प्रिये ,वैसे तो तुमने कभी मुझसे प्यार से बात नहीं की ,फिर भी पत्र में तो लिख ही सकता हूँ। मैं जानता था ,कि तुन्हें फिल्में देखना व घूमने का शौक था मेरे न रहने पर भी तुम चली जातीं ,गांव में रहकर यह तुम्हारा व्यवहार लोगों के लिए निंदनीय था। तब तक मैंने रहने का इंतजाम भी कर दिया था ,मैं तुम्हें अपने साथ ले आया। सोचा तुम लोगों से मिलोगी -जुलोगी ,बच्चा होने पर व्यस्त हो जाओगी लेकिन तुम तो बच्चे का बहाना लेकर-' कि मैं अकेली बच्चे को नहीं संभाल सकती। कहकर बच्चे को लेकर गाँव आ गईं। भाभी माँ ने अपने बच्चे की तरह ही उस बच्चे को पाला। दो बच्चे हो जाने के बाद मैंने तुम्हें साथ
चलने के लिए कहा ,लेकिन तुमने मना कर दिया। कुछ वर्ष तो गाँव में रहीं फिर पास के शहर में किस्तों पर मकान लेकर रहने लगीं। बहाना बच्चों की पढ़ाई का बनाया।मैंने सोचा, जैसे तुम्हें ख़ुशी मिले। बच्चे बड़े हो गए ,मैं भी सेवा निवृत हो गया। सोचा, अब दोनों साथ रहेंगे। तुमने मुस्कुराकर इंकार कर दिया -सुनो जी ,तुम गाँव में रहो , खेती देखो ,मैं यहाँ सब संभाल लुँगी। मैं तुम्हारी बातों में आ गया , मैं गांव में ही रहने लगा। जब तुम्हें काम निकलवाना होता तो तुम शहद जैसी मीठी हो जातीं और जब तुम्हें काम नहीं होता तो नीम से भी कड़वी होतीं। मैं तुम्हारा ये चरित्र जान गया फिर भी मैंने नजरअंदाज किया क्योंकि मैं तुमसे प्यार जो करता था।
मैं दस पंद्रह दिन में तुमसे मिलने आ जाता ,तुम गांव का हाल-चाल के साथ मुझसे पेंशन लेतीं और खेती का हिसाब लेतीं और मैं घर आ जाता। बच्चे बड़े हो गए थे वो भी समझने लगे ,दोनों काम बताकर बाहर निकल जाते , कि दो पल हम एक दूसरे के साथ बैठें पर तुम किसी न किसी बहाने से मुझसे दूर रहतीं। कभी -कभी सोचता -क्या इसलिए मैंने तुमसे विवाह किया ?सात वचन लिए ,दो पल भी मैं तुम्हारे साथ बिता नहीं पाता। तुम्हारे जीवन में मेरी जिंदगी का यही अर्थ था ,पैसा ,पेंशन। मुझे नहीं लगता इसके अलावा भी तुम्हारी जिंदगी में मेरा कुछ महत्व भी था ,लगता विवाह के बंधनों को तुम जबरदस्ती निभाए जा रही हो ,फिर सोचा -बच्चों के लिए तो हम जी ही सकते हैं। कई बार तुमसे पूछा भी- कि मेरी कोई गलती है तो माफ करो फिर से हंसी -ख़ुशी जीवन व्यतीत करते हैं ,लेकिन तुमने न भी नहीं कहा ,साथ भी नहीं दिया। धीरे -धीरे वक़्त के साथ भाई -भाभी सभी रिश्ते जाने लगे ,मैं अकेला गांव में अपने सूनेपन से लड़ता -जूझता। मेरी फिर से इच्छा जागी कि तुम साथ हो, मैंने तुम्हें बुलाया -गाँव में आ जाओ ,हम दोनों साथ रहेंगे लेकिन तुमने बहाना बनाकर मना कर दिया।
