मैं' सुरेश 'शायद आप लोग मुझे नहीं जानते ,मैं भी नहीं जान पाता ,यदि मुझे आप लोंगो को अपनी कहानी सुनानी न होती ,क्योंकि मैं भी आप लोगों की तरह ही अपने घर परिवार में व्यस्त रहता था। अपना जीवन अपने परिवार की सुख -समृद्धि के लिए जी रहा था ,तो ये कहना गलत नहीं होगा कि मैं भी आप लोगों में से ही एक हूँ। फ़र्क सिर्फ़ इतना है ,कि आप लोगों का भृम टूटा नहीं, मेरा टूट गया है। या यूँ कहें कि मुझे जिंदगी की असलियत पता चल गयी है। पता नहीं ,क्यों हम सब जानते भी हैं पर मानते नहीं। फिर भी एक भृम को लिए जीते रहते हैं। इसी भृम के साथ मैंने भी अपने गृहस्थ जीवन की शुरुआत की। बड़े अरमानों से मैंने अपने दोनों बच्चों को पाला। हम सभी अपने बच्चों को पालते हैं, अभी आप लोग ये ही सब सोच रहे होंगे कि इसमें मैंने कौन सा अनोखा कार्य किया? लेकिन यहीं से मेरी कहानी की शुरुआत होती है। मेरी इच्छा थी- कि मेरे बच्चे एक जिम्मेदार सफल नागरिक बनें, हमारे बुढ़ापे का सहारा बनें। जहां तक मेरा विचार है, सभी माता -पिता यही सोचते होंगे। मैंने भी बच्चों को पढ़ाया -लिखाया ,बच्चे भी सफलता की सीढ़ियां चढ़ने लगे।
जिस तरह किसान अपनी पकती फसल को देखकर खुश होता है ,हम भी खुश थे ,हम यानि मैं और मेरी अर्धांगनी ,बच्चों की माँ। बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो गये अर्थात हमारी मेहनत सफल हुई, ऐसा हम समझ रहे थे। अब हम उनका विवाह कराके अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहते थे। हम अपने को बहुत ही सौभाग्यशाली माता -पिता समझ रहे थे। एक बेटा शहर से बाहर नौकरी करने लगा।उसके खाने -पीने की चिंता हुई। सोचा ,अब इसका विवाह करा देते हैं , विवाह की उम्र भी हो गयी है। दोनों ही समस्याएं हल हो जायेंगी। हम भी अपने -आप को बहुत ही बेहतरीन माता -पिता समझते थे या यूँ कहें ,बनने का प्रयत्न कर रहे थे। अब आप लोग ये सोच रहे होंगे कि सब कुछ तो ठीक चल रहा था फिर समस्या कहाँ आई ?शायद ,'सुरेश जी' के बेटे की बहु ने समस्या पैदा की होगी। नहीं -नहीं ,ऐसा कुछ नहीं था। बहुएं तो बेचारी पराये घर की होती हैं। वे तो स्वयं ही अपने को उस परिवार में स्थापित करने का प्रयत्न करती रहतीं हैं, लेकिन जब अपना सोना ही खोटा निकले तो पराये का क्या दोष ?वो भी तो घर के लोगों का रवैया देखकर अपनी सुविधानुसार अपना व्यवहार बदलतीं हैं। अपना फायदा तो हर कोई देखता है। तुम्हारा अधिकार तो अपने बच्चों पर होता है ,उनसे ही उम्मीद होती है, उनके लिए ही तो तुम अपना जीवन और जीवन भर की पूंजी लगा देते हो। मेरा तो यही मानना है, कि तुम्हारे बच्चे ही तुम्हारी पूंजी हैं।
मैं भी न अपनी कहानी सुनाता , न जाने क्या बातें करने लगा ?आप लोगों के सामने अपना दुःख सुनाता ,मैं थोड़ा बहक गया था। बड़े बेटे का विवाह करके छोटे की तैयारी करने लगे। दोनों का विवाह करके अब हम निश्चिंत हो गए। हम समझदार माता -पिता होने के नाते [ऐसा हम समझते थे ]सोचा -थोड़े दिन बड़े बेटे के यहाँ हो आते हैं। छोटे को भी अपने घर परिवार को समझने का मौका मिलेगा। छोटी बहु को सारी बातें समझाकर हम अपने बड़े बेटे के पास ख़ुशी -ख़ुशी रहने चले गए। बहु -बेटे ने औपचारिकता पूरी की ,हमने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। हम चाहते ,बेटा हमारे साथ बैठे लेकिन उसे तो फुरसत ही नहीं। हमने आजकल की पीढ़ी की समस्याओं को समझते हुए ,आजकल के रहन -सहन के स्तर और खर्चों को ,महंगाई को कोसा। आदमी दो घड़ी भी आराम से नहीं रह पाता।एक सप्ताह बाद बेटा खर्चे गिनाने लगा जबकि हम घर से चले थे तो घर परिवार के लिए जो भी आवश्यक चीजें हो सकती थीं और जो हमें लगता था कि हमारे शहर में सस्ती हैं ,वे सभी चीजें ढ़ोकर ले गए थे। कुछ दिनों बाद लगने लगा कि हमें चलना चाहिए। अपने घर आकर बड़ा ही आराम मिला ,ऐसा लग रहा था कि हम वहाँ रह नहीं रहे वरन सिर पर एक बोझ सा था। ऐसी बातें बताने की नहीं महसूस करने की होती हैं।
