व्यक्ति जिंदगी में न जाने कितने सपने देखता है ,लेकिन कभी पूरे होते हैं कभी नहीं। सपने पूरे करने के लिए वो हर सम्भव प्रयास करता है। परिवार ही होता है जो कि उन सपनों को पूरा करने में उसकी मदद करता है ,और परिवार के लिए ही वो अपने सपनों की कुर्बानी भी दे देता है। परिवार के लिए ही जीता है ,और मरता भी है। छोटी -छोटी जरूरतों से लेकर जीवन की शुरुआत करता है। जीवन के मधुर सपने संजोये ,अपना हर पल परिवार की खुशियों के नाम करता है। परिवार बढ़ता है ,एक वृक्ष की तरह फलता -फूलता है ,उस परिवार को देख खुश होता है कि जीवन भर जो परिश्रम किया ,वो आज सामने आ रहा है। परिवार संस्कार पूर्ण हो तो'' सोने पर सुहागा''।
सभी माता -पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे संस्कारी ,आज्ञाकारी हों ,लेकिन समय परिवर्तनशील है ,समय के साथ -साथ लोगों की विचार धारा में परिवर्तन होता रहता है। पहले बच्चे माता -पिता की आज्ञा का पालन करते थे। यदि किसी गलती पर माँ पिटाई भी कर देती थी या नाराज़ हो जाती थी तो भी बच्चा पीटने के बाद भी अपनी माँ के आँचल से लिपट जाता था। माँ या बेटे का गुस्सा भी क्षणभंगुर होता था। माँ अपने बेटे के बिना नहीं रह पाती थी ,बेटा भी माँ के बिना नहीं रह पाता था। आज कल तो एवेंजर्स का जमाना है। सब आधुनिक हो गए ,संस्कार पिछड़ गए। यदि बच्चों से उम्मीद रखो कि बच्चे हमारा कहना माने ,हमारे बताये रास्ते पर चलें तो यह अपने आप को समझाना है, या गलतफ़हमी पालना है। बच्चों का सवाल होता, कि हम इंसान हैं कोई पालतू नहीं। आप कहें इधर बैठो तो उधर बैठें ,ये देखो ,वो मत देखो। हमारा अपना भी जीवन है अपनी सोच है। ये जबाब सुनकर ,हमने सोचा क्या हम समय से पिछड़ गए? या हमने बच्चों को ज्यादा छूट दे दी क्योंकि बच्चों से ऐसे जबाब की उम्मीद जो नहीं थी।
एक उम्र गुजर जाने के बाद एहसास होता है ,जिस बग़िया को हम खून -पसीने से सींच रहे थे वो तो अपनी कभी थी ही नहीं। मात्र भम्र था ,जो काफी देर बाद टूटा। मन निराशा के गर्त में चला जाता है। किस लिए जी रहे हैं ,किसके लिए ?मन चीत्कार कर उठता है। एक उम्र के बाद एहसास होता है कि जिस उम्र में हमें अपना जीवन खुलकर स्वेच्छा से जीना था, उस उम्र को तो हम कब के पीछे छोड़ आये ?उस उम्र में तो हम जिम्मेदारियों को ,संस्कारों को जीने की कोशिश करते रहे। इसी कोशिश में न जाने उम्र के कितने पड़ाव पार किये। सोचा था कि अपने बच्चों को भी वो ही संस्कार देगें,अपनी उन्हीं परम्पराओं को निबाहेंगे।
बच्चों ने तो हमें ही एहसास कराया ,हमने जिंदगी जी ही कब थी ?सिर्फ एक ढर्रे पर चलते रहे जो बड़ों ने सिखाया माना। उसमें अपनी इच्छा कहाँ थी ?अपने द्रष्टिकोण से कभी, न ही देखा ,न ही सोचा। हमने जिंदगी को जिया ही कब ?उसे दूसरों के नजरिये से देखते रहे। अपनी तो कोई सोच ही नहीं थी। कभी अपने लिए सोचा ही नहीं। दूसरों के लिए जीना उत्तम हैे लेकिन अपना मन भी टटोलकर देखने में क्या बुराई है ?कभी -कभी छोटे भी बड़ों को जिंदगी का सबक सीखा जाते हैं। बहुत समय बाद काफी हल्का महसूस हो रहा था। दिमाग पर जो जिम्मेदारियों का बोझ था वो छँट रहा था। शरीर हल्का महसूस हो रहा था। लग रहा था कि संस्कार पिछड़े नहीं परिस्कृत हो गए हैं।जिम्मेदारियों के नीचे अपने को इतना दबा लिया था कि स्वेच्छा से अपने लिए कभी कुछ सोचा ही नहीं ,ऐसा ही बच्चों से भी चाहा। जब बच्चों ने एहसास कराया कि जब समय आएगा तो जिम्मेदारी भी पूरी करेंगे। दिमाग में जबरदस्ती जिम्मेदारी के बोझ से नहीं मरना है।

