उसने पूरे घर में आतंक मचा रखा है ,घर में कुछ भी ग़लत हो जाये बर्दाश्त नहीं कर पाती ,सारे घर को ''सिर पर उठा ''लेती। अपनी बात मनवाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं। ज़िद्दी भी इतनी कि कभी लगता, इनके अंदर दिल भी है कि नहीं या भगवान ने दिल की जगह पत्थर ही लगा दिया। घर के बड़े -बच्चे उनकी जायज़ -नाजायज़ बातें एक कठपुतली की तरह मान लेते, ताकि घर में शांति रहे। यदि कोई कुछ कह भी देता या परिस्थिति वश उनके विपरीत बोल जाता तो दो -तीन दिन तक ,सही से रोटी मिल जाये तो गनीमत है।घर का वातावरण तब तक ऐसा रहता, जब तक उस कहने वाले व्यक्ति को इस बात का एहसास न हो जाये कि उसने गलती की है और क्षमा याचना नहीं कर लेता। इस सबके बावजूद यही दर्शाती कि मैं किसलिए कर रही हूँ ,किसके लिए ?स्वयं ही जबाब दे देतीं -तुम लोगों के लिए ही तो करती हूँ। सब चुपचाप बर्दाश्त कर लेते। जब बच्चे बड़े हुए ,तो जो वातावरण उन्होंने बचपन में झेला ,उसका परिणाम ये था कि बच्चे कोई भी फैसला स्वयं नहीं ले पाते थे। कोशिश भी करते तो फिर घर का वातावरण न बिगड़ जाये यही सोच हिम्मत ही नहीं होती।
ऐसे लड़कों को लड़कियाँ ''मम्माज़ बॉय ''कहतीं थीं जो माँ के पल्लू से बंधे रहते। किसी भी बात पर निर्णय लेने के लिएअपनी माँ का मुँह तकते ,चाहे जिंदगी के फैसले हों या फिर कोई और। बेटे के रिश्ते आने लगे। माँ अपने हिसाब से ही लड़की की खोज में लग गयीं ,जिसके लिए लड़की ढूंढी जा रही थी ,न ही उसे बताया गया ,न ही उससे पूछा गया कि तुम्हारी पसंद क्या है ? विवाह करना भी है कि नहीं। बेटे ने भी अपनी कोई इच्छा जाहिर नहीं की। इच्छा बताने का कोई अर्थ ही नहीं था ,जबकि ये मालूम हो तुम्हारी कोई सुनने वाला नहीं। उसे भी ये पता था, कि विवाह के लिए एक लड़की ढूंढी जा रही है जो माँ की पसंद की होगी। बहुत सी लड़कियां ढूंढी गयीं लेकिन ''होनी को कौन टाल सकता ''है। जिसकी उम्मीद नहीं थी ,वही हुआ। बहु होशियार ,सुंदर ,पढ़ी -लिखी आई। सभी ने बहु की प्रशंसा की। वो आत्मनिर्भर थी ,उसे यहाँ के वातावरण के बारे में कुछ नहीं पता था। वो तो खुले विचारों की ,अच्छे वातावरण में पली -बढ़ी जागरूक लड़की थी। अपने फैसले भी खुद लेती थी। उमादेवी ने सोचा था -कि बहु जब अपने घर आ जाएगी तो धीरे -धीरे हमारे ही वातावरण में ढल जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उसने देखा पति -देवर यहाँ तक की ससुरजी भी ,उमादेवी के हिसाब से ही चलते हैं, किसी कठपुतली की तरह। सब के सब उनका मुँह तकते रहते। उसने अपने पति को धिक्कारा --तुम पढ़े -लिखे ,जवान आदमी हो स्वावलम्बी हो। कब तक माँ के पल्लू से बँधे रहोगे ?तुम्हारा अपना भी दिमाग है कि नहीं। शेखर ने जब अपनी पत्नी की फटकार सुनी तो ,वो बोला -माँ है ,हमारी उनका कहना मान लिया ,तो क्या हो गया ?यही तो उसने अब तक अपने पिता से सीखा था। लेकिन किरण कहाँ मानने वाली थी ?बोली -तुम्हारा अपना भी दिमाग है ,अपनी भी एक सोच होती है ,कब तक मम्मी ही फैसले सुनाती रहेंगीं ?तुम से तो कम ही पढ़ी -लिखीं हैं फिर भी उनकी अपनी एक सोच है। किरण के इस तरह समझाने का शेखर पर असर हुआ। आज उसने माँ के ख़िलाफ या यूँ कहें अपनी सोच के आधार पर माँ को फैसला सुनाया हालाँकि शेखर सही था लेकिन ये बात उमादेवी को नाग़वार गुजरी। वो भी बहु के सामने ,वो बुरी तरह से तिलमिला गयीं। क्रोध तो जैसे ''सातवें आसमान ''पर पहुँच गया।
