बचपन में आँख खोलीं लेकिन वो आँचल मेरे पास ,मेरे साथ नहीं था ,जिस आँचल में मेरे लिए प्यार ,अपनापन और दुआएँ होतीं। वो ममतामयी आँचल मेरे लिए नहीं था ,मुझे दूसरे की दी हुई ममता पर जीना पड़ा ,क्योंकि भगवान ने तो मेरे पैदा होते ही मेरी परीक्षा लेनी शुरू कर दी थी। पराये आँचल से ही मैंने ममता का अहसास पाया। उस आँचल में ही मैंने अपनी माँ को ढूढ़ा। माँ तो मुझे किस्से - कहानियों में ही मिली। जिन लोगों से माँ मिली होगी ,वो बताते '-कि मेरी माँ बहुत ही सीधी और अच्छी थी,शायद माँ के ही वो गुण मुझे विरासत में मिले थे। इसी कारण मैं भी उन रिश्तों को खुश करने में रहता जिन्होंने मेरी माँ को दिए अपने वादे को पूर्ण किया। इस बेसहारा जीवन में धीरे -धीरे प्यार ,अपनापन, रिश्तों का मान -सम्मान न जाने कितने रंग भरे।
थोड़ा बड़ा हुआ तो खेती संभाल ली ,दादा ने डांट पिलाई- कि तू खेती नहीं करेगा ,पढ़ाई करेगा ,खेती तो हम दोनों भाई ही संभाल लेंगे। दादा तो मेरे बड़े भाई थे ,पहलवान थे, कुश्ती करते थे ,सब उन्हें पहलवान दादा कहते थे लेकिन मैं दादा ही बोलता था। पिताजी के जाने के बाद मैं बिल्कुल अनाथ हो गया लेकिन दोनों भाइयों ने मुझे कभी किसी प्रकार की कमी नहीं होने दी कहने को तो रिश्ते में मेरे भाई लगते थे लेकिन मुझसे बहुत बड़े थे, वे भी मुझे अपने बच्चे की तरह ही मानते थे मैंने भी उन्हें माता -पिता का दर्जा दिया था। समय के साथ मेरी नौकरी लग गई और मैं अपनी नौकरी पर चला गया। उधर मेरे लिए रिश्ते आने लगे लेकिन मेरी भाभी ने अपनी मौसेरी बहन यानि की तुम्हें मेरे लिए चुना। तुमसे रिश्ता होने के बाद मेरे मन में प्यार के अंकुर प्रस्फुटित होने लगे या यूँ समझो मेरे जीवन का नया रंग अपना असर दिखा रहा था। उम्र भी कुछ ऐसी ही थी। मेरा मन तुम्हें लेकर नये -नये सपने सजाने लगा।
मैं इस नए रिश्ते के कारण अपने वो रिश्ते नहीं भूल सकता था जिन्होंने मेरे जीवन को सही मायने में जीवन बनाया था उनके लिए मैं कभी भी किसी भी समय नतमस्तक था। मैं सोचा करता था कि तुम आओगी मेरे सुख -दुःख में मेरा साथ दोगी। मैं अपनी जिंदगी की सारी बातें तुम से बाँट लूँगा। तुम्हें मैं अपनी पत्नी के रूप में ही नहीं देख रहा था बल्कि तुममें एक दोस्त भी ख़ोज रहा था। मैंने बड़े अरमानों से सात वचन लिए थे। तुम आई ,जिंदगी एक अलग ही दुनिया या यूँ कहें सपनों की दुनिया में चली गई। ,लगता ये पूरा आसमान मेरा है जिसमें रंग -बिरंगे कभी फूल खिलते हैं कभी रंग -बिरंगे पटाखे छूटते हैं । एक माह न जाने कब बीत गया ?पता ही नहीं चला। मैं अपने काम पर वापिस जाने की तैयारी करने लगा ,तुमसे बिछुड़ने का दुःख था लेकिन मैं अपने साथ नहीं ले जा सकता था क्योंकि वहाँ इंतजाम करना पड़ता। मैं उदास और बेमन से तुम्हें वहाँ छोड़कर अपने काम पर आ गया किन्तु दिल तो मेरा वहीं रह गया तुम्हारे पास।
