कब तक रोते रहोगे ,
पुरानी यादों का रोना।
दिन वो भी थे ,जब कड़ी धूप में,
दो जून रोटी के लिए ,
लगे रहते खेतों में।
हमने देखा ,बच्चे न देखें , वो दिन।
मुँह अँधेरे उठ जाते ,
काम पर लग जाते।
गर्मी और मच्छर से जूझते रात भर।
उनके जीवन का संघर्ष ,
कभी सोचा न होगा।
कितनी धूल ,गंदगी से भरी थी जिंदगी।
धुएँ से मिचमिचाती ,आँखों से टपकता पानी।
तब जाकर मिलती थी ,माँ के हाथों की रोटी
न ए सी की ठंडक ,न फ्रिज का पानी ,
बड़े पर्दे की फिल्में ,मार्बल पर चलना ,
उनके ख्वाबों में भी न थी ,ये जिंदगानी।
मजबूर थे ,मजबूरी में एक थे।
प्यार कम ,गुस्सा अधिक था।
फिर भी ,छलकता अपनापन था।
कविताओं में ,यादों में ,सब अच्छा लगता है।
क्या ,वो ही जीवन ,कोई जीना चाहता है ?
आज को जियें ,बेहतर जियें।
वो अपनापन आज भी है ,
अपनापन बाँटना तो सीखें।
अलसाई सुबह त्याग ,हरियाली सींचे।
रिश्तें आज भी वही हैं ,जो कल थे।
उन रिश्तों से बचना नहीं ,अपनाना सीखें।
आज खाना बनता नहीं ,आता है
प्यार से बनायें अपनों के लिए ,
तभी माँ के हाथों से बना मिलता है।
स्वार्थ से नजरअंदाज किया ,
अपने हाथों रिश्तों को बर्बाद किया।
बीती बातों को याद कर ,
अपनी ही बातों को खोते हो ,
क्यूँ यादों को रोते हो ?