घर में शुरू से ही आध्यात्म का वातावरण था। घर में अधिकतर सन्तोँ की वाणी सुनने को मिलती थी। हमारी रूचि भी उधर की तरफ ही झुकने लगी ,लेकिन शिक्षा की जहां बात आती तो माता -पिता अंग्रेजी शिक्षा को महत्व देते। अंग्रेजी का ज्ञान बढ़ाने के लिए, माता -पिता भिन्न -भिन्न प्रकार की पुस्तकें लेकर दिया करते। अंग्रेजी भी सीखी। हिंदी माध्यम विद्यालय में जब बच्चों को ए,बी ,सी , डी भी नहीं आती थी ,उस समय हमें सब्जियों के नाम फलों के नाम अंग्रेजी में इस्पेलिंग सहित आते थे। अंग्रेजी में गिनती ,पहाड़े सब याद किये। माता -पिता सुनकर खुश होते जब हमारे मुँह से''व्हाट इज योअर नेम ''जैसे वाक्य सुनकर खुश होते। विद्यालय में भी सब इज्ज़त की द्रष्टि से देखते तो हमें भी अच्छा लगता। समय के साथ -साथ कक्षा भी आगे बढ़ती रही। विद्यालय हमारा हिंदी माध्यम ही था ,वहाँ कोई अंग्रेजी स्कूल नहीं था। हमें अपनी भाषा में पढ़ना अत्यंत सरल लगता। समझ भी आता क्योंकि न ही माता -पिता पढ़ा पाते थे ,न ही कोई शिक्षक जो अलग से पढ़ाये ,जो भी पढ़ना होता अपनी समझ से ही।
एक अंग्रेजी का घंटा होता तो वो भी पढ़ने के लिए दूसरे स्कूल में जाना होता। जिसके लिए माता -पिता ने इंकार कर दिया। हिंदी हमारी मातृभाषा है ,अंग्रेजी दूसरी। लेकिन हमने महसूस किया अंग्रेज चले गए लेकिन अपनी अंग्रेजी भाषा ,रहन -सहन का सलीका, कुछ लोगों में छोड़ गए। पहले तो कुछ साधन ही नहीं थे। जब महसूस किया, कि हमारी मातृभाषा हिंदी है तो क्यूँ न हिंदी में ही कुछ करें और हमारा झुकाव हिंदी की तरफ बढ़ता गया। उस समय के मध्ययुगीन कवियों के पद ,दोहों को तो जैसे हमने घोंटकर पी लिया। उनके दोहे इतने प्रचलित थे कि आम बोलचाल की भाषा में भी प्रयोग किये जाते। हिंदी में रुझान इस कदर बढ़ा, हमने हिंदी [साहित्य] से ही' मास्टरी ' की। किन्तु माता -पिता की नजरों में उसका कोई मूल्य ही नहीं था। उनकी सोच के आधार पर हिंदी से तो न पढ़ने वाला बच्चा भी पास हो जाता। उनकी नजर में अंग्रेजी ,साइंस के विषयों का महत्व था। किसी की भी नजर में हमारी शिक्षा का कोई अर्थ नहीं था। हमने अर्थहीन शिक्षा ग्रहण की, हमने ये सोचकर जीवन को भविष्य की मझधार में छोड़ दिया। किसी ने भी हमारी शिक्षा को लेकर उत्साह नहीं दिखाया ,न ही किसी ने हमारे गिरते आत्मविश्वास को सहारा दिया -''कि ये विद्या व्यर्थ नहीं ,ये भी नौकरी की राह खोल सकती है ,क्योंकि पढ़ने के बाद यदि तुम्हारी नौकरी नहीं लगती है तो शिक्षा व्यर्थ है। ये हमारे समय में हमारे आसपास रहने वाले लोगों की सोच थी। हम स्वयं इस अंग्रेजी से मात खा गए ,सारी व्याकरण रट ली ,वाक्य बनाने सीखे। अंग्रेजी के शब्दकोश से बहुत सारे शब्द भी याद किये लेकिनअंग्रेजी नहीं बोल पाए। एक झिझक ही बनी रही ,अपना जीवन व्यर्थ लगने लगा।
एक दिन हमने समाचार पत्र में पढ़ा कि हिंदी विषय से भी नौकरियां लग सकती हैं फिर से मन में उत्साह जगा ,उमंगें मन में हिलोरें लेने लगीं किन्तु अब तक बहुत कुछ बदल चुका था और भी न जाने कितनी समस्याओं ने हमें शांत रहने पर मजबूर कर दिया। अपना जीवन व्यर्थ समझ सोचा अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ायेंगे ,अब तक कई अंग्रेजी स्कूल खुल चुके थे। बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में प्रवेश कराया। हम नहीं चाहते थे, कि बोलने में जो झिझक हम महसूस करते थे ,वो हमारे बच्चे न करें। इस सोच के चलते आमदनी का आधा हिस्सा बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की ओर जाता। इस उम्मीद के साथ कि कल को ये भी पढ़ने -लिखने के बाद भी , हमारी तरह बेरोजगार या विवश न हों किन्तु अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाकर भी हमने बच्चों को विवश ही पाया। अब उन्हें अपनी मातृभाषा सही से नहीं आती थी। शब्दों के उच्चारण में गलतियां करते। हमने समझाया कि हमारी मातृभाषा हिंदी है ,उसका ज्ञान होना भी आवश्यक है लेकिन आजकल के बच्चे माँ -बाप की कहाँ सुनते हैं ?