आज मैं कुछ ज्यादा ही बेचैन था ,तुम्हें पत्र लिखने बैठा कुछ समझ नहीं आ रहा था, क्या लिखुँ ,क्या नहीं ?कुछ भी तो नहीं छिपा है तुमसे फिर भी बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ। किसी तरह मैंने पत्र भरा और पोस्ट कर दिया। तुम्हारे पत्र का इंतजार बड़ी बेचैनी और बेसब्री से करता रहा। तुम्हारे पत्र के साथ ही मेरे दिल की धड़कन तेज हो गईं ये तुम्हारा पहला पत्र था मेरे लिए, पता नहीं कितना प्यार उड़ेल दिया होगा , न जाने कितनी प्रेम भरी बातें होंगी। पत्र खोलते हुए लगा कि दिल उछलकर बाहर आ गिरेगा। मन में गुदगुदी सी हो रही थी ,कांपते हाथों से मैंने वो पत्र खोला। प्यार भरी बातें तो नहीं थीं कुछ शिकायतें अवश्य थी। अपने साथ न ले जाने की,समय पर तनख़्वाह न पहुंचाने की ,तुम्हारे पत्र का जबाब मैंने तुरन्त लिख भेजा -'कि तनख़्वाह तो मैंने दादा को भेज दी ,हर बार उन्हें ही देता हूँ। यदि तुम्हें किसी सामान या पैसों की आवश्यकता हो तो दादा से माँग सकती हो। लेकिन दूसरा तुम्हारा प्रेम -पत्र शीघ्र ही आया ,अनेक शिकायतों के साथ उस पत्र में टूटी -फूटी हिंदी मात्राओं की गलती के बावजूद ,मैं उन भावों को समझ सकता था। धीरे -धीरे शिकायतें बढ़ने लगीं इस कारण मैंने छुट्टी की अर्जी दे दी और छुट्टी मिलते ही मैं घर आ गया। तुम्हारी समस्याओं का हल सोचते हुए आया था। मुझे अपने ऊपर यकीन था कि मैं तुम्हें समझा लूँगा।
सबके लिए मैंने कुछ न कुछ सामान खरीदा था ,घर में मुझे देखकर सभी बड़े प्रसन्न हुए पूछा भी-' कि इतनी जल्दी छुट्टी कैसे मिल गई ?फिर कुछ सोचकर स्वयं ही हंस पड़े। सब अपने -अपने उपहार देखकर बड़े ही प्रसन्न हुए पर तुम कहीं नहीं दिखीं। जबकि तुम्हें मालूम था, कि मैं आ रहा हूँ। मेरी आँखें तुम्हें ही खोज रही थीं, तभी भाभी माँ ने मेरी भावनाओं को समझते हुए कमरे की तरफ इशारा किया। मैं उस कमरे में गया जहाँ तुम भाव -शून्य सी खड़ी थीं। मुझे लगता था कि तुम मुझे देखकर खुश होगीं ,शायद मेरे गले से लिपट जाओ ,सारी शिकायतें तो मुझे देखकर ही दूर हो जायेंगी लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मुझे देखकर तुम फ़ीकी सी हसीं हँस दी ,मैंने तुम्हें तुम्हारा उपहार दिया। तभी भाभी माँ ने खाने के लिए आवाज लगाई। जो काम तुम्हें करना चाहिए था वो कर रहीं थीं। मैं बाहर जाने लगा जाते -जाते उपहार न खोलने के लिए मना भी कर दिया। मैं उपहार को देखते हुए जो भाव तुम्हारे चेहरे पर आये उन्हें देखना चाहता था।
खाना खाने के बाद , मैं तुम्हारे पास आया तुमने अपना उपहार खोला ,तुम्हारे चेहरे पर संतोष देखकर ,मैं थोड़ा सहज हुआ। मैं आँखें मूंदकर लेटा ही था कि तुमने अपनी बातें कहनी शुरू कीं -पैसे अब मुझे भिजवाना ,मैं किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना चाहती। इन लोगों पर तुम कैसे अपनी कमाई लुटा सकते हो ?अब मैं आ गई हूँ जो देना था इन्हें दे दिया अब और नहीं। हमें अपने खर्चे भी देखने हैं। तुम्हारी ये स्वार्थ पूर्ण बातें सुनकर मैं हतप्रभ रह गया ,मैं सोच भी नहीं सकता था कि तुम ऐसे विचार रखती हो। जिन लोगों ने मुझे पाला -पोसा ,इस लायक बनाया उनके लिए मैं कैसे स्वार्थी हो सकता हूँ ?अपने बच्चे की तरह पाला है ,दादा के तो बच्चे भी नहीं हैं। उनसे कैसे कह दूँ ? कि अब मैं उन्हें पैसे नहीं भिजवाऊंगा। मैंने समझाया, कि समय के साथ -साथ ,धीरे -धीरे सब ठीक हो जायेगा। तुम्हारी जरूरतों को देखते हुए मैंने तुम्हें अलग से पैसा देना शुरू किया। दादा से कहा - कि कुछ जरूरतें बढ़ गईं हैं , उन्होंने कुछ भी नहीं पूछा, सिर्फ़ कहा -कोई बात नहीं ,और आवश्यकता हो तो और रख लेना अब बहु भी तो आ गई है ,उसे भी कुछ दे देना।
