किसी की अर्धांगनी हूँ ,माँ हूँ ,बेटी हूँ।
मर्दों के बनाये ,इस समाज की नीँव हूँ।
फिर भी' मैं 'अपना अस्तित्व ढूंढती हूँ।
बेटी थी ,सोचती थी ,भाई के बराबर होऊं।
पापा की लाड़ली थी ,अधिकार भाई का था।
मैं अपना अस्तित्व ढूंढती हूँ।
पत्नी बन ढूंढती रही ,अपना अधिकार।
खूब लड़ी, जिंदगी से अपनी लड़ाई ,
एक औरत ने ही की ,औरत की रुसवाई।
ढूंढती हूँ, उस घर में कोना ,जो हो मेरा अपना।
उस कोने में अपना 'जहान' ढूंढती हूँ।
उस घर ही नहीं ,इस घर में भी अपना अस्तित्व ढूंढती हूँ।
दोनों घरों का मान' मैं 'फिर भी न लगता कोई अपना।
ढूंढती हूँ ,दिनभर की मेहनत के बाद ,
मेरा मन ,दिल प्यार से हो आबाद।
अपनी ही परछाई ,अपनी ही मूरत में ,
मैं अपने आप को ढूंढती हूँ ,
मैं बच्चों में अपना अस्तित्व ढूंढती हूँ।
संस्कारों में' मैं 'परम्पराओं में' मैं '
रीति -रिवाजों की डोर से बंधी ,उलझती।
सुलझती ,सुलझाती ,मैं 'अपना' मक़ाम' ढूंढती हूँ।
बच्चों के दिल में ,अरमानों में ,सपनों में ,
सपनों की दुनिया में गुम ,मैं अस्तित्व ढूंढती हूँ।
जिंदगी की नई ताज़गी के बीच ,
हवा के नए ,झोकों में ,मंद मुस्कान में ,
सपनों सी इस जिन्दगी के, वो पल ढूंढती हूँ।
ठुमकती ,किलकारियों में ,मैं अपना बचपन ढूंढती हूँ।
अपने हमसफ़र की निगाहों में' ख़ुमार' ढूंढती हूँ।
न जाने ,कब सफ़र तय किया ?या हुआ।
सब कुछ छलावा लगता है ,जिंदगी की कैद में बंधी ,
आज़ादी ढूंढती हूँ।
इतनी चादरों के बीच मायके से आया ',कफ़न 'ढूंढती हूँ।
मैं 'अपना अस्तित्व ढूंढती हूँ।