उन्होंने आज पहली बार अपना, पहले वाला 'रौद्र रूप 'दिखा ही दिया। वैसे इतने दिनों से सोच रहीं थीं कि प्यार से ही बहु को अपने वातावरण में ढ़ाल लूँगी। एक कूटनीति के तहत वो इस काम को अंजाम दे रहीं थीं लेकिन आज शेखर के इस निर्णय ने बहु को ये रूप दिखाने पर मजबूर कर दिया। अब वो उनके लिए बहु नहीं दुश्मन ज्यादा नज़र आ रही थी। किसी न किसी बात पर उनकी झड़प हो ही जाती। दूसरे बेटे का विवाह किया ,अबकि बार लड़की को वो कुछ मामलों में दबी सी लायीं ताकि वो उनके सामने सिर न उठा सके लेकिन वो भी बड़ी बहु को देखकर रंग बदलने लगी। उमादेवी को अब अपने विरुद्ध खतरा नज़र आने लगा। शेखर भी चाहते हुए भी माँ का इतना विरोध नहीं कर पाता। रोज- रोज की परेशानियों से, उसने चुप रहने में ही भलाई समझी। किरण को अब शेखर से कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही थी। उसे शेखर से घृणा होने लगी ,ऐसे पति से जो अपनी पत्नी के मान -सम्मान की रक्षा न कर सके ,इसी गुस्से से वो अपने मायके चली गयी। उमादेवी को अब पूरा -पूरा बहाना मिल गया और उन्होंने सोच लिया कि बेटे को तलाक दिलवाकर रहूँगी। पति ने बहुत समझाया कि अपने बच्चों का घर तोडना सही नहीं है लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी। हालात बद से बद्त्तर हो गये । उधर बहु -बेटे का तलाक हुआ इधर उमादेवी के पति' स्वर्ग सिधार'' गए। इसका इल्जाम भी उन्होंने बड़ी बहु को दिया। ऐसे हालातों को देखकर छोटी बहु को तो जैसे ''साँप सूंघ ''गया। वो तो ग़रीबी में पली -बढ़ी ,दुबारा अपने घर उसी ग़रीबी में नहीं जाना चाहती थी। उसने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी। छोटी बहु की माँ ने चुप रहने का फ़ायदा बताया ,बड़ी बहु का तो तलाक़ हो गया। उमादेवी भी कितने दिन जिन्दा रहने वाली हैं ?उसके बाद तो तुम्हारा ही राज़ होगा। आज उमादेवी के पति की तेहरवीं है, वे अपने नाम से कभी जाने ही नहीं गए। आज उनकी बहन आई है ,बहुत रोई। आज उसने सोच लिया कि भाभी से पूछकर ही रहूँगी ,जब सब लोग चले गए तो उसने पूछ ही लिया --भाभी !आपको क्या मिला ?इस तरह घर की शांति भंग करके,बच्चों का घर टूट गया. इसी ग़म में भाई भी चल बसे। इतना स्वार्थी होना भी सही नहीं है। उमादेवी गंभीर होकर बोलीं -जब बच्चे स्वार्थी हो सकते हैं तो माँ क्यों नहीं ?उनकी ननद उनके शब्दों का सार न समझ सकी। बोली -भाभी मैं कुछ समझी नहीं। तब
उमादेवी ने बोलना आरम्भ किया -बच्चों को पढ़ाओ -लिखाओ ,सफल इंसान बनाओ फिर वो अपनी -अपनी पत्नियों को लेकर जाते हैं और पीछे रह जाती हैं उनकी यादें ,तड़पते ,अकेले माँ -बाप। तब वो बच्चे मुड़कर भी नहीं देखते, जिन माता -पिता ने इतने अरमानों से उन्हें पाला -पोसा ,बड़ा किया उन माता -पिता की भी कुछ इच्छाएँ होंगी। लेकिन आपके बच्चे तो आपका कहना मानते हैं उनकी ननद बात को बीच में ही काटते हुए बोली। मानते नहीं ,मैंने मनवाया है। जब मैंने अपने नाना -नानी की हालत देखी -'बेचारे ,बुढ़ापे में अकेले .... नानी को तो कम दिखता था ,बेचारी न जाने कैसे -कैसे रोटी बनाती थीं ?कई बार तो उनका हाथ भी जला। नाना -नानी को मैंने देखा ,कई बार बीमार हुए ,उनकी सेवा के लिए किसी के भी पास समय नहीं था। उन्हें तिल -तिल कर मरते मैंने देखा है। जब वो नहीं रहे तो ज़मीन -जायदाद के लिए मामा को फुरसत मिल गयी। नाना -नानी की ऐसी हालत देखकर मैंने सोच लिया था कि विवाह ही नहीं करुँगी ,किया भी तो सब अपने नियंत्रण में। जिससे बच्चे छोड़कर जाने की सोच भी न सकें ,उनकी अपनी सोच ही नहीं होगी।कहते हुए भाभी की थोड़ी आँख नम हुई, फिर कुछ सोचते हुए -बड़ी बहु ने थोड़ा आजादी का झंडा लहराया था उसके परिणाम वो भुगत चुकी। कहकर वो अपने कमरे की तरफ बढ़ गयीं। मैं उन्हें जाते देखती रही।सोचती रही, किसी के कर्मो की सजा किसी और को मिली।