थोड़ा बड़ा हुआ तो खेती संभाल ली ,दादा ने डांट पिलाई- कि तू खेती नहीं करेगा ,पढ़ाई करेगा ,खेती तो हम दोनों भाई ही संभाल लेंगे। दादा तो मेरे बड़े भाई थे ,पहलवान थे, कुश्ती करते थे ,सब उन्हें पहलवान दादा कहते थे लेकिन मैं दादा ही बोलता था। पिताजी के जाने के बाद मैं बिल्कुल अनाथ हो गया लेकिन दोनों भाइयों ने मुझे कभी किसी प्रकार की कमी नहीं होने दी कहने को तो रिश्ते में मेरे भाई लगते थे लेकिन मुझसे बहुत बड़े थे, वे भी मुझे अपने बच्चे की तरह ही मानते थे मैंने भी उन्हें माता -पिता का दर्जा दिया था। समय के साथ मेरी नौकरी लग गई और मैं अपनी नौकरी पर चला गया। उधर मेरे लिए रिश्ते आने लगे लेकिन मेरी भाभी ने अपनी मौसेरी बहन यानि की तुम्हें मेरे लिए चुना। तुमसे रिश्ता होने के बाद मेरे मन में प्यार के अंकुर प्रस्फुटित होने लगे या यूँ समझो मेरे जीवन का नया रंग अपना असर दिखा रहा था। उम्र भी कुछ ऐसी ही थी। मेरा मन तुम्हें लेकर नये -नये सपने सजाने लगा।
मैं इस नए रिश्ते के कारण अपने वो रिश्ते नहीं भूल सकता था जिन्होंने मेरे जीवन को सही मायने में जीवन बनाया था उनके लिए मैं कभी भी किसी भी समय नतमस्तक था। मैं सोचा करता था कि तुम आओगी मेरे सुख -दुःख में मेरा साथ दोगी। मैं अपनी जिंदगी की सारी बातें तुम से बाँट लूँगा। तुम्हें मैं अपनी पत्नी के रूप में ही नहीं देख रहा था बल्कि तुममें एक दोस्त भी ख़ोज रहा था। मैंने बड़े अरमानों से सात वचन लिए थे। तुम आई ,जिंदगी एक अलग ही दुनिया या यूँ कहें सपनों की दुनिया में चली गई। ,लगता ये पूरा आसमान मेरा है जिसमें रंग -बिरंगे कभी फूल खिलते हैं कभी रंग -बिरंगे पटाखे छूटते हैं । एक माह न जाने कब बीत गया ?पता ही नहीं चला। मैं अपने काम पर वापिस जाने की तैयारी करने लगा ,तुमसे बिछुड़ने का दुःख था लेकिन मैं अपने साथ नहीं ले जा सकता था क्योंकि वहाँ इंतजाम करना पड़ता। मैं उदास और बेमन से तुम्हें वहाँ छोड़कर अपने काम पर आ गया किन्तु दिल तो मेरा वहीं रह गया तुम्हारे पास।
आज मैं कुछ ज्यादा ही बेचैन था ,तुम्हें पत्र लिखने बैठा कुछ समझ नहीं आ रहा था, क्या लिखुँ ,क्या नहीं ?कुछ भी तो नहीं छिपा है तुमसे फिर भी बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ। किसी तरह मैंने पत्र भरा और पोस्ट कर दिया। तुम्हारे पत्र का इंतजार बड़ी बेचैनी और बेसब्री से करता रहा। तुम्हारे पत्र के साथ ही मेरे दिल की धड़कन तेज हो गईं ये तुम्हारा पहला पत्र था मेरे लिए, पता नहीं कितना प्यार उड़ेल दिया होगा , न जाने कितनी प्रेम भरी बातें होंगी। पत्र खोलते हुए लगा कि दिल उछलकर बाहर आ गिरेगा। मन में गुदगुदी सी