kissa ek rupye ka

रूपा यानि कि मेरी पत्नी ,हिसाब -किताब पहले से ही रखती थी। पूरा बज़ट बनाकर चलती ,कितना पैसा कहाँ और कब खर्च करना है ?पूरा हिसाब रखती। थोड़ी सी भी गड़बड़ होती तो सारा घर सिर पर   उठा लेती ,उसे तब तक चैन नहीं मिलता जब तक उस गड़बड़ी का  पता न चल जाये। उसके दिमाग में वो बात घूमती रहती ,बार -बार हिसाब लगाती मुझसे पूछती ,बच्चों से और जब सब सही होता तभी आराम से रहती या यूँ कहें आराम से रहने देती। ये आदत उसमें मायके से ही थी। शुरू -शुरू में तो सबको अच्छा लगा कि लड़की ने अर्थशास्त्र में मास्टरी की है ,हिसाब -किताब की भी पक्की है। ख़र्चा करके आती ,एक -एक पैसे का हिसाब लगाकर बाकी  पैसे वापस दे देती। मैं कहता- कि मैं क्या तुमसे पैसे वापस माँग रहा हूँ ?तुम क्यों इस चक्कर में परेशान होती हो ?तो कहती -मेरा उसूल है, हिसाब बाप -बेटे का ,हिसाब तो हिसाब है, चाहे एक रूपये का भी हो। मन ही मन खुश भी होता कि दूसरों की बीवियों की तरह फ़ालतू खर्चे तो नहीं गिनवायेगी। कभी -कभी उसकी इस आदत से बड़ी कोफ़्त होती ,पूरा घर परेशान हो जाता। 

               आज ही की बात लो ,अख़बार वाला आया था वो मुझसे सौ रूपये ले गया। मैंने उसे बताया कि अख़बार वाला आया था मैंने उसे पैसे दे दिए। सोचा तो ये था कि उसे बता दूंगा तो परेशान नहीं होगी वरना  बोलेगी आपने मुझे बताया क्यों नहीं ?बताने के बाद बोली -आपने हिसाब नहीं लगाया दो दिन की छूट्टी  भी थी ,आपनेउसे  ऐसे कैसे पैसे  दे दिए ?बिना हिसाब लगाए ,पिछले महीने भी वो एक रुपया ज्यादा ले गया था ,मैंने सोचा था आगे महीने में लगा लुँगी और वो आपसे फिर से ज्यादा पैसे ले गया। मेरे पास कलेंडर लेकर बैठ गई और हिसाब लगाने लगी। बड़बड़ाती जा रही थी -पढ़े -लिखे होकर भी उसे ज्यादा पैसे दे दिए। मैंने उसे समझाते हुए कहा -अरे !एक -दो रूपये की ही तो बात है। उसने तर्क दिया -मान लो ,उसने पचास घर से एक -एक रुपया लिया तो उसके तो पचास रूपये बन गए। अब मुझें उसकी हरकतों पर क्रोध आने लगा -[गुस्से को दबाते हुए ]एक रूपये से क्या उसने हमारा घर खरीद लिया  ?वो अपनी ही धुन में बोली -बात एक रूपये की नहीं ,हिसाब -किताब की है ,कायदे से उसके जितने बनते हैं उतने दो। मैं क्या उसके पैसे मार रही हूँ ,न ही मैं अपने छोड़ना चाहती हूँ। 

                उसकी चिकचिक से मैं पक गया था ,वो तर्क देने लगी -गरीब नहीं है वो ,जो एक रुपया छोड़कर एहसान कर  रहे हो ,अभी उसने अपने बेटे का इतना महँगा सूट बनवाया है हमने तो नहीं बनवाया अपने बेटे का जो उसी की कक्षा में पढ़ता है। मैंने कहा -उसकी मर्जी वो कितने का भी बनवाये। तो क्या ऐसे पैसे मारेगा ? दो दिन की छुट्टी के भी नहीं काटे।मेरा चेहरा देखकर चुप तो हो गई पर मैं समझ रहा था कि वो मानेगी नहीं अपनी बात पर अड़ी रहेगी। मैं बाहर घूमने निकल गया कि मामला थोड़ा शांत हो तभी घर आऊं। 
                 मैंने घर  पर फोन  करके पूछा -कुछ सामान तो नहीं मंगाना अभी मैं बाज़ार में हूँ। उसने सामान की सूची लिखवा दी। मैं उसकी आवाज से अंदाजा लगाने का प्रयत्न कर रहा था कि अब उसकी मनोदशा कैसी है ?लेकिन कुछ समझ नहीं पाया [मुझे भी थोड़ा क्रोध दिखाना था ]मैंने भी बिना कुछ बोले फोन काट दिया। लगभग एक घंटे बाद सामान लेकर मैं घर पहुँचा। मामला थोड़ा शांत लगा ,मैंने सामान रखा साथ में पर्चा भी वरना बाद में माँगेगी और खाना खाकर अपने कमरे में आकर लेट गया। रसोईघर से काम निपटाकर वो कमरे में आई ,मेरी तरफ देखा ,मैं आँख बंद किये चुपचाप लेटा  रहा। वो समझाने के तौर पर लेकिन आवाज़ में तल्ख़ी लिए बोली -मैं किसी का पैसा नहीं मार रही लेकिन हमारा पैसा भी तो मेहनत का है। बात एक रूपये की नहीं, बात हिसाब की है। उसके जितने बनते हैं दो ,लेकिन फ़ालतू नहीं, चाहे वो एक रुपया ही क्यों न हो ?मैं चुपचाप सुनता रहा। उसने अपनी बात जारी रखी बोली -एक -एक रूपये से भिखारी भी लाखों रूपये दबाये बैठे रहते थे फिर भी भिखारी के भिखारी। पढ़ा नहीं अख़बार में। मैंने कुछ भी जबाब देना उचित नहीं समझा। उसने भी मेरे व्यवहार से क्षुब्ध होकर लाईट बंद की और सो  गई। 
                अगले दिन घर का सारा काम निपटाकर ,पर्चे से मिला -मिलाकर सामान देखने लगी और रखने लगी। सामान का मिलान करते -करते उसने देखा कि सामान तो सौ ग्राम है और पैसे उसने दो सौ ग्राम के लगाए थे। दुकानदार जानने वाला था इसीलिए मैंने ध्यान नहीं दिया था। वो बोली -रवि -रवि !देखो सामान कम है और पैसे उसने ज्यादा के लगाए हैं। क्या आप मिलान करके नहीं लाये ?मैं सोच रहा था कि बात अब सम्भली, मेरी थोड़ी सी लापरवाही से बिगड़ती नजर आ रही थी। लेकिन मेरे रात के व्यवहार से वो पहले से ही नाराज थी। फिर वो मेरा [विवशता भरा ]चेहरा देखकर उसने बात को आगे न बढ़ाते हुए ,बाहर जाकर धम्म से कुर्सी में धंस गई और बोली मुझे क्या ?शायद वो स्वयं भी तंग आ चुकी थी। अपने -आप से। 
           ये तो एक किस्सा है ,ऐसे न जाने कितने क़िस्से मैं कितनी बार झेल चुका हूँ ,अब मैं जानता था कि मुझे क्या करना है ?
































laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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