'समझ नहीं आ रहा ,आजकल की बहुओं को क्या हो गया ?अपनी -अपनी चलाती हैं, न ही कहना मानती हैं ,न ही किसी बात पर ध्यान देती हैं ,न ही सुनती हैं।' रीना ,आज राखी बाँधने अपने घर आयी है ,राखी बांधने के बाद भाई तो अपने काम पर गया और भाभी भी अपने किसी काम में लग गई। रीना के पति शाम को चलने का कहकर, ऊपर वाले कमरे में लेटकर कबड्डी का खेल देख रहे हैं । दोनों माँ -बेटी रह गयीं तो सुधाजी को बुरा लगा, कि मेरी बेटी इतने दिनों बाद अपने घर आई है और अकेली बैठी है ,इस कारण उन्हें अपने मन की भड़ास निकालने का मौका मिल ही गया। सुधाजी ,बता रही थीं -'तेरी भावज ,बस रोटी बनाएगी ,बाक़ी सारा काम ऐसे ही छोड़कर न जाने कौन -कौन से कामों में लगी रहती है ?न ही साफ -सफ़ाई पर ही ध्यान देती है ,न ही घर में इतने काम होते हैं, किसी पर भी ध्यान नहीं देती। ''फिर वो अपने ज़माने की यादों में खो गयीं -''हम अपने समय में कितने काम करते थे ?सिर पर पल्लू और घर की साफ -सफ़ाई ,खाना ,बर्तन ,कपड़े और बच्चों को पालना।हमने अपने बड़ों को कभी पलटकर जबाब नहीं दिया । काम में ही सारा दिन निकल जाता था, पता ही नहीं चलता था कि कब रात हो गयी ?अब तो बर्तन ,झाड़ू -पोछे के लिए तो कामवाली आ जाती हैं ,तब कौन लगाता था कामवाली ?सब काम अपने -आप ही करने होते थे।
ये ही सब पढ़ाई के साथ -साथ घर के सारे काम हमने अपनी बेटियों को भी सिखाये ,अपनी बेटी के सिर पर गर्व से हाथ फेरते हुए सुधाजी ने कहा। माँ के मुँह से अपनी प्रशंसा सुनकर एक क्षण को तो रीना प्रसन्न हुई किन्तु दूसरे ही क्षण उसका चेहरा उतर गया ,बोली -माँ इतना सब करने के बाद भी मेरी सास आज तक मुझसे प्रसन्न नहीं हुई। थोड़ी देर के बाद ही उसे अपनी भाभी चाय की ट्रे लेकर अपनी ओर आती दिखाई दी -'लो दीदी चाय पी लो' कहकर उसने ट्रे मेज़ पर रख दी। ननद को जैसे मौका मिल गया अपनी माँ की शिकायतों को ध्यान में रखते हुए ,अपनी बातें बताने का। ये सोचकर वो अपनी बातें बताने लगी ,शायद मेरी बातें या परेशानी सुनकर भाभी को भी थोड़ी अक्ल आ जाये कि दुनिया में ऐसे भी लोग हैं जो किसी की भावनाओं की क़द्र नहीं करते और हम जैसे भी हैं जो उनसे निभाते हैं। और तुम्हें तो इतनी अच्छी ससुराल मिली है फिर भी तुम दूसरों की भावनाओं की क़द्र नहीं करती। रीना ने इसी उद्देश्य से अपनी कहानी अपनी भाभी और माँ के सामने रखी।