हो रही थी ,कांपते हाथों से मैंने वो पत्र खोला। प्यार भरी बातें तो नहीं थीं कुछ शिकायतें अवश्य थी। अपने साथ न ले जाने की,समय पर तनख़्वाह न पहुंचाने की ,तुम्हारे पत्र का जबाब मैंने तुरन्त लिख भेजा -'कि तनख़्वाह तो मैंने दादा को भेज दी ,हर बार उन्हें ही देता हूँ। यदि तुम्हें किसी सामान या पैसों की आवश्यकता हो तो दादा से माँग सकती हो। लेकिन दूसरा तुम्हारा प्रेम -पत्र शीघ्र ही आया ,अनेक शिकायतों के साथ उस पत्र में टूटी -फूटी हिंदी मात्राओं की गलती के बावजूद ,मैं उन भावों को समझ सकता था। धीरे -धीरे शिकायतें बढ़ने लगीं इस कारण मैंने छुट्टी की अर्जी दे दी और छुट्टी मिलते ही मैं घर आ गया। तुम्हारी समस्याओं का हल सोचते हुए आया था। मुझे अपने ऊपर यकीन था कि मैं तुम्हें समझा लूँगा।
सबके लिए मैंने कुछ न कुछ सामान खरीदा था ,घर में मुझे देखकर सभी बड़े प्रसन्न हुए पूछा भी-' कि इतनी जल्दी छुट्टी कैसे मिल गई ?फिर कुछ सोचकर स्वयं ही हंस पड़े। सब अपने -अपने उपहार देखकर बड़े ही प्रसन्न हुए पर तुम कहीं नहीं दिखीं। जबकि तुम्हें मालूम था, कि मैं आ रहा हूँ। मेरी आँखें तुम्हें ही खोज रही थीं, तभी भाभी माँ ने मेरी भावनाओं को समझते हुए कमरे की तरफ इशारा किया। मैं उस कमरे में गया जहाँ तुम भाव -शून्य सी खड़ी थीं। मुझे लगता था कि तुम मुझे देखकर खुश होगीं ,शायद मेरे गले से लिपट जाओ ,सारी शिकायतें तो मुझे देखकर ही दूर हो जायेंगी लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मुझे देखकर तुम फ़ीकी सी हसीं हँस दी ,मैंने तुम्हें तुम्हारा उपहार दिया। तभी भाभी माँ ने खाने के लिए आवाज लगाई। जो काम तुम्हें करना चाहिए था वो कर रहीं थीं। मैं बाहर जाने लगा जाते -जाते उपहार न खोलने के लिए मना भी कर दिया। मैं उपहार को देखते हुए जो भाव तुम्हारे चेहरे पर आये उन्हें देखना चाहता था।
खाना खाने के बाद , मैं तुम्हारे पास आया तुमने अपना उपहार खोला ,तुम्हारे चेहरे पर संतोष देखकर ,मैं थोड़ा सहज हुआ। मैं आँखें मूंदकर लेटा ही था कि तुमने अपनी बातें कहनी शुरू कीं -पैसे अब मुझे भिजवाना ,मैं किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना चाहती। इन लोगों पर तुम कैसे अपनी कमाई लुटा सकते हो ?अब मैं आ गई हूँ जो देना था इन्हें दे दिया अब और नहीं। हमें अपने खर्चे भी देखने हैं। तुम्हारी ये स्वार्थ पूर्ण बातें सुनकर मैं हतप्रभ रह गया ,मैं सोच भी नहीं सकता था कि तुम ऐसे विचार रखती हो। जिन लोगों ने मुझे पाला -पोसा ,इस लायक बनाया उनके लिए मैं कैसे स्वार्थी हो सकता हूँ ?अपने बच्चे की तरह पाला है ,दादा के तो बच्चे भी नहीं हैं। उनसे कैसे कह दूँ ? कि अब मैं उन्हें पैसे नहीं भिजवाऊंगा। मैंने समझाया, कि समय के साथ -साथ ,धीरे -धीरे सब ठीक हो जायेगा। तुम्हारी जरूरतों को देखते हुए मैंने तुम्हें अलग से पैसा देना शुरू किया। दादा से कहा - कि कुछ जरूरतें बढ़ गईं हैं , उन्होंने कुछ भी नहीं पूछा, सिर्फ़ कहा -कोई बात नहीं ,और आवश्यकता हो तो और रख लेना अब बहु भी तो आ गई है ,उसे भी कुछ दे देना।