कुछ दिन तो आराम से गुजर गए लेकिन जिंदगी आराम से बीत जाये, ये तो सम्भव ही नहीं। एक दिन बेटे ने पास आकर कहा -पिताजी ये मकान मेरे नाम कर दो ,मुझे लोन लेना है ,मुझे अपना कोई व्यापार भी करना है। न जाने कितने बहानों द्वारा उसने मकान अपने नाम कराने का प्रयत्न किया ? एक दिन हमने उसे पास बुलाकर समझाया कि बेटे ये मकान ,जमीन -जायदाद सब तुम दोनों भाईयों का ही तो है, हम कहाँ ले जायेंगे? लेकिन उस पर तो जैसे लालच सवार था, बोला -यहाँ मैं तुम्हें पालता रहुँ और तुम लोग मेरे नाम मकान भी नहीं कर सकते ,चलो निकलो बाहर !तब मुझे गुस्सा आया ,तब मैं बोला - मकान मेरा है ,निकलना है, तो तुम लोग जाओ बाहर !घर परिवार को जोड़े रखने के लिए हम क्या -क्या नहीं करते ?जिस औलाद को पाल -पोसकर इतना बड़ा किया आज इस तरह की बातों से हमारा दिल टूट सा गया। शाम को बहु खाना लेकर आई, हमने अपने को कोसते हए खाना खा लिया। आजकल बहुएँ कम ही कहती हैं क्योंकि वो बेटों की अपनी हो जाती हैं उनका काम तो हमारे अपने बेटे ही कर जाते हैं।
बुढ़ापे में दो रोटी के बदले क्या -क्या नहीं सहते हैं, हम। आज महसूस हो रहा था फिर हम अपने कर्मो को ढूंढने लगते हैं कि ऐसा क्या ,हमने किसी के साथ बुरा किया -हम तो माता -पिता से भी बहुत डरे ,हिम्मत ही नहीं होती थी कि उनसे जबान लड़ायें। बड़े बेटे ने फोन किया -कुसुम ने फोन उठाया ,उसे शायद उम्मीद थी कि हमारी परेशानी बड़ा तो समझेगा ,उसे हमसे प्यार है फिर भी उसने कुछ नही बताया कि कहीं भाई -भाई में झगड़ा न हो जाये किन्तु अपनी माँ की आवाज से उसने अंदाजा लगाया या उसके डर ने बोला -कुछ बात हुई है, क्या ?माँ को उसमें आत्मीयता नजर आई और उसने भावुकता में सब कह दिया। जिसे सुनकर बोला -आप लोग क्यों उसकी जिंदगी में दखलअंदाजी करते हैं ?जैसा वो करता है ,करने दो। यहाँ भी इतनी जगह नहीं कि मैं आप लोगों को रख सकूँ'' लेकिन हमने तो कुछ किया ही नहीं'' श्रीमतिजी ने सफाई पेश की। हम दोनों ठगे से एक -दूसरे का मुँह देख रहे थे जिससे उम्मीद लगाये बैठे थे वो तो '' छुपा रुस्तम निकला ''हमने दिल ही दिल में उसे दाद दी। फिर बोला - आप लोग कहें ,तो मैं थोड़े पैसे भेज सकता हूँ, हमने निराशा के कारण फोन काट दिया। हम तो उससे बात करके अपना मन हल्का करना चाहते थे। अब हम समझ गए कि वो भी माँ -बाप की जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेना चाहता है। अभी तो हमारे हाथ -पाँव चल रहे हैं ,उसके पैसों की आवश्यकता नहीं, हमारी पेंशन आती है। मन से टूटी कुसुम को मैंने समझाया।
क्या ,ये वो ही संस्कारी बेटे हैं, जिन पर हमें नाज़ था। जिनके लिए जिंदगी के न जाने कितने सुनहरे पल जिम्मेदारियों तले दफ़न कर दिए ? मन का दर्द बैठ ही गया ,मैंने तो फिर भी अपने को संभाला लेकिन श्रीमतिजी ने बीमारियों को आमंत्रण दे दिया। एक दिन बहु -बेटे ने दफ्तर का काम बताकर , ऐसे ग़ायब हुए कि पता ही नहीं चला। इधर कुसुम की हालत ख़राब ,मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ ?उसने तो जैसे जीने की उम्मीद ही छोड़ दी थी। अस्पताल में भर्ती कराया ,दो दिन बाद वो घर आई ,बाद में पता चला कि वो तो अपने साले के साथ पहाड़ों पर घूमने गया था ,बहुत ही दुःख हुआ। जब उससे कहा -तो बोला -तुम लोग तो बारहों महिने बीमार रहोगे तो हम कहीं घूमें नहीं ,अपनी जिंदगी न जियें। अपने भाई से कुछ सीखो ,वो ही फोन कर करके हाल पूछता रहा। तब उसने एक रहस्य और खोला ,बोला -उसने ही तो सलाह दी थी [ये हमारे लिए रहस्य से कम नहीं था ] घूमो -फिरो मजे करो। सुनकर दुःख हुआ कि ये वो ही बच्चे हैं, जिनकी परवरिश के लिए रात -दिन एक किया।रात -रात भर जागे। अब तो किसी से बात करने का दिल ही नहीं करता। काश !हमारे भी सीने में दिल न होता तो आज वो जिन्दा होतीं। जी हाँ !एक तो बुढ़ापा ऊपर से दिल की चोट जो सही नहीं जाती।
हमें उनके पैसों की नहीं उनके प्यार अपनेपन की आवश्यकता थी, जो वो लोग समझ नहीं पाए। परिवार के हर सदस्य की एक जगह होती है, उस जगह को हम चाहते थे। हमारे दुःख -दर्द की दवा तो हमारा अपना परिवार था, जिसने हमें अपना समझा ही नहीं। आज मैं आप लोगों को अपना दुःख -दर्द बताकर , पता नहीं मैं क्या चाहता हूँ ?बस सुना दी अपनी कहानी, जैसे भी आप समझें।