अपने ही देश में रहकर अपनी ही भाषा से विमुख जब बच्चा किसी दुकान पर जाता ,कुछ सामान खरीदता और पूछता कि कितने पैसे हुए ?जबाब में'' उनसठ रूपये ''तब बच्चा हमारा मुँह तकता। शुरू -शुरू में तो हमें गर्व हुआ कि हम बच्चे को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा रहे हैं लेकिन धीरे -धीरे एहसास होने लगा कि ये शिक्षा भी अधूरी रह गयी। बच्चे को समझाया भी हर कोई अंग्रेजी नहीं जानता। 'जैसा देश ,वैसा भेष। ' उनहत्तर, उन्नासी ये सब कब तक, किससे पूछते रहोगे ?हिंदी में भी गिनती याद कर लो।इतने से ही बच्चों की तो बेइज्जती हो गयी। अब ये बातें सुनने को मिलतीं, क्या फायदा हुआ ?इनसे ज्यादा तो कोई अनपढ़ बच्चा भी जो छुटपन से ही काम में लग गया वो भी हिसाब लगा लेता है। ,मोल -भाव करता है इनसे ज्यादा तो उन बच्चों को अनुभव होता है। इस आधार पर तो '' बच्चे निल बटे सन्नाटा थे 'अपने साहित्य में तो कोई रूचि थी ही नहीं। कल्पना शक्ति भी क्षीण होती जा रही थी क्योंकि जो काम मैडम देतीं तो गूगल खँगालते ,कल्पना शक्ति का जैसे ह्रास हो रहा था ,अपनी सोच से ज्यादा गूगल पर भरोसा था। इस शिक्षा में भी संतुष्टि का अभाव रहा। कॉलिज में जाना होता तो ,अंग्रेजी स्कूल के बच्चे को इतना महत्व नहीं मिलता, वहाँ का माहौल अलग ही होता। हम समझ ही नहीं पाये कि ये शिक्षा की कमी थी या हमारी सोच की। हम तो जीवनभर की आधी कमाई इन स्कूलों में फूँककर भी ठगे से थे।
एक अंग्रेजी का घंटा होता तो वो भी पढ़ने के लिए दूसरे स्कूल में जाना होता। जिसके लिए माता -पिता ने इंकार कर दिया। हिंदी हमारी मातृभाषा है ,अंग्रेजी दूसरी। लेकिन हमने महसूस किया अंग्रेज चले गए लेकिन अपनी अंग्रेजी भाषा ,रहन -सहन का सलीका, कुछ लोगों में छोड़ गए। पहले तो कुछ साधन ही नहीं थे। जब महसूस किया, कि हमारी मातृभाषा हिंदी है तो क्यूँ न हिंदी में ही कुछ करें और हमारा झुकाव हिंदी की तरफ बढ़ता गया। उस समय के मध्ययुगीन कवियों के पद ,दोहों को तो जैसे हमने घोंटकर पी लिया। उनके दोहे इतने प्रचलित थे कि आम बोलचाल की भाषा में भी प्रयोग किये जाते। हिंदी में रुझान इस कदर बढ़ा, हमने हिंदी [साहित्य] से ही' मास्टरी ' की। किन्तु माता -पिता की नजरों में उसका कोई मूल्य ही नहीं था। उनकी सोच के आधार पर हिंदी से तो न पढ़ने वाला बच्चा भी पास हो जाता। उनकी नजर में अंग्रेजी ,साइंस के विषयों का महत्व था। किसी की भी नजर में हमारी शिक्षा का कोई अर्थ नहीं था। हमने अर्थहीन शिक्षा ग्रहण की, हमने ये सोचकर जीवन को भविष्य की मझधार में छोड़ दिया। किसी ने भी हमारी शिक्षा को लेकर उत्साह नहीं दिखाया ,न ही किसी ने हमारे गिरते आत्मविश्वास को सहारा दिया -''कि ये विद्या व्यर्थ नहीं ,ये भी नौकरी की राह खोल सकती है ,क्योंकि पढ़ने के बाद यदि तुम्हारी नौकरी नहीं लगती है तो शिक्षा व्यर्थ है। ये हमारे समय में हमारे आसपास रहने वाले लोगों की सोच थी। हम स्वयं इस अंग्रेजी से मात खा गए ,सारी व्याकरण रट ली ,वाक्य बनाने सीखे। अंग्रेजी के शब्दकोश से बहुत सारे शब्द भी याद किये लेकिनअंग्रेजी नहीं बोल पाए। एक झिझक ही बनी रही ,अपना जीवन व्यर्थ लगने लगा।
