आज पड़ोस से आंटीजी आईं थीं ,अपने घर पर आने का निमंत्रण दे कर गईं। कहने लगीं -कभी -कभी घर से बाहर भी निकला करो ,हमारे घर में सत्संग है आना। उनके निमंत्रण पर मैं उनके घर चली गई। बहुत सी अनजान महिलायें थीं ,अच्छा -खासा माहौल था ,सबने भजन गाए उसके बाद गीता पाठ भी हुआ ,उसके बाद प्रसाद वितरण हुआ और सब अपने-अपने घर चले गए। सत्संग होने के बाद कुछ महिलाएं वहीं रह गईं ,उनमे से मैं भी एक थी। मैं वहाँ का माहौल समझने का प्रयत्न कर रही थी क्योंकि वो मुझे सत्संग कम कुछ अधेड़ महिलाओं की किट्टी लगी। वहाँ बैठी महिलायें किसी अन्य महिला के विषय में बातचीत कर रहीं थीं ,जैसे बुराई कर रही हों। मैंने अपनी उत्कंठा मिटाने के लिए पूछा -आप कितने वर्षों से सत्संग में आ रहीं हैं ?उनमें से बोली -दस वर्षों से ,दूसरी ने कहा -आठ बरस ,गुरु बिना ज्ञान नहीं ,कहने लगीं। मैं भी गुरु की तलाश में हूँ जिन्हें देख मन कहे कि हाँ यही है। जिनके लिए मन अपने -आप ही नतमस्तक हो जाए।
उनके घर में मैंने देखा कि उनकी बहु मेरी ही उम्र की थी ,उससे मेरी अच्छी दोस्ती हो गई इस कारण कभी -कभी मैं उनके घर जाने लगी। मैंने देखा ,आंटीजी का एक छोटा पोता भी है। बहु सारा दिन घर के काम में व्यस्त रहती ,इस कारण बहु अपने -आप पर व बेटे पर ध्यान नहीं दे पाती। मैंने पूछा -आंटीजी क्या आप मदद नहीं करतीं ?अपनी बहु की।वो बोलीं -'मैंने अब सब काम छोड़ दिए ,अपना घर -बार स्वयं सम्भालो ,मैं तो अब बस सतसंग में ही रहती हूँ। सुनकर मैं चुप हो गई उनके घर का मामला है। गृहस्थ जीवन से अलग हो गईं हैं ये बात भी सुनने में अच्छी लगी कि घर के किसी कार्य में दखलंदाजी नहीं करतीं। एक दिन मैं उनके ही पास जा बैठी थी कि कुछ ज्ञान की बातें होंगी लेकिन वो सत्संग जाने के लिए तैयार हो रहीं थीं। उनके पोते की बार -बार रोने की आवाज आ रही थी ,तभी मुझे गिरने जैसी आवाज सुनाई दी उनकी बहु की भी तेज़ आवाज़ [लगभग चीखने की ]आई। मैं अतिथि कक्ष से निकल अंदर की तरफ भागी ,देखा उनका पोता ज़मीन पर गिर गया था उसके जो छोटे नए दाँत उगे थे वो उसके होंठ में गड़ गए थे ,जिस कारण उसके होठों से ख़ून बह निकला था। नीता [बहु ]भी बेहद घबराई हुई थी। मैं आंटीजी को उसकी हालत बताने आई तो देखा तब तक वो वहाँ से जा चुकी थीं। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वो उसे देखने भी नहीं आईं ,इंसानियत के नाते ही आ जातीं। तब मेरे मन ने प्रश्न किया -'क्या सत्संग में इंसानियत भी मर जाती है ?