मास्टरज़ी के घर सारा सामान फैल रहा था ,सामान को डिब्बों में पेटियों में रखा जा रहा था। तभी उनके पड़ोसी मिश्राजी आ पहुंचे। सामान फैला देखकर मिश्राजी बोले -क्या शर्मा जी ! कहीं जा रहे हैं ?आपने तो कभी ज़िक्र भी नहीं किया। सामान की तरफ देखकर-'' क्या सामान सहित ही जा रहे हैं ?शर्मा जी बोले -हाँ भई ,अब सेवा निवृति में कुछ ही साल बाकी हैं ,आपको तो पता ही है, कि हम गांव में अपना मकान ठीक करा रहे थे ,अब वो बनकर तैयार हो गया। सोचा, क्यों न अपने गांव चला जाये। क्या ,जमा -जमाया घर छोड़कर, अपने दोस्तों को छोड़कर, कैसे इस तरह चले जायेंगे ?मिश्राजी अपनेपन के साथ अधिकार से बोले। बच्चों की पढ़ाई उनके रोजगार के विषय में भी कुछ सोचा है, उन्होंने जिज्ञासा वश पूछा। शर्माजी बोले- होना क्या है ?बच्चे अब बड़े गए हैं ,छोटा कॉलिज जाता है , वो अब भी मोटरसाइकिल से जाता तब भी चला जायेगा। हमारे गांव से नजदीक ही है उसका कॉलेज।
अपनी खेती -बाड़ी भी देखनी है, बिना नजर रखे कोई काम नहीं करता ,पहले तो पिताजी थे अब उनके बस का नहीं रहा ,उम्र भी हो गई है उनकी। अब उन्हें हमारी भी जरूरत है। बच्चे भी समय से ही अपनी जिम्मेदारी समझेंगे। इसीलिए आपने यहाँ मकान नहीं बनवाया था ,मैंने कई बार आपको जगह दिखाई थी ,बस आप मना ही करते रहे जैसे कोई बड़ी पहेली सुलझाई हो उन्होंने, मिश्राजी इस मुस्कान के साथ बोले। हाँ भई !यहाँ कोठी बनाने का तो बजट नहीं था शहर में तो हर चीज मोल की होती है। घर के खर्चों से अलग मैं कोई दो कमरों का मकान ही किश्तों पर ले सकता था। वैसे तो किराया भी यहाँ कम नहीं ,वो तो मेरे जानने वाले ने बहुत पहले दिलवाया था और मकान मालिक के बेटे को भी मैंने पढ़ाया था। इस शर्म से मुझसे किराया भी कम लिया था वरना आप तो जानते ही हैं ,आजकल के किराये के बारे में। मध्यमवर्गीय परिवार किराया दे, घर के और खर्चे करे या फिर मकान बनवाये। हमारी हालत तो ऐसी है न ही भीख मांग सकते हैं न ही खुलकर जी सकते हैं। ख़ैर छोडो, इन बातों को ,चाय बन गयी है ,लीजिये चाय पीजिये। तभी शर्मा जी की पत्नी चाय रखकर चली गई।
चाय पीते हुए शर्मा जी बोले -हमने तो पहले ही सोच लिया था कि सेवानिवृत्ति के बाद गाँव ही जाना है। अब आप ही बताओ ,शहर में हम किसलिए आये ?रोजगार के कारण। कुछ साल बाद रोजगार ही नहीं रहेगा तो यहाँ रहने से क्या लाभ ? गाँव में अपनी खेती है ,उसे सम्भालेंगे। फिर भी बच्चे गाँव में कहाँ रह पाएँगे? मिश्राजी ने अविश्वास साथ कहा। क्यों नहीं रह पाएँगे ?शहर में हम क्यों रहते हैं ?रोजगार है ,पानी ,बिजली की सुविधाएं हैं ,जब यही सुविधाएँ हमें गाँव में मिल जायें तो फिर गाँव में रहने में क्या परेशानी है ?अब मेरी नौकरी तो रहेगी नहीं ,गाँव में मैंने पानी के लिए समर सेबल लगवा दिया है और बिजली के लिए इन्वर्टर की सुविधा की है ,यहाँ भी तो इन्वर्टर का ही प्रयोग करते हैं। और भी सुविधाएं धीरे -धीरे पूरी हो ही जायेंगी। सब कोई गांव छोड़कर शहर की तरफ रुख़ कर रहे हैं तो गांवों में कैसे तरक़्की हो ?शहरों में अधिक भीड़ और पर्यावरण दूषित होता जा रहा है। जो लोग रोजगार के लिए शहरों में आते हैं ,उनकी तो मजबूरी है। कमायेंगे नहीं ,तो खायेंगे क्या ?
रोजगार नहीं तो, क्यों शहर में भीड़ करनी। शहर में भी तो अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। दो छोटे -छोटे कमरों का घर ,और अब तो फ्लैट हो गए ,न ही उनमें छत मिलती है नीचे जाने के लिए लिफ़्ट ,घर के आगे छोटा सा बगीचा उसमें भी लोगों को घूमने की फुरसत नहीं। दो या तीन कमरों के मकानों में सारी उम्र निकल जाती है। बच्चों को भी वैसे ही आदत पड़ जाती है। माता -पिता लाखों -करोडों कमाने के फेर में रात -दिन लगे रहते हैं। उसके साथ भी अन्य खर्चे लगे रहते हैं ,पूरी जिंदगी किस्तें ही चुकाते रहते हैं । ये सोचो ,कि वो आधे से ज्यादा तो उधार की जिंदगी जी रहा होता है। इसीलिए वो अन्य किसी रिश्तों से मतलब नहीं रखना चाहता।
जब हम गाँव जायेंगे तो दो मंजिला मकान है उसका आंगन ही इतना बड़ा है कि बाहर सड़कों पर घूमने की आवश्यकता ही नहीं ,ताजे फ़ल -सब्जियाँ हमने घेर में पहले ही लगा दी थीं। उस दिन जो सब्जियाँ हमने आपके घर भिजवाईं थीं वो आपने ही घर की ही तो थीं। हमारा गाँव तो शहर के नजदीक ही है ,बच्चे तो साइकिल से भी यहाँ आ सकते हैं। जब इतने फायदे हैं तो आपने क्यों नहीं की ,वहीं रहकर नौकरी? मिश्राजी बोले। शर्मा जी ने कहा -उस समय तो गाँव में सड़क भी कच्ची थी ,अपना हाथ भी तंग था ,देखा नहीं शुरू- शुरू में कितने पैसे मिलते थे ?पहले हल की खेती होती थी ,अब ट्रेक्टर आ गए है ,स्कूल भी हमारा दूर था। सारी बात तो नौकरी की है, किसी बच्चे की दूर नौकरी लगी भी तो तब भी हमें कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। आजकल तो शहर में भी इतनी दूर नौकरी लगती है कि आने -जाने में ही दो -दो घंटे लग जाते हैं ,ऊपर से यातायात के व्यवधान की समस्या अलग।
जब हम गांव में रहेंगे तो गाँव की तरक्की के बारे में भी सोचेंगे। सरकार भी किसानो को प्रोत्साहित कर रही है, फिर क्यों हम शहर में भीड़ और प्रदूषण का कारण बने? मिश्राजी, शर्माजी की बातों से प्रभावित हुए बोले -काश !हमारा भी गाँव होता ,थोड़ी सी ज़मीन थी ,बहुत पहले बेचकर इस मकान में पैसा लगाया था। अब तो यहाँ रहना हमारी मजबूरी हो गई। आप चिंता क्यों करते हैं ,जब भी आपका मन हो अपना घर समझकर चले आइयेगा -कहकर शर्माजी काम में हाथ बटाने लगे और मिश्रा जी अपने घर की ओर चल दिए। एक साल बाद जब शर्माजी के निमंत्रण पर मिश्राजी उनकी बेटी के
विवाह में गए तो उनका रहन -सहन उनका घर -बार देखकर सोचने लगे कि शर्माजी का गाँव लौटने का फैसला सही था।
अपनी खेती -बाड़ी भी देखनी है, बिना नजर रखे कोई काम नहीं करता ,पहले तो पिताजी थे अब उनके बस का नहीं रहा ,उम्र भी हो गई है उनकी। अब उन्हें हमारी भी जरूरत है। बच्चे भी समय से ही अपनी जिम्मेदारी समझेंगे। इसीलिए आपने यहाँ मकान नहीं बनवाया था ,मैंने कई बार आपको जगह दिखाई थी ,बस आप मना ही करते रहे जैसे कोई बड़ी पहेली सुलझाई हो उन्होंने, मिश्राजी इस मुस्कान के साथ बोले। हाँ भई !यहाँ कोठी बनाने का तो बजट नहीं था शहर में तो हर चीज मोल की होती है। घर के खर्चों से अलग मैं कोई दो कमरों का मकान ही किश्तों पर ले सकता था। वैसे तो किराया भी यहाँ कम नहीं ,वो तो मेरे जानने वाले ने बहुत पहले दिलवाया था और मकान मालिक के बेटे को भी मैंने पढ़ाया था। इस शर्म से मुझसे किराया भी कम लिया था वरना आप तो जानते ही हैं ,आजकल के किराये के बारे में। मध्यमवर्गीय परिवार किराया दे, घर के और खर्चे करे या फिर मकान बनवाये। हमारी हालत तो ऐसी है न ही भीख मांग सकते हैं न ही खुलकर जी सकते हैं। ख़ैर छोडो, इन बातों को ,चाय बन गयी है ,लीजिये चाय पीजिये। तभी शर्मा जी की पत्नी चाय रखकर चली गई।
चाय पीते हुए शर्मा जी बोले -हमने तो पहले ही सोच लिया था कि सेवानिवृत्ति के बाद गाँव ही जाना है। अब आप ही बताओ ,शहर में हम किसलिए आये ?रोजगार के कारण। कुछ साल बाद रोजगार ही नहीं रहेगा तो यहाँ रहने से क्या लाभ ? गाँव में अपनी खेती है ,उसे सम्भालेंगे। फिर भी बच्चे गाँव में कहाँ रह पाएँगे? मिश्राजी ने अविश्वास साथ कहा। क्यों नहीं रह पाएँगे ?शहर में हम क्यों रहते हैं ?रोजगार है ,पानी ,बिजली की सुविधाएं हैं ,जब यही सुविधाएँ हमें गाँव में मिल जायें तो फिर गाँव में रहने में क्या परेशानी है ?अब मेरी नौकरी तो रहेगी नहीं ,गाँव में मैंने पानी के लिए समर सेबल लगवा दिया है और बिजली के लिए इन्वर्टर की सुविधा की है ,यहाँ भी तो इन्वर्टर का ही प्रयोग करते हैं। और भी सुविधाएं धीरे -धीरे पूरी हो ही जायेंगी। सब कोई गांव छोड़कर शहर की तरफ रुख़ कर रहे हैं तो गांवों में कैसे तरक़्की हो ?शहरों में अधिक भीड़ और पर्यावरण दूषित होता जा रहा है। जो लोग रोजगार के लिए शहरों में आते हैं ,उनकी तो मजबूरी है। कमायेंगे नहीं ,तो खायेंगे क्या ?
रोजगार नहीं तो, क्यों शहर में भीड़ करनी। शहर में भी तो अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। दो छोटे -छोटे कमरों का घर ,और अब तो फ्लैट हो गए ,न ही उनमें छत मिलती है नीचे जाने के लिए लिफ़्ट ,घर के आगे छोटा सा बगीचा उसमें भी लोगों को घूमने की फुरसत नहीं। दो या तीन कमरों के मकानों में सारी उम्र निकल जाती है। बच्चों को भी वैसे ही आदत पड़ जाती है। माता -पिता लाखों -करोडों कमाने के फेर में रात -दिन लगे रहते हैं। उसके साथ भी अन्य खर्चे लगे रहते हैं ,पूरी जिंदगी किस्तें ही चुकाते रहते हैं । ये सोचो ,कि वो आधे से ज्यादा तो उधार की जिंदगी जी रहा होता है। इसीलिए वो अन्य किसी रिश्तों से मतलब नहीं रखना चाहता।
जब हम गाँव जायेंगे तो दो मंजिला मकान है उसका आंगन ही इतना बड़ा है कि बाहर सड़कों पर घूमने की आवश्यकता ही नहीं ,ताजे फ़ल -सब्जियाँ हमने घेर में पहले ही लगा दी थीं। उस दिन जो सब्जियाँ हमने आपके घर भिजवाईं थीं वो आपने ही घर की ही तो थीं। हमारा गाँव तो शहर के नजदीक ही है ,बच्चे तो साइकिल से भी यहाँ आ सकते हैं। जब इतने फायदे हैं तो आपने क्यों नहीं की ,वहीं रहकर नौकरी? मिश्राजी बोले। शर्मा जी ने कहा -उस समय तो गाँव में सड़क भी कच्ची थी ,अपना हाथ भी तंग था ,देखा नहीं शुरू- शुरू में कितने पैसे मिलते थे ?पहले हल की खेती होती थी ,अब ट्रेक्टर आ गए है ,स्कूल भी हमारा दूर था। सारी बात तो नौकरी की है, किसी बच्चे की दूर नौकरी लगी भी तो तब भी हमें कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। आजकल तो शहर में भी इतनी दूर नौकरी लगती है कि आने -जाने में ही दो -दो घंटे लग जाते हैं ,ऊपर से यातायात के व्यवधान की समस्या अलग।
जब हम गांव में रहेंगे तो गाँव की तरक्की के बारे में भी सोचेंगे। सरकार भी किसानो को प्रोत्साहित कर रही है, फिर क्यों हम शहर में भीड़ और प्रदूषण का कारण बने? मिश्राजी, शर्माजी की बातों से प्रभावित हुए बोले -काश !हमारा भी गाँव होता ,थोड़ी सी ज़मीन थी ,बहुत पहले बेचकर इस मकान में पैसा लगाया था। अब तो यहाँ रहना हमारी मजबूरी हो गई। आप चिंता क्यों करते हैं ,जब भी आपका मन हो अपना घर समझकर चले आइयेगा -कहकर शर्माजी काम में हाथ बटाने लगे और मिश्रा जी अपने घर की ओर चल दिए। एक साल बाद जब शर्माजी के निमंत्रण पर मिश्राजी उनकी बेटी के
विवाह में गए तो उनका रहन -सहन उनका घर -बार देखकर सोचने लगे कि शर्माजी का गाँव लौटने का फैसला सही था।