एक दिन हमने समाचार पत्र में पढ़ा कि हिंदी विषय से भी नौकरियां लग सकती हैं फिर से मन में उत्साह जगा ,उमंगें मन में हिलोरें लेने लगीं किन्तु अब तक बहुत कुछ बदल चुका था और भी न जाने कितनी समस्याओं ने हमें शांत रहने पर मजबूर कर दिया। अपना जीवन व्यर्थ समझ सोचा अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ायेंगे ,अब तक कई अंग्रेजी स्कूल खुल चुके थे। बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में प्रवेश कराया। हम नहीं चाहते थे, कि बोलने में जो झिझक हम महसूस करते थे ,वो हमारे बच्चे न करें। इस सोच के चलते आमदनी का आधा हिस्सा बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की ओर जाता। इस उम्मीद के साथ कि कल को ये भी पढ़ने -लिखने के बाद भी , हमारी तरह बेरोजगार या विवश न हों किन्तु अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाकर भी हमने बच्चों को विवश ही पाया। अब उन्हें अपनी मातृभाषा सही से नहीं आती थी। शब्दों के उच्चारण में गलतियां करते। हमने समझाया कि हमारी मातृभाषा हिंदी है ,उसका ज्ञान होना भी आवश्यक है लेकिन आजकल के बच्चे माँ -बाप की कहाँ सुनते हैं ?
अपने ही देश में रहकर अपनी ही भाषा से विमुख जब बच्चा किसी दुकान पर जाता ,कुछ सामान खरीदता और पूछता कि कितने पैसे हुए ?जबाब में'' उनसठ रूपये ''तब बच्चा हमारा मुँह तकता। शुरू -शुरू में तो हमें गर्व हुआ कि हम बच्चे को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा रहे हैं लेकिन धीरे -धीरे एहसास होने लगा कि ये शिक्षा भी अधूरी रह गयी। बच्चे को समझाया भी हर कोई अंग्रेजी नहीं जानता। 'जैसा देश ,वैसा भेष। ' उनहत्तर, उन्नासी ये सब कब तक, किससे पूछते रहोगे ?हिंदी में भी गिनती याद कर लो।इतने से ही बच्चों की तो बेइज्जती हो गयी। अब ये बातें सुनने को मिलतीं, क्या फायदा हुआ ?इनसे ज्यादा तो कोई अनपढ़ बच्चा भी जो छुटपन से ही काम में लग गया वो भी हिसाब लगा लेता है। ,मोल -भाव करता है इनसे ज्यादा तो उन बच्चों को अनुभव होता है। इस आधार पर तो '' बच्चे निल बटे सन्नाटा थे 'अपने साहित्य में तो कोई रूचि थी ही नहीं। कल्पना शक्ति भी क्षीण होती जा रही थी क्योंकि जो काम मैडम देतीं तो गूगल खँगालते ,कल्पना शक्ति का जैसे ह्रास हो रहा था ,अपनी सोच से ज्यादा गूगल पर भरोसा था। इस शिक्षा में भी संतुष्टि का अभाव रहा। कॉलिज में जाना होता तो ,अंग्रेजी स्कूल के बच्चे को इतना महत्व नहीं मिलता, वहाँ का माहौल अलग ही होता। हम समझ ही नहीं पाये कि ये शिक्षा की कमी थी या हमारी सोच की। हम तो जीवनभर की आधी कमाई इन स्कूलों में फूँककर भी ठगे से थे।