पता है, भाभी हम तो रसोईघर में बिना नहाये घुस ही नहीं सकते थे। सुबह जल्दी उठकर घर की साफ -सफाई के बाद नहाकर रसोईघर में घुसते ,सबके लिए नाश्ता बनाकर खिलाने के बाद नाश्ता मिलता ,चाहे कितनी भी भूख क्यों न लगी हो ?आपको पता है भाभी !मुझे सुबह भूख जल्दी लगती थी लेकिन ये लोग दस -ग्यारह बजे से पहले खाते ही नहीं थे। उस बात को याद करके रीना की आँखें थोड़ी नम हो गयीं, बोली -मैं रात की बासी रोटी चुपचाप अपने कमरे में लाकर उसे खाती थी। और न जाने कितने 'दर्द भरे किस्से' माँ -बेटियों ने सुना डाले।उन किस्सों को याद कर कभी रोयीं ,कभी मुस्कुराई। हमने ऐसा किया ,वैसा किया। उनके अपने ऊपर बीते किस्से थे, सबमें कहीं न कहीं कोई दर्द छिपा था। किरण चुपचाप उनकी बातें सुनती रही ,फिर किरण ने देखा कि दोनों माँ -बेटी अपने किस्सों में इस कदर उलझ गयीं हैं ,उन्हें समय का भी ध्यान नहीं। किरण बोली - दीदी यदि आज आपकी सास से पूछें कि आपने इतना काम किया या इतनी परेशानियाँ उठाई तो क्या वो स्वीकार कर लेंगी? पहली बात तो वो स्वीकार ही नहीं करेंगी ,कर भी लिया तो कहेंगी -''हम पर क्या एहसान किया ?दुनिया की बहुएँ करती हैं।तुमने क्या कुछ अनोखा काम किया। घर की बहुओं को तो अपनी जिम्मेदरियों का एहसास होना चाहिए। अपने समय में हमने भी किया ,उनके अपने पास भी न जाने कितने किस्से होंगे ?
आपने उस घर -परिवार के लिए अपना सुख, अपने सपने सब छोड़ दिए होंगे आपके कथनानुसार रीना को लगा, शायद भाभी मेरा मज़ाक बना रही है। भाभी ने कहना जारी रखा ,फिर रीना से पूछा -क्या ये सब उनकी नजरों में भी है -आपका त्याग ,आपकी मेहनत, क्या वो सब बात की कदर करते हैं ?एक सप्ताह पहले जीजाजी आये थे, कह रहे थे -''हम तो उससे कहते नहीं ,अपने आप ही लगी रहती है। न ही अपना ध्यान रखती है। उनकी बातों से साफ झलक रहा था कि उनके लिए आपके काम ,मेहनत का कोई मूल्य नहीं है ,होता तो, ये भी कह सकते थे कि जब से आई है ,हमारा घर संभाल लिया,सारा दिन बच्चों में लगी रहती है या बड़ी ही जिम्मेदारी के साथ हमारे घर -परिवार को संभाला। क्या आपकी सास ने आपसे कभी खुश होकर कहा- कि हमारी बहु बहुत ही मेहनती ,सुघड़ और घर को सुचारु रूप से चलाने वाली है।मम्मी जी अब आप बताइये -कभी आपकी सास आपसे खुश हुईं ?सुधाजी किसी दार्शनिक की तरह बोलीं -हमने तो अपनी जिम्म्मेदारी समझकर ,घर की एक जिम्मेदार सदस्य होने के नाते काम में हाथ बँटाया। भाभी ने प्रश्न किया -तो क्या आपकी सास आपसे प्रसन्न थीं? सुधाजी बोलीं -उन्हें तो हमारा काम ही काम नहीं लगता था कहतीं थी -''ऐसे घरों के छोटे -मोटे काम तो मैं चलती -फिरती कर लूँ,ये भी कोई काम होते हैं। पहले घरों में चक्की होती थी, सुबह -सुबह उस पर आटा पीसते थे लेकिन मैं घर के अन्य सारे काम करती पर चक्की नहीं चलाती थी ,इसी बात से नाराज रहतीं। चाहे मैं दोगुना काम क्यों न कर लूँ। दीदी और मम्मीजी! अब आप बताइये, मैं क्या काम नहीं करती ?लेकिन काम के साथ -साथ मैं अपनी इच्छाओँ को भी पूरा करती हूँ ,अपना ध्यान भी रखती हूँ ,तो मैं क्या ग़लत कर रही हूँ ?यदि मैं सारा दिन भी इस घर में लगी रहती ,तब भी मम्मीजी को मुझ से शिकायत होती किसी न किसी बात को लेकर।
