सुनील ने बड़ी मेहनत की, तब जाकर वो कामयाब हुआ। इतनी मेहनत के बाद उसने सफलता का स्वाद चखा, लेकिन इस सफलता से पहले, उसे कई ऐसे रिश्तों से भी परिचित होना पड़ा ,जिन्होंने उसकी परेशानियों का भरपूर फायदा उठाया। इस कारण उसका अन्य रिश्तों से मन खट्टा हो गया। उसे आज भी याद है-' वो गाँव में रहकर अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पा रहा था, इसी कारण से वो अपनी बुआ के यहाँ शहर में रहने लगा। शुरू में तो उसकी बुआ का व्यवहार सही रहा ,किन्तु धीरे -धीरे उनके व्यवहार में परिवर्तन होने लगा। सुनील के घर से सारा खर्चा आता ,लेकिन बुआ उसे समय पर खाना नहीं देती। अपने पति व बच्चों में लगी रहती और सुनील से भी कहती -' खाली समय में बच्चों को पढ़ा दिया करो।'कहाँ ,तो सुनील अपनी माँ ,बहनों का लाड़ला ,सारा दिन बैठकर पढ़ाई करता ,उसकी बहनें उसे वहीं गर्म -गर्म खाना लाकर देतीं। यहाँ बुआ उसे बीच -बीच में उठाकर कुछ न कुछ काम बताती रहती। खाना भी ठंडा हो जाता ,उसे तो किसी तरह अपनी पढ़ाई पूरी करनी थी ,इतना पैसा भी नहीं था कि अलग से कमरा लेकर रहे। मजबूरी उससे सब करा रही थी ,साथ ही साथ जिंदगी भी उसे रिश्तों की पहचान करा रही थी। बुआ की बातों ने, उनके व्यवहार ने उसे कमजोर नहीं होने दिया। इससे उसका संकल्प और दृढ़ हो गया।
सफलता के बाद उसने लोगों से मिलना -जुलना कम कर दिया। सुनील अब न ही किसी को अपने घर बुलाता ,न ही किसी से मेलजोल बढ़ाता। अपने काम से काम रखता, कोई भूला -भटका आ भी जाता ,औपचारिकता सी निभाता। किसी ने कहा भी -तुम आते -जाते क्यों नहीं ?फ़ीकी सी हंसकर कहता -रिश्तों का क्या ?सब औपचारिकताये हैं ,सब अपने मतलब से बात करते हैं। फिर कहता -समय ही नहीं मिल पाता ,अब हर किसी के सामने तो अपना दुखड़ा रोया नहीं जाता। एक दिन किसी मित्र ने उसके इस व्यवहार व सोच को महसूस करते हुए पूछा -क्या किसी ने धोखा दिया या किसी ने दिल दुखाया है ?कहा -नहीं ,मेरे हिसाब से जितने भी रिश्ते निभाओ, उन्हें दिल से निभाओ। उसने खूब सारा पैसा कमाया ,मकान बनाया ,मकान क्या ?बड़ी सी कोठी बनाई। लेकिन उसने किसी से मतलब नहीं रखा। अपना ही सुख अपना ही दुःख। अब उसे लगता ,उससे जो भी रिश्ता रखना चाहता है उसके पैसों के कारण ही।
एक दिन वो अपने बच्चों के साथ बाहर घूमने व सामान खरीदने निकला ,बाज़ार में अचानक उसकी मुलाकात उसके गुरूजी से हो गयी। उनसे मिलकर वो बहुत खुश हुआ ,उसके ये ,'वो गुरु थे, जिन्होंने उसे मुफ़्त शिक्षा दी थी, जो उसकी मेहनत व पढ़ाई के प्रति लग्न देखकर उसे मुफ़्त ही शिक्षा देने के लिए तैयार हो गए थे।उसने गुरूजी को अपने बच्चों व अपनी पत्नी से मिलवाया।सुनील, गुरूजी व बच्चों को एक मॉल में ले गया। वहाँ बातचीत करते हुए, गुरूजी ने उसके परिवार के विषय में पूछा -उसने कहा -अब वो किसी से भी, कम ही संबंध रखता है ,माता -पिता रहे नहीं ,बहनें अपने -अपने घरों में हैं ,वैसे उनसे भी मेरी बहुत दिनों से बातें नहीं हुईं, बाक़ी रिश्तों के लिए समय ही नहीं मिलता। सब मतलबी हैं ,अपने मतलब से ही बातें करते हैं। उसने अपने जीवन का दर्शन सुनाया। ये बात गुरूजी को अच्छी नहीं लगी किन्तु चुप रहे। फिर वो बच्चों से बातें करने लगे। गुरूजी ने पूछा -बच्चों !बताओ आप कौन -कौन सी कक्षा में पढ़ते हो ?उन्होंने बताया - मैं' फर्स्ट' में और दीदी' थर्ड' में बेटे ने बड़ी मासूमियत से जबाब दिया। गुरूजी ने फिर पूछा -आपके घर में कौन -कौन हैं ?उन्होंने कहा -हम और मम्मी -पापा। छोटे जबाब से गुरूजी संतुष्ट नहीं हुए और कौन -कौन हैं ?बच्चे चुप हो गए। बुआ ,मौसी, ताऊ -चाचा गुरूजी ने पूछा। हाँ ,कभी -कभी मौसी का फ़ोन आता है। गुरूजी ने सुनील की तरफ देखा -क्या अपनी बहनों को भी भुला दिया ?क्या ये ही संस्कार दे रहे हो तुम, अपने बच्चों को ?इन्हें रिश्तों की भी जानकारी नहीं ,बहनें तो तुम्हारी अपनी हैं ,अपना ख़ून ',इन रिश्ताें को कैसे झुठला सकते हो' ?