तुमने जिंदगी में बहुत झटके दिए लेकिन एक बड़ा झटका जब लगा जब तुमको बहु से यह कहते सुना -इनसे प्यार से इसलिए बोलना पड़ता है कि कहीं बिदक गए तो पेंशन गाँव वालों को दे देगें। सुनकर बहुत दुःख हुआ ,तुम्हारी सोच पर। कई दिनों तक मैं आया ही नहीं लेकिन तुम बड़ी चालाक थीं ,तुमने अपने बच्चे आगे कर दिए ,बेटे से फोन करवा दिया। बेटे के कहने पर मैं आ तो गया लेकिन अब तुमसे कोई उम्मीद नहीं थी। तुम्हें पैसे देकर मैं आ गया मेरे इस व्यवहार का भी तुम पर कोई असर नहीं हुआ। तुम्हारा 'मैं' हमेशा हमारे बीच खड़ा रहता ,कभी भी' हम' करके नहीं सोचा। परिस्थिति वश मैं तुम्हारे पास आ ही गया क्योंकि अब शरीर भी धोखा देने लगा था। जिंदगी में इतने धोखे खाये थे कि अब धोखे की आदत पड़ गई थी फिर ये तो शरीर धोखा दे रहा था जो मानसिक रूप से व शारीरिक रूप से कमजोर होता जा रहा था लेकिन तुम्हारी प्रतिदिन मुझे घूरती आँखें ,तुम्हारे मन में तो मेरे प्रति, इंसानियत के तौर पर हमदर्दी भी नहीं थी। तुम्हारे मन में मेरे प्रति इतनी घृणा भरी थी कि जो बेटा मुझसे प्यार करता ,बात करता मेरा सम्मान करता तुम उसके ही खिलाफ हो गईं। बेटे का भी तुम अपने मतलब के लिए उपयोग करने से नहीं चूकतीं। तुम्हारी अवहेलना तुम्हारी टोका -टाकी से मन क्षुब्ध रहता।
कभी - कभी लगता कि जीवन में मैंने कुछ किया ही नहीं। जब अस्पताल में था तो और लोगों को देखकर लगता कि मेरे साथ भी मेरी पत्नी होती उसके लिए जीने की इच्छा होती पर तुम्हारा व्यवहार तो टस से मस नहीं हुआ। एक दिन मेरी रिश्ते की बहन मुझसे मिलने आई तब बोली -भाई ने क्या -क्या नहीं किया परिवार के लिए ?लोग तो अपने परिवार के लिए ही नहीं कर पाते इन्होंने तो दूसरों के लिए भी किया। ग़रीब बेटियों का विवाह कराया ,गाँव में पक्का मकान बनवाया। जहाँ भाई -भाई का दुश्मन होता है इन्होंने अंत समय तक वो रिश्ते निभाए। न जाने किन -किन बातों से उसने मेरे होने का अहसास कराया? तब मुझे एहसास हुआ कि मेरा जीवन व्यर्थ नहीं गया, कुछ काम ऐसे भी हैं जिनके लिए मुझे याद भी किया जा सकता है। शरीर तो नश्वर है ,एक न एक दिन तो जाना ही है पर अब लगता है ,मेरा जीवन व्यर्थ नहीं गया तुमने तो जीते -जी मेरे अस्तित्व पर प्रश्न सूचक चिह्न लगा दिया।
अब मुझे अपने जीवन का मूल्य समझ आया पर देर से। अब तो न जाने ये पंक्षी कब इस पिंजरे से स्वतंत्र हो जाये लेकिन अपने प्रति सम्मान व संतोष है ,अपनी नजरों से मैं गिरा नहीं। आज अचानक तबियत बिगड़ जाने के कारण मैं अस्पताल में हूँ। कई दिन हो गए,यहाँ पड़े -पड़े पूर्ण संतुष्टि की इच्छा से गहरी नींद सोना चाहता हूँ ,बस एक झलक तुम्हें देखने की इच्छा हो आई। मैं यहाँ सूइयों में बिंधा पड़ा ,कभी चेतना लौटती कभी लुप्त होती ,पलकें झपकाकर एक पल दरवाजे की तरफ देखा लेकिन तुम नहीं आयीं। एक आस थी, वो भी लौट गई। ये पत्र शायद तुम्हें मेरे सामान में मिले लेकिन मैं नहीं होऊंगा।
शरीर अब बाहरी व आंतरिक दुखों को झेल नहीं पा रहा लेकिन मेरा मन शांत है। सोचा था -'सात फेरों के साथ जीवन भर साथ निभायेगें। हम साथ -साथ चले लेकिन मिले नहीं। सोच मेरी थी ,साथ निभाने की पर तुम पर कोई पाबंदी नहीं पर आज मैं तुम्हें उन फेरों व वचनों से भी मुक्त करता हूँ। अपनी नजर में तो तुम न जाने कब की आजाद हो चुकी थीं लेकिन दुनिया की नजर में मेरे जाने के बाद पूर्णतः आजाद हो जाओगी। मुझे अब तुमसे कोई गिला -शिकवा नहीं ,तुम अपने परिवार के साथ सदा खुश रहो। न जाने कब? वो गहरी नींद में अनंत में लीन हो गए ,उनके चेहरे पर असीम सुख और शांति थी वे इस शरीर के बाह्र्य व आंतरिक दोनों ही दर्द छोड़कर जा चुके थे।
