kirayedar

विवाह के बाद वो अपने पति के साथ नौकरी पर शहर में आ गई। शहरी जीवन उसे बहुत लुभाता था ,उसे लगता शहर में ही रहकर जीवन सुधर सकता है। गाँव में भला क्या रखा है ?न कोई सुविधा न ही रहने सहने का सलीका। अमीर बाप की बेटी थी ,सब काम नौकर करते थे। सीखा सब काम था लेकिन कभी ऐसे लग कर नहीं किया था। शहरी जीवन का आकर्षण उसे ले तो आया ,लेकिन थोड़े ही दिनों में उसे हकीक़त नज़र आने लगी। अमित की पगार इतनी नहीं थी कि एक नौकर भी रख सके। उसकी पगार से तो घर का  किराया ,दूध ,साग  -सब्ज़ी ,बिजली का बिल और छोटे -मोटे खर्च ही पूरे  हो पाते। लेकिन रूपा कर्मठ थी ,उसने अपने मन में जो आशियाना बनाया था उस आशियाने को अपने तरीक़े से सजाती -संवारती ,सब काम निपटाकर वो शाम को छत पर अमित का इंतजार करती। छत पर ही पंखा लगा लिया। छत पर ठंडक के लिए  पानी भी छिड़क दिया। 


              अमित ने घर में घुसते ही आवाज लगाई -रूपा ,रूपा !.वो छत पर से ही बोली -मैं ऊपर हूँ ,आप भी नहा -धोकर ऊपर आ जाइए। अमित नहाकर छत पर ही आ गया और बोला -बड़ी गर्मी है ,ये तुमने अच्छा किया जो काम निपटाकर ऊपर आ गईं। कमरे तो गर्मी के कारण भभक रहे हैं ,छत पर थोड़ी बहुत हवा तो चल रही है। छत भी गर्म थी वो तो मैंने इस पर पानी छिड़क दिया रूपा बात काटते हुए बोली-ये तो अच्छा है कि हमें इस मकान में छत तो मिल गई [खाना परोसते हुए ]एक बात कहुँ !मौज तो पैसे वालों की है ,ठड़ी हवा [कूलर ]में ठाठ से सोते हैं। वैसे सुविधा हो तो गाँव भी अच्छे हैं ,सुविधा न हो तो शहर भी बेकार लगते हैं। छोटे -छोटे कमरों के मकान ,तंग गली और तो और पानी की सिरदर्दी ,सुबह उठकर पानी भरो। पानी ऊपर नहीं आता तो नीचे से भरकर लाओ। पानी के समय  पर नहीं पहुंचे तो बिना पानी के शाम तक बैठे रहो। 
                 अमित के खाना खाने के बाद वो बर्तन समेटने लगी वो बोला -मैं तुम्हारी परेशानी समझ  रहा हूँ ,मैं कोई ओर मकान ढूढ़ रहा हूँ जिसमे हम नीचे रह सकें। आगे बच्चे होंगे तो तुम्हें परेशानी न हो अमित ने मुस्कुराकर कहा। रूपा शरमाकर उसके पास आकर सिमट गई। अमित की प्यार भरी बातों से वो अपनी दिनभर की परेशानी भूल जाती। अमित अपने को भाग्यशाली समझ रहा था कि वो हर परिस्थिती में मेरे साथ थी। समय के साथ -साथ कई मकान बदले गए। अब रूपा तीन बच्चों की माँ थी। अमित ने नौकरी छोड़कर व्यापार शुरू किया। आमदनी तो बढ़ी किन्तु साथ ही साथ खर्चे भी बढ़े। वो ही लाम -पेट बराबर। अब रूपा धीरे -धीरे बच्चों के काम व घर के बारबार बदलने से परेशान होने लगी। बोली- क्या मेरी जिंदगी मकान बदलने में ही गुज़र जायेगी ,कभी अपना  मकान भी देखूँगी कि नहीं ?
          बच्चे भी बड़े होने लगे ,कब तक किराये के मकानों में धक्के खाते रहेंगे ?मकान -मालिक दो -तीन साल बाद ही मकान खाली करने को कह देता है। कहीं कोई सस्ता सा या किस्तों पर मकान मिल जाये। रूपा बोली। अमित ने कहा -मिल तो सकता है लेकिन तुम वहाँ नहीं रह पाओगी। वहाँ का माहौल तुम्हें पसंद नहीं आएगा। अमित समझाते हुए बोला - देखो हमने कितनी तरक्क़ी की है ,तुम देख ही रही हो कि मैं दिन -रात  कितनी मेहनत करता हूँ। बच्चो की पढ़ाई ,खाने -पीने के खर्चे ,अब मकान भी बड़ा लेना पड़ता है तो किराया भी बढ़ा है ,आमदनी बढ़ी है तो साथ के साथ खर्चे व महंगाई भी बढ़ी है। क्या मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चों को हर सुविधा मिले ?तुम रोज -रोज ये बातें लेकर बैठ जाती हो। अब मुझे सोने दो। और वो करवट बदलकर सो गया। 
               वह सोचती है और अपने को समझाती है कि कह तो सही रहें हैं। इच्छाएं हैं कि तीव्र गति से बढ़ रहीं हैं। कुछ समझ नहीं आता कि पैसा कहाँ से आए ?कैसे बचत करें ?किस खर्चे में से कटौती करें ?उसे मकान -मालकिन के वे शब्द याद आए जो किसी पड़ोसन से कह रही थी -कि किरायेदारों की कोई इज्ज़त नहीं होती ,ये तो ऐसे ही भाजड़ ठाये घुमते रहते हैं। वो तिलमिलाकर बुदबुदाई -हर महिने हरे -हरे नोट देते हैं ,तब उसके मकान में रहते हैं ,एहसान थोड़े ही कर रही है। फिर उसने झटके से अपने विचारों को विराम दिया और करवट बदलकर सो गई। 

              कुछ साल बाद एक दिन अमित खुश होते हुए आये। रूपा ने पूछा- क्या लॉटरी लगी है ?उसने कहा -एक सस्ती और अच्छी ज़मीन हाथ लगी है ,बैंक से लोन ले लेंगे और मकान बनाने के लिए गाँव की थोड़ी ज़मीन बेच देंगे। जैसा सोचा था उसी के आधार पर मकान भी तैयार हो गया।ख़ुशी -ख़ुशी अपने घर में गए। कुछ समय बाद बेटी का विवाह कर दिया, बच्चे अपनी नौकरी पर चले गए।रूपा बोली - सोचा था ,बेटी घर से जाएगी तो बहु आ जायगी घर में रौनक रहेगी लेकिन कुछ दिन बाद बहुएँ भी बेटों के साथ चली गईं।' रह गई तो उसकी बड़ी सी कोठी और वो स्वयं। इस ढलती उम्र में वो सुनसान कोठी उसे चिढ़ाती। कमरों का सूनापन उसे अखरता। बच्चों का उछल -कूद उसे याद आती ।वो बोली - क्या यही जीवन है ?जिसकी इच्छा में पूरी जिंदगी निकाल दी ,आज उसी की साफ -सफाई के लिए अब शरीर में ताकत ही नहीं बची। सारा जीवन किