din bhr krti kya ho ?

सुबह पांच बजे उठी ,नहा -धोकर सवेरे की चाय सबको बनाकर दी ,और नाश्ता बनाने के लिए और तुम्हारा दोपहर का खाना तैयार करने के लिए मैं रसोईघर में घुस गई। तुम्हारे कपड़े निकालकर पलंग पर रख दिए थे। मैंने तुम्हें नाश्ता दिया और टिफ़िन तुम्हारे पास रखकर ,मैं कपड़े धोने के लिए मशीन चला आई। मम्मी -पापा से भी नहाने के लिए कहकर आई। तुम तो चले गए ,उसके बाद सारा कमरा संभाला ,घर की साफ -सफाई में जुट गई। नाश्ता करके मम्मी -पापा तो अख़बार पढ़ने और दूरदर्शन पर धारावाहिक देखने में लग गए। कपड़े धोने -सुखाने के बाद मैंने समय देखा, दोपहर के खाने का समय हो गया था। मम्मी -पापा को खाना देकर और रसोई समेटकर ,मैं लेटी  ही थी कि मम्मी की आवाज आई -'बहु कपड़े उतार लो ,वरना  धूप में खराब हो जायेंगे। 'कपड़े उतारकर लेटी ही थी कि ध्यान आया ,कपड़ों पर इस्त्री भी करनी है ,फिर भी मैं लेटी  रही ,फिर एक झटके के साथ उठ बैठी। ये सोचकर कि काम तो मुझे ही करना है फिर आलस करने से क्या फायदा ?

                 शाम की चाय बनाकर, देकर आई मम्मी-पापा को ,इस्त्री का काम भी पूरा किया। छः बजे तुम घर में थके हुए आये तुम्हें पानी देकर, चाय बनाने चली गई। तुम चाय पीकर समाचार सुनने लगे। मैं फिर से रसोईघर में रात के खाने की तैयारी में लग गई। रसोईघर से सारे काम निपटाकर फिर मैं कपड़ों को सही जगह पर रखने लगी। इस प्रक्रिया में मुझे दस बज गए। आज पूरे दिन में मेरी मुलाकात अपने -आप से नहीं हुई ,बाल भी ठीक से नहीं बने थे। मैं पूरी तरह थक चुकी थी। देखते ही पहले तो तुमने मुझे उलाहना देते हुए जैसे झिड़की दी-कहाँ लगा दिया इतना समय ?मैं कब से इंतजार कर  रहा हूँ। मैं आराम से बैठकर तुमसे दिनभर की बातें करना चाहती थी। तुम्हारे सानिध्य को महसूस करना चाहती थी। लेकिन मैं कुछ कहती ,इससे पहले ही तुम  मुझे अपने आग़ोश में भर लेने को आतुर थे। मेरे इंकार करने से तुमने इसका कारण भी नहीं पूछा बोले -'क्या करती हो दिनभर ?मैंने बताने का प्रयत्न भी किया ,इससे पहले ही तुम बोल उठे -ये सब काम तो सभी औरतें करती हैं ,तुम ही कोई अनोखी नहीं हो। तुम्हारे इस जबाब से आहत होकर मैंने कुछ न कहना ही उचित समझा। मैं पलंग के दूसरे कोने में लेटकर चुपचाप सो  गई। 
             अगले दिन, फिर उसी जोश के साथ मैं अपने काम में लग गई। थोड़ी रद्दो -बदल के साथ इसी तरह जिंदगी के दो -तीन साल गुजर गए। तुम्हारे बच्चे आये ,रात भर परेशान करते। तुम्हें तो  काम पर जाना था ,मैं तो घर में रहती हूँ कुछ नहीं करती ,सो मैं जगी रहती। जब बच्चे को सुलाकर थककर मीठी नींद आती तो अलार्म बज जाता। मैं अधपकी नींद से उठकर बच्चे के कपड़े बदलना ,खाने की तैयारी में रसोईघर में घुस जाती। वहाँ से निपटकर बच्चे के गद्दी ,पोतड़े [उस समय पर हगिज़ नहीं होते थे ]डिटॉल में धोकर सुखाती। घर का सारा काम निपटाकर बच्चे को नहलाकर ,सोचा थोड़ी देर में भी सो लूँ। थकान व् नींद पूरी न होने के कारण लेटते ही नींद आ गई ,तभी बच्चे के रोने की आवाज से उठ गई। देखा तो उसने अपना बिस्तर गीला किया था। उसके कपड़े बदल ही रही थी कि सासु माँ की आवाज सुनाई दी -बच्चे क्या ऐसे ही पलते हैं ?बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। '