आंटीजी रोजाना नियम से सत्संग जातीं ,सत्संग की तरफ से हीबाहर घूमने जातीं ,नई -नई साड़ियों पर फॉल लगते ,अच्छा -अच्छा खाना ,मेवे फ़ल ,मिठाइयाँ इत्यादि। हम हंसकर कह देते -आंटीजी आपके मज़े हैं ,वो भी हंसकर कह देतीं -हाँ ,इसके लिए रोज जाना पड़ता है। एक दिन की बात है ,मैं उनके घर गई तो देखा ,अंकलजी तो बिमार हैं ,मैंने पूछा -कितने दिन से आपकी तबियत खराब है ?बोले तीन -चार दिन हो गए ,बहु से जो बनता है कर देती है ,क्यों आंटीजी नहीं करतीं मैंने पूछा। वो तो सत्संग में जाती है न उनकी आवाज में विवशता थी। मैंने सोचा ,शायद मेरे कहने से रुक जायें लेकिन बोली- नहीं ,आज तो संतों की सेवा करनी है।
तब मुझे एक कहानी याद आई जो अक्सर मेरे पापा सुनाते थे -'एक साधु ने सैकड़ों वर्षों तक तपस्या की ,तप करते समय एक चिड़िया ने उसके ऊपर बींट कर दी। साधु ने क्रोध में आकर उस चिड़िया को देखा ,साधु की नजर चिड़िया पर पड़ते ही ,वो जलकर भस्म हो गई।यह देखकर साधु को अहंकार हो गया कि मुझमें शक्ति है। एक दिन साधु महाराज भिक्षा माँगने निकले ,एक दरवाज़े पर जाकर रुक गए और भिक्षा माँगने लगे। कुछ देर तक इंतजार किया लेकिन उस घर की गृहस्वामिनी नहीं निकली। इंतजार करते हुए जब काफी समय बीत गया तो उन्हें क्रोध आने लगा। जब गृहस्वामिनी भिक्षा लेकर आई तो बोली -माफ कीजिये ,मैं जरा काम में व्यस्त थी। साधु महाराज ने उस महिला को क्रोधावेश में घूर कर देखा। तब महिला बोली -महाराज मैं कोई चिड़िया नहीं जो भस्म हो जाउंगी। यह सुनकर साधु महाराज चौंक गए बोले- यह चमत्कार कैसे हुआ देवी ?वो महिला बोली -जब आप तपस्या में लीन थे तब मैं अपने बीमार पति की सेवा में लीन थी जितनी शक्ति तुमने तप करके प्राप्त की उतनी शक्ति तो मैंने अपने बीमार पति की सेवा करके प्राप्त कर ली। यह देखकर उन साधु महात्मा का अहंकार समाप्त हो गया।
मैं सोचने लगी ,ये केेसा सत्संग है ?जिसमें बीमार पति को छोड़कर सत्संग में सेवा करने जा रहीं हैं। मैंने कहा -आंटीजी जहाँ भी प्रेम भाव से सेवा करो ,वहीं सत्संग होता है ,लेकिन वो मेरी बात पर ध्यान दिए बगैर वहाँ से से चली गईं।
उनकी बहु का आठवां महीना चल रहा था ,बच्चे को संभाले या काम करे। उसे भी किसी सहारे की आवश्यकता थी। आंटीजी जा रहीं थीं ,तीर्थ स्थल में भ्रमण करने। आपके जाने के बाद आपकी बहु का क्या होगा ?बोलीं -गुरूजी ने कहा है कि तुम जीते जी मर जाओ ,जब तुम मर जाओगे ,तब भी तो घर के काम होंगे। बात तो सुनने में सही लगी लेकिन ऐसे कैसे मरा जा सकता है ?अगर हम जीते जी मर जाते हैं ,तो हमारी इच्छाएं क्यों जिन्दा हैं ?इच्छाओं का दमन क्यों नहीं किया ?नई -नई साड़ी पहनना ,स्वादिष्ट व्यंजन खाना ,बालों में रंग लगाना इत्यादि। मैं सोच ही रही थी कि आंटीजी बोलीं -क्या सोच रही हो ?
