाश में उड़ना चाहती थी। अपने पंखों को  विस्तार देना चाहती थी। कुछ लोगों की सोच के कारण मेरी आजादी में बंधन क्यों ?'कोई  मुझसे ही मुझको न चुरा ले,' लेकिन मम्मी तो ऐसी नौबत ही न आये इसीलिए मुझे ही पिंजरे में कैद कर लेती हैं। 
             मम्मी हमारे विद्यालय की तरफ से बस जा रही है ,सब बच्चों ने अपने -अपने नाम लिखवा लिए ,क्या मैं भी अपना नाम लिखवा लूँ।नहीं ,हमारे यहाँ लड़कियाँ इतना बाहर घूमती -फिरती नहीं। विवाह  के बाद कहीं भी घूमो -फिरो लेकिन कुँवारी लड़कियाँ बाहर नहीं घूमती। अपने विद्यालय की बस है ,सभी अध्यापक भी जा रहे हैं फिर मैं क्यों नहीं जा सकती मैंने गुस्से से कहा। अब मैं बड़ी और समझदार हो गयी हूँ तो क्या मैं नहीं जा सकती और लड़कियाँ भी तो जा रहीं हैं। यही तो बात है ,अब तुम बड़ी हो गयी हो ,ज़माना बहुत खराब है। आजकल किसी का भरोसा नहीं, मम्मी ने समझाते हुए कहा।तो क्या सारे बंधन मेरे लिए ही हैं ?ज़माना ख़राब है तो क्या मेरी गलती है ? मैंने बहस जारी रखी। ये उम्र ही ऐसी होती है सही - ग़लत की जानकारी नहीं होती और  मम्मी न जाने किस -किस के किस्से सुनाने लगीं।वो रामपाल की लड़की का एक गलत कदम पूरे घर की बदनामी का कारण बन गया। इज्ज़त कमाने में तो सालों लग जाते हैं ,एक बार गयी इज्जत वापस नहीं आती ,घर की बदनामी सो अलग। उनकी यही बातें सालों से सुन रही थी अब वो फिर से रिकार्ड की तरह चालू हो गयीं मैंने मन मसोसकर अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया।  

 
              कुछ सालों बाद पापा की बदली दूसरी जगह हो गयी ,मैंने भी चैन की साँस ली। कॉलिज पूरा करके एक जगह नौकरी करनी शुरू की ,इसके लिए भी मम्मी को बहुत समझाना पड़ा। फिर भी वो आजादी नहीं थी, समय देखती रहतीं थीं अभी तक आई नहीं। एक दिन दफ्तर से आने में देरी हो गयी उस दिन तो जैसे पहाड़ ही टूट गया। मम्मी को मेरे विवाह की धुन सवार हो गयी ,नौकरी को इस्तीफ़ा देने के लिए कह दिया। अपनी ससुराल जाना वहाँ खूब घूमना हमारी जिम्मेदारी ख़त्म ,वहाँ कोई तुम्हें रोकने वाला न होगा, मम्मी ने विश्वास दिलाया। विवाह के बाद घर की बहुएँ घर का मान होती हैं, यूँ ही सड़कों पर धक्के नहीं खाने हैं। शुरू में तो पति के साथ थोड़ा घूमें, फिर अपनी -अपनी जिम्मेदारियों में लग गए। वो तो ऐसा पिंजरा था जिसमें जिम्मेदारियों की जंजीरें बँधी थी। मैं क्या चाहती हूँ या मुझे क्या करना है ?इस बात से किसी को कोई मतलब नहीं। यहाँ तो मेरे पिंजरे में पर्दा आ गया।माँ ने मुझे एक पिंजरे से निकालकर दूसरे पिंजरे में डाला, जगह बदल गयी लेकिन पिंजरा तो पिंजरा ही होता है। माँ  भी मेरा दर्द न समझ पाई क्योंकि उसे भी तो ऐसे ही पिंजरे की आदत लग गयी, उसे पता ही नहीं था कि पिंजरे के बाहर भी एक दुनिया है।  
            उसे तो समाज दिखा ,वहशी लोग दिखे ,औरत  का मान -सम्मान या इच्छाएं क्या होती हैं ?ये समझा ही नहीं। उसे तो  मेरा फ़ड़फ़ड़ाना भी नहीं दिखा ,जिम्मेदारियों तले दम  घुटता नही  दिखा क्योंकि वो देखना ही नहीं चाहती थी। पीढ़ी दर पीढ़ी जो उसने सीखा वो ही मुझमें भरने का प्रयत्न किया लेकिन मैं तो उन बंधनों को तोडना चाहती थी, मैं जीवन को जीना चाहती थी ,खुले आकाश को महसूस करना चाहती थी।

मेरा भी अलग अस्तित्व है, किसी का मोहताज़ नहीं ,ये मैं बता देना चाहती थी।मेरे अपनों ने ही मेरी जिंदगी कुछ रंगों में बाँध दी।  मेरा आकाश तो मेरी माँ ने निश्चित कर दिया फिर भी मैं उस आसमान को ही रंगीन बनाऊँगी ,कोई दिन तो मेरा अपना होगा। अभी मैं ये सब सोच ही रही थी कि मेरी बेटी' मीरा दौड़ती हुई मेरे पास आई बोली -मम्मा !मुझे भी पिकनिक जाना है ,सब जा रहे हैं। क्या मैं भी अपना नाम लिखवा दूँ ?हाँ बेटा  चली जाना। मीरा खुश होती हुई ,बाहर खेलने चली गयी लेकिन मैं सोच रही थी -'लोगों की नजरों में कचरा भरा है, उस कचरे से बचने के  लिए, मैं अपनी बेटी को सजा नहीं दूंगी ,उसे कैद नहीं करुँगी। मैं उस कचरे से कैसे बचा जाये ?या उससे बचकर कैसे निकलना है ?ये समझाऊँगी। यदि किरण बेदी ,सरोजिनी नायडू या लता मंगेशकर की माँ भी यही न  सोचतीं, तो आज  उन्हें कौन जान पाता ?उन्होंने भी अपनी क्षमतानुसार उड़ान भरी, अपना आसमान खुद चुना। मैं भी अपनी बेटी को  उसकी अपनी उड़ान भरने दूंगी। 



















laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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