चलने के लिए कहा ,लेकिन तुमने मना कर दिया। कुछ वर्ष तो गाँव में रहीं फिर पास के शहर में किस्तों पर मकान लेकर रहने लगीं। बहाना बच्चों की पढ़ाई का बनाया।मैंने सोचा, जैसे तुम्हें ख़ुशी मिले। बच्चे बड़े हो गए ,मैं भी सेवा निवृत हो गया। सोचा, अब दोनों साथ रहेंगे। तुमने मुस्कुराकर इंकार कर दिया -सुनो जी ,तुम गाँव में रहो , खेती देखो ,मैं यहाँ सब संभाल लुँगी। मैं तुम्हारी बातों में आ गया , मैं गांव में ही रहने लगा। जब तुम्हें काम निकलवाना होता तो तुम शहद जैसी मीठी हो जातीं और जब तुम्हें काम नहीं होता तो नीम से भी कड़वी होतीं। मैं तुम्हारा ये चरित्र जान गया फिर भी मैंने नजरअंदाज किया क्योंकि मैं तुमसे प्यार जो करता था।
मैं दस पंद्रह दिन में तुमसे मिलने आ जाता ,तुम गांव का हाल-चाल के साथ मुझसे पेंशन लेतीं और खेती का हिसाब लेतीं और मैं घर आ जाता। बच्चे बड़े हो गए थे वो भी समझने लगे ,दोनों काम बताकर बाहर निकल जाते , कि दो पल हम एक दूसरे के साथ बैठें पर तुम किसी न किसी बहाने से मुझसे दूर रहतीं। कभी -कभी सोचता -क्या इसलिए मैंने तुमसे विवाह किया ?सात वचन लिए ,दो पल भी मैं तुम्हारे साथ बिता नहीं पाता। तुम्हारे जीवन में मेरी जिंदगी का यही अर्थ था ,पैसा ,पेंशन। मुझे नहीं लगता इसके अलावा भी तुम्हारी जिंदगी में मेरा कुछ महत्व भी था ,लगता विवाह के बंधनों को तुम जबरदस्ती निभाए जा रही हो ,फिर सोचा -बच्चों के लिए तो हम जी ही सकते हैं। कई बार तुमसे पूछा भी- कि मेरी कोई गलती है तो माफ करो फिर से हंसी -ख़ुशी जीवन व्यतीत करते हैं ,लेकिन तुमने न भी नहीं कहा ,साथ भी नहीं दिया। धीरे -धीरे वक़्त के साथ भाई -भाभी सभी रिश्ते जाने लगे ,मैं अकेला गांव में अपने सूनेपन से लड़ता -जूझता। मेरी फिर से इच्छा जागी कि तुम साथ हो, मैंने तुम्हें बुलाया -गाँव में आ जाओ ,हम दोनों साथ रहेंगे लेकिन तुमने बहाना बनाकर मना कर दिया।
तुमने जिंदगी में बहुत झटके दिए लेकिन एक बड़ा झटका जब लगा जब तुमको बहु से यह कहते सुना -इनसे प्यार से इसलिए बोलना पड़ता है कि कहीं बिदक गए तो पेंशन गाँव वालों को दे देगें। सुनकर बहुत दुःख हुआ ,तुम्हारी सोच पर। कई दिनों तक मैं आया ही नहीं लेकिन तुम बड़ी चालाक थीं ,तुमने अपने बच्चे आगे कर दिए ,बेटे से फोन करवा दिया। बेटे के कहने पर मैं आ तो गया लेकिन अब तुमसे कोई उम्मीद नहीं थी। तुम्हें पैसे देकर मैं आ गया मेरे इस व्यवहार का भी तुम पर कोई असर नहीं हुआ। तुम्हारा 'मैं' हमेशा हमारे बीच खड़ा रहता ,कभी भी' हम' करके नहीं सोचा। परिस्थिति वश मैं तुम्हारे पास आ ही गया क्योंकि अब शरीर