मुझे शिकायत होती ,कि मैं सारा दिन घर की जिम्मेदारियों में ही फंसी रहती हूँ, फिर भी कोई ख़ुश नहीं। अब मैं, कोई भी जरूरी काम है, उसे करती हूँ ,अपनी इच्छाओं का भी मान रखती हूँ। इससे मेरा मन भी शांत रहता है। मन में किसी भी प्रकार की बेचैनी अथवा जीवन में कुछ न कर पाने की कुंठा नहीं है। मम्मीजी ने काम किया ,पूरी जिंदगी दी, दूसरों की इच्छाओं व भावनाओँ का मान करते -करते जीवन गुजार दिया। क्या आज तक किसी ने प्रशंसा के दो शब्द भी बोले -कि सुधाजी ,ने अपना घर संभालने में बड़ी मेहनत की ,बस आपकी अपनी यादें हैं और आप ही उन्हें याद करतीं हैं। इसी तरह आपने दीदी को भी बना दिया। सारी जिंदगी काम किया। अपनी बीमार सास की कई सालों तक सेवा की ,अपनी इच्छायें दबाई ,कभी अपना ध्यान नहीं रखा परिणामस्वरूप उन्हें कई छोटी -मोटी बीमारियों ने घेर लिया घर का सारा बोझ उनके ऊपर है, अब उतना काम नहीं ,होता फिर भी करना पड़ता है तो चिड़चिड़ी हो गयीं। अब जीजाजी को भी इनकी हरकतों से, काम से गुस्सा आता है और सास तो कभी ख़ुश थी ही नहीं तो अब आप ही बताइये ऐसी जिंदगी जीने का क्या लाभ ?न ही अपने -आप को ख़ुश रख सके न ही दूसरों को।
बहु का इस तरह बोलना उन्हें समझाना सुधा जी को अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन बात तो बहु सही कह रही थी। अभी वो बोल ही रही थी और वे सुने जा रही थीं -''दिनभर काम ही काम रहता है ,इस तरह जबरदस्ती काम में लगे रहे, तो जिंदगी बोझ नज़र आने लगती है। मैं काम करती हूँ ,उसकी कोली नहीं भरती। जितना जरूरी है, उतना कर लेती हूँ। कौन सा ज्यादा काम करके मुझे 'गोल्ड मैडल' मिल जायेगा। फिर मेरे पास भी यही किस्से होंगे और ये किस्से हम अपने -आप को ही सुनाते रहते हैं ,पछताते रहते हैं। ,दूसरा कोई सुनना भी नहीं चाहता, बस हम सुनाते रहते हैं -''हमने ये किया ,हमने वो किया। 'किन्तु भाभी ये बात भी तो सही नहीं है कि अपनी मनमर्ज़ी करते रहो, किसी की भावनाओं या इच्छाओं का मान ही न रखो' रीना बोली। नहीं दीदी ऐसा है ,मैं मम्मी -पापा को समय पर खाना ,चाय वगैरह का पूरा ख़्याल रखती हूँ। आप पूछ सकती हैं ,मम्मीजी से। हाँ बस मैं और सब काम अपनी सुविधानुसार करती हूँ जो मम्मीजी को अच्छा नहीं लगता। दीदी आप ऊपर जाकर देख सकती हैं, मैंने कैसी पेंटिंग बनाई है ?सुना है कि आप भी पहले बहुत अच्छी पेंटिंग बनातीं थीं।ऊपर से आओ तो जीजाजी को भी लेती आइयेगा , तब तक मैं खाना लगा देती हूँ। कहकर भाभी तो चली गयी ,अपना काम करने लेकिन हम माँ -बेटियों के लिए एक उदाहरण छोड़ गयी थी, जिंदगी जीने का। बाहर से तो हम स्वीकार नहीं कर पा रहे थे लेकिन अंदर ही अंदर मन कह रहा था कि वो सही है।