            कभी रोती ,कभी हँसती ,कभी बुरा मान जाती। इसी तरह मेरे जीवन के छह -सात साल और बीत गए। सोचा जब बच्चे बड़े होंगे ,समझदार होंगे तब आराम करुँगी। काम घटने की जगह और बढ़ गया। बच्चे स्कूल जाने लगे ,सास -ससुर को समय पर खाना देना ,समय पर दवाई देना और फिर बच्चों का गृहकार्य कराना भी मेरे रोजाना के काम में सम्मिलित हो गया। फिर भी तुम्हारा प्रश्न रहता -तुम क्या करती रहती हो दिनभर ?शर्ट का बटन टूटा है ,खाने में अब वो वाली बात नहीं आती। ससुर गए अब सास भी बीमार रहने लगी। तुम्हारे प्रश्नों को सुलझाते ,तुम्हारे माता -पिता की सेवा करते मैंने अपने जीवन के बीस साल तुम्हारे आँगन में गुजार दिये। लेकिन अब मुझे पूरी -पूरी उम्मीद थी कि  अब आने वाले दिनों में मैं आराम से रहूँगी। अपने शौक़ तो जैसे मैं भूल ही गई थी ,मेरी भी कुछ इच्छाएं थी या हैं ,याद  ही नहीं। 
        बच्चे बड़े होकर अपनी पढ़ाई और नौकरी के लिए परेशान रहते तो उनके हर सामान का ध्यान रखना ,खाने -पीने का ध्यान रखना ये जिम्मेदारी मुझ पर अपने -आप ही आ गई। कभी -कभी उन्हें डांट भी देती तो उन्हें मुझसे ऐसे व्यवहार की उम्मीद न होती। एक दिन मेरे अरमान जागे तुमसे कहा -'आज मुझे फ़िल्म दिखा लाओ ,मैंने सुना है कोई बड़ी अच्छी फ़िल्म लगी है। तो तुम्हारा जबाब था -बच्चे बड़े हो गए ,अब तुम फ़िल्म देखोगी ,हर चीज की एक उम्र होती है ,ज्यादा मन कर रहा है तो बच्चों के साथ चली जाओ। न तुम मुझे ले गए न ही मैंने फिर कभी कहा। कभी किसी चीज की इच्छा भी होती तो मन में ही दबा लेती कि कोई फायदा नहीं कहने से।  
                 सोचा ,जब बच्चों के विवाह होंगे ,बहु आएंगी तो थोड़ा आराम से जिंदगी बीत जायेगी। बहु।  आई ,पढ़ी -लिखी नौकरी पेशा बहु ने घर में प्रवेश किया। वो क्या काम करती ?उसके आने से पहले ही कामवाली आ गई। इससे पहले किसी ने भी ऐसा नहीं सोचा था। बहु थोड़ा बहुत जो भी काम करती वो भी उल्टा -सीधा ,लापरवाही से। बहु को समझाया भी ,बोली -मैं क्या काम करुँगी ?समय तो मिलता ही नहीं। उसका काम था सुबह देर से उठना ,नाश्ता करके अपने दफ्तर जाना। जब मैंने तुमसे कहा-कि हम नहीं थे जो सुबह उठकर काम करते थे।  तो तुम्हारा जबाब था -'तुम भी क्या करोगी दिन भर? बहु की मदद या घर का काम करोगी तो स्वस्थ रहोगी, खाली बैठे ही क्या करोगी ?शरीर अकड़ जायेगा ,हाथ -पैर जितने चलते रहें ठीक रहता है। सोचा ,दूसरी बहु नौकरी वाली नहीं लूगी। दूसरी के इंतजार में दो -तीन वर्ष बीत गये। दूसरी बहु आयी और बोली -मैं नौकरी नहीं करुँगी तो इसका मतलब ये नहीं कि मैं सारा दिन घर के कामों में ही लगी रहूँगी ,मेरी भी अपनी जिंदगी है ,अलग सोच है ,मैं कोई नौकर नहीं। उसके मुँह से ऐसे शब्द सुनकर झटका लगा। 

            हमने तो अपने जीवन में ऐसी बात सोची ही नहीं ,अपना घर ,अपने लोग समझकर काम किया। समय बदल गया। पोते -पोती हुए तो बच्चे कहने लगे। मम्मी आप क्या करती हो दिनभर ?,बैठे -बैठे बच्चों को तो संभाल ही सकती हो। तब मैंने उस दिन पहली बार वो रूप देखा ,तुम बोले -ये कहते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती ,ये तुम्हारे बच्चों की आया नहीं ,इस उम्र में भी काम करती रहती है। रा त -दिन एक करके तुम्हें पाला। कि बच्चे किसी क़ाबिल होंगे ,सहारा बनेंगे। तुम इससे अब भी काम की उम्मीद रखते हो। अब ये कोई काम नहीं करेगी। अपना काम तुम लोग स्वयं देखो ,सारा दिन तुम्हारे कामों में लगी रहती है। जो शब्द मैं तुमसे सुनने के लिए जीवनभर तरसती  रही ,अपनेपन के ,प्यार के। वो एहसास ,मेरे जीवन भर की कमाई व्यर्थ नहीं गई। तब मुझे पता चला कि तुम्हारी नजर में तो था कि मैं  क्या करती हूँ ?लेकिन कभी जताया नहीं। आज मेरे जीवन की मेहनत सफल हो गई ,जैसे उसका आज मुझे इनाम मिला है। और मैं मूक ,अबोध बालक की तरह ,तुम्हारा मुँह तकती रही। जीवन भर की शिकायत चंद शब्दों ने जो दूर कर दी थी। 





































laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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