भी धोखा देने लगा था। जिंदगी में इतने धोखे खाये थे कि अब धोखे की आदत पड़ गई थी फिर ये तो शरीर धोखा दे रहा था जो मानसिक रूप से व शारीरिक रूप से कमजोर होता जा रहा था लेकिन तुम्हारी प्रतिदिन मुझे घूरती आँखें ,तुम्हारे मन में तो मेरे प्रति, इंसानियत के तौर पर हमदर्दी भी नहीं थी। तुम्हारे मन में मेरे प्रति इतनी घृणा भरी थी कि जो बेटा मुझसे प्यार करता ,बात करता मेरा सम्मान करता तुम उसके ही खिलाफ हो गईं। बेटे का भी तुम अपने मतलब के लिए उपयोग करने से नहीं चूकतीं। तुम्हारी अवहेलना तुम्हारी टोका -टाकी से मन क्षुब्ध रहता।
कभी - कभी लगता कि जीवन में मैंने कुछ किया ही नहीं। जब अस्पताल में था तो और लोगों को देखकर लगता कि मेरे साथ भी मेरी पत्नी होती उसके लिए जीने की इच्छा होती पर तुम्हारा व्यवहार तो टस से मस नहीं हुआ। एक दिन मेरी रिश्ते की बहन मुझसे मिलने आई तब बोली -भाई ने क्या -क्या नहीं किया परिवार के लिए ?लोग तो अपने परिवार के लिए ही नहीं कर पाते इन्होंने तो दूसरों के लिए भी किया। ग़रीब बेटियों का विवाह कराया ,गाँव में पक्का मकान बनवाया। जहाँ भाई -भाई का दुश्मन होता है इन्होंने अंत समय तक वो रिश्ते निभाए। न जाने किन -किन बातों से उसने मेरे होने का अहसास कराया? तब मुझे एहसास हुआ कि मेरा जीवन व्यर्थ नहीं गया, कुछ काम ऐसे भी हैं जिनके लिए मुझे याद भी किया जा सकता है। शरीर तो नश्वर है ,एक न एक दिन तो जाना ही है पर अब लगता है ,मेरा जीवन व्यर्थ नहीं गया तुमने तो जीते -जी मेरे अस्तित्व पर प्रश्न सूचक चिह्न लगा दिया।
अब मुझे अपने जीवन का मूल्य समझ आया पर देर से। अब तो न जाने ये पंक्षी कब इस पिंजरे से स्वतंत्र हो जाये लेकिन अपने प्रति सम्मान व संतोष है ,अपनी नजरों से मैं गिरा नहीं। आज अचानक तबियत बिगड़ जाने के कारण मैं अस्पताल में हूँ। कई दिन हो गए,यहाँ पड़े -पड़े पूर्ण संतुष्टि की इच्छा से गहरी नींद सोना चाहता हूँ ,बस एक झलक तुम्हें देखने की इच्छा हो आई। मैं यहाँ सूइयों में बिंधा पड़ा ,कभी चेतना लौटती कभी लुप्त होती ,पलकें झपकाकर एक पल दरवाजे की तरफ देखा लेकिन तुम नहीं आयीं। एक आस थी, वो भी लौट गई। ये पत्र शायद तुम्हें मेरे सामान में मिले लेकिन मैं नहीं होऊंगा।
शरीर अब बाहरी व आंतरिक दुखों को झेल नहीं पा रहा लेकिन मेरा मन शांत है। सोचा था -'सात फेरों के साथ जीवन भर साथ निभायेगें। हम साथ -साथ चले लेकिन मिले नहीं। सोच मेरी थी ,साथ निभाने की पर तुम पर कोई पाबंदी नहीं पर आज मैं तुम्हें उन फेरों व वचनों से भी मुक्त करता हूँ। अपनी नजर में तो तुम न जाने कब की आजाद हो चुकी थीं लेकिन दुनिया की नजर में मेरे जाने के बाद पूर्णतः आजाद हो जाओगी। मुझे अब तुमसे कोई गिला -शिकवा नहीं ,तुम अपने परिवार के साथ सदा खुश रहो। न जाने कब? वो गहरी नींद में अनंत में लीन हो गए ,उनके चेहरे पर असीम सुख और शांति थी वे इस शरीर के बाह्र्य व आंतरिक दोनों ही दर्द छोड़कर जा चुके थे।