पिता के जाने के बाद ,कभी अपनी बहनों की खबर ली कि वे कैसी हैं ?ख़ुश या दुःखी। ये तो तुम्हारी जिम्मेदारी बनती थी। जब तुम परेशानी में थे ,क्या वो तुम्हारे साथ नहीं थीं ?उसकी पत्नी और बच्चे मॉल में घूमने चले गए। तब गुरूजी समझाने लगे -तुम्हारा ये दर्शन मुझे पसंद नहीं आया। तुम सोचते हो ,सब तुम्हारे पैसों के पीछे हैं। यदि मैं भी पैसों के पीछे होता तो तुम्हारे पढ़ाई की लग्न को देखकर मैं बिना फ़ीस लिए तुम्हें क्यों पढ़ाता ?रही बात रिश्तों की या रिश्तेदारों की , किसी ने मदद नहीं की, कुछ ने तो की होगी। माना कि कुछ लोग या रिश्ते ग़लत निकल जाते हैं जिनसे उम्मीद होती है वे मदद नहीं कर पाते और जिनसे उम्मीद नहीं होती वे मदद कर जाते हैं। ये ही जीवन है। सभी रिश्तों को तुम एक ही लाइन में खड़ा नहीं कर सकते।इन रिश्तों से ही सुरक्षा की भावना आती है ,कि हम अकेले नहीं हमारा भरा -पूरा परिवार है।
अब तुम ही बताओ !तुम भी तो किसी न किसी रिश्तों से जुड़े हो। तुम अपने -आप को टटोलो तुमने ही कब -कब ,कहाँ -कहाँ,किसकी मदद के लिए हाथ बढ़ाया? तुम्हारे लिए भी तो और रिश्ते ऐसे ही सोच सकते हैं। दूर ही नहीं ,पास के रिश्ते ही लो ,तुम्हारी अपनी सगी बहनें भी तो यही सोच सकती हैं ,कि आज भाई क़ामयाब हो गया तो उसे रिश्ते मतलबी नज़र आने लगे। रिश्ते क्या हैं ?हम -तुम से ही तो मिलकर बने हैं।परिवार में रहकर आदमी सुरक्षा ,रीति -रिवाज़ ,परम्पराओं को मानना और अपने से बड़ों का मान -सम्मान ,हर रिश्ते की मर्यादा का पालन करना सीखता है वरन सभी अपने -अपने तरीक़े से जीना चाहते हैं, कोई क्यों किसी से मतलब रखना चाहेगा ? मानों तो सब अपने ही तो हैं ,न मानों तो कोई अपना नहीं। तुम घोंघे मत बनो !जो अपने ही खोल में रहता है और उसी खोल को ही पीछे लादे घूमता है ,उसी से अपने को सुरक्षित महसूस करता है। इतना पैसा कमाया ,बच्चों के सुखी भविष्य के लिए ,क्या तुम भगवान हो ?उनका भविष्य जानते हो। तुम्हारे पिता के पास तो पैसा भी नहीं था लेकिन तुममें कुछ करने की लग्न थी तो क़ामयाब हुये न। जैसे परेशानी तुमने झेलीं ,बच्चों को न झेलनी पड़ें। वो अच्छा है लेकिन अपने इस खोल को उतारो! जिसके बोझ तले तुम दबे हो। जिंदगी खुबसूरत नजर आएगी। वैसे मैं बताना चाह रहा था कि तुम्हारी छोटी बहन को मैंने बड़ी ही परेशानी में देखा था। मैंने पूछा भी, लेकिन उसने कुछ नहीं बताया। आज तुम मिल गए तो बता रहा हूँ ,वैसे एक सप्ताह बाद रक्षा बंधन भी है ,तुम चाहो तो ,भूले और भटके रिश्तों को एक और मौका दे सकते हो।
गुरूजी तो चले गए लेकिन आज उसे फिर से जीवन जीने का गुरु मंत्र दे गए उसके सीने से जैसे बोझ उतर गया हो। आज उसने महसूस किया ,जीवन कितना है ?उसे भी खुलकर न जी पाओ तो भगवान को क्यों दोष देते हो ?अब वो अपने रिश्तों को एक और मौका देने के लिए तेेयार था।
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