मैंने कहा -आपके सत्संग में किसी गरीब की सेवा नहीं कर सकते क्योंकि कर्म बनते हैं। यदि सत्संग में सेवा को महत्व देते हैं तो निःस्वार्थ भाव से कहीं भी सेवा की जा सकती है। और यदि प्रेम -भाव है तो मन निर्मल हो जाता है। सबमें उसे परमात्मा दिखना चाहिए ,किसी के प्रति कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। चाहे वो अपना हो या पराया।यदि मनुष्य को ज्ञान हो जाता है क्रोध को तो समाप्त हो जाना चाहिए।आपकी इच्छापूर्ति न हो तो आप क्रोधित हो जाती हैं। ये केेसा सत्संग है ?या फिर किट्टी पार्टी। हर तीसरी महिला गुरु ज्ञान के लिए घूमती रहती है ,न मन में प्रेम रहता है ,न इंसानियत ,न ही सेवा भाव। हर आदमी परेशान घूमता है ज्ञान के लिए ,लेकिन अपने अंदर नहीं झांकता कि वो क्या चाहता है ?परमात्मा को खोजता फिरता है। परमात्मा की बनाई प्रकृति को नकारता है। ज्ञान से तो मन निर्मल ,प्रेममय और पवित्र हो जाना चाहिए। मैं ये सब कहकर अपने घर आ गई क्योंकी मेरे मन में
इतने सालों से जो घुट रहा था ,उसे निकालना जरूरी था।
उनके घर में मैंने देखा कि उनकी बहु मेरी ही उम्र की थी ,उससे मेरी अच्छी दोस्ती हो गई इस कारण कभी -कभी मैं उनके घर जाने लगी। मैंने देखा ,आंटीजी का एक छोटा पोता भी है। बहु सारा दिन घर के काम में व्यस्त रहती ,इस कारण बहु अपने -आप पर व बेटे पर ध्यान नहीं दे पाती। मैंने पूछा -आंटीजी क्या आप मदद नहीं करतीं ?अपनी बहु की।वो बोलीं -'मैंने अब सब काम छोड़ दिए ,अपना घर -बार स्वयं सम्भालो ,मैं तो अब बस सतसंग में ही रहती हूँ। सुनकर मैं चुप हो गई उनके घर का मामला है। गृहस्थ जीवन से अलग हो गईं हैं ये बात भी सुनने में अच्छी लगी कि घर के किसी कार्य में दखलंदाजी नहीं करतीं। एक दिन मैं उनके ही पास जा बैठी थी कि कुछ ज्ञान की बातें होंगी लेकिन वो सत्संग जाने के लिए तैयार हो रहीं थीं। उनके पोते की बार -बार रोने की आवाज आ रही थी ,तभी मुझे गिरने जैसी आवाज सुनाई दी उनकी बहु की भी तेज़ आवाज़ [लगभग चीखने की ]आई। मैं अतिथि कक्ष से निकल अंदर की तरफ भागी ,देखा उनका पोता ज़मीन पर गिर गया था उसके जो छोटे नए दाँत उगे थे वो उसके होंठ में गड़ गए थे ,जिस कारण उसके होठों से ख़ून बह निकला था। नीता [बहु ]भी बेहद घबराई हुई थी। मैं आंटीजी को उसकी हालत बताने आई तो देखा तब तक वो वहाँ से जा चुकी थीं। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वो उसे देखने भी नहीं आईं ,इंसानियत के नाते ही आ जातीं। तब मेरे मन ने प्रश्न किया -'क्या सत्संग में इंसानियत भी मर जाती है ?आंटीजी रोजाना नियम से सत्संग जातीं ,सत्संग की तरफ से हीबाहर घूमने जातीं ,नई -नई साड़ियों पर फॉल लगते ,अच्छा -अच्छा खाना ,मेवे फ़ल ,मिठाइयाँ इत्यादि। हम हंसकर कह देते -आंटीजी आपके मज़े हैं ,वो भी हंसकर कह देतीं -हाँ ,इसके लिए रोज जाना पड़ता है। एक दिन की बात है ,मैं उनके घर गई तो देखा ,अंकलजी तो बिमार हैं ,मैंने पूछा -कितने दिन से आपकी तबियत खराब है ?बोले तीन -चार दिन हो गए ,बहु से जो बनता है कर देती है ,क्यों आंटीजी नहीं करतीं मैंने पूछा। वो तो सत्संग में जाती है न उनकी आवाज में विवशता थी। मैंने सोचा ,शायद मेरे कहने से रुक जायें लेकिन बोली- नहीं ,आज तो संतों की सेवा करनी है।
तब मुझे एक कहानी याद आई जो अक्सर मेरे पापा सुनाते थे -'एक साधु ने सैकड़ों वर्षों तक तपस्या की ,तप करते समय एक चिड़िया ने उसके ऊपर बींट कर दी। साधु ने क्रोध में आकर उस चिड़िया को देखा ,साधु की नजर चिड़िया पर पड़ते ही ,वो जलकर भस्म हो गई।यह देखकर साधु को अहंकार हो गया कि मुझमें शक्ति है। एक दिन साधु महाराज भिक्षा माँगने निकले ,एक दरवाज़े पर जाकर रुक गए और भिक्षा माँगने लगे। कुछ देर तक इंतजार किया लेकिन उस घर की गृहस्वामिनी नहीं निकली। इंतजार करते हुए जब काफी समय बीत गया तो उन्हें क्रोध आने लगा। जब गृहस्वामिनी भिक्षा लेकर आई तो बोली -माफ कीजिये ,मैं जरा काम में व्यस्त थी। साधु महाराज ने उस महिला को क्रोधावेश में घूर कर देखा। तब महिला बोली -महाराज मैं कोई चिड़िया नहीं जो भस्म हो जाउंगी। यह सुनकर साधु महाराज चौंक गए बोले- यह चमत्कार कैसे हुआ देवी ?वो महिला बोली -जब आप तपस्या में लीन थे तब मैं अपने बीमार पति की सेवा में लीन थी जितनी शक्ति तुमने तप करके प्राप्त की उतनी शक्ति तो मैंने अपने बीमार पति की सेवा करके प्राप्त कर ली। यह देखकर उन साधु महात्मा का अहंकार समाप्त हो गया।
मैं सोचने लगी ,ये केेसा सत्संग है ?जिसमें बीमार पति को छोड़कर सत्संग में सेवा करने जा रहीं हैं। मैंने कहा -आंटीजी जहाँ भी प्रेम भाव से सेवा करो ,वहीं सत्संग होता है ,लेकिन वो मेरी बात पर ध्यान दिए बगैर वहाँ से से चली गईं।
उनकी बहु का आठवां महीना चल रहा था ,बच्चे को संभाले या काम करे। उसे भी किसी सहारे की आवश्यकता थी। आंटीजी जा रहीं थीं ,तीर्थ स्थल में भ्रमण करने। आपके जाने के बाद आपकी बहु का क्या होगा ?बोलीं -गुरूजी ने कहा है कि तुम जीते जी मर जाओ ,जब तुम मर जाओगे ,तब भी तो घर के काम होंगे। बात तो सुनने में सही लगी लेकिन ऐसे कैसे मरा जा सकता है ?अगर हम जीते जी मर जाते हैं ,तो हमारी इच्छाएं क्यों जिन्दा हैं ?इच्छाओं का दमन क्यों नहीं किया ?नई -नई साड़ी पहनना ,स्वादिष्ट व्यंजन खाना ,बालों में रंग लगाना इत्यादि। मैं सोच ही रही थी कि आंटीजी बोलीं -क्या सोच रही हो ?
मैंने कहा -आपके सत्संग में किसी गरीब की सेवा नहीं कर सकते क्योंकि कर्म बनते हैं। यदि सत्संग में सेवा को महत्व देते हैं तो निःस्वार्थ भाव से कहीं भी सेवा की जा सकती है। और यदि प्रेम -भाव है तो मन निर्मल हो जाता है। सबमें उसे परमात्मा दिखना चाहिए ,किसी के प्रति कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। चाहे वो अपना हो या पराया।यदि मनुष्य को ज्ञान हो जाता है क्रोध को तो समाप्त हो जाना चाहिए।आपकी इच्छापूर्ति न हो तो आप क्रोधित हो जाती हैं। ये केेसा सत्संग है ?या फिर किट्टी पार्टी। हर तीसरी महिला गुरु ज्ञान के लिए घूमती रहती है ,न मन में प्रेम रहता है ,न इंसानियत ,न ही सेवा भाव। हर आदमी परेशान घूमता है ज्ञान के लिए ,लेकिन अपने अंदर नहीं झांकता कि वो क्या चाहता है ?परमात्मा को खोजता फिरता है। परमात्मा की बनाई प्रकृति को नकारता है। ज्ञान से तो मन निर्मल ,प्रेममय और पवित्र हो जाना चाहिए। मैं ये सब कहकर अपने घर आ गई क्योंकी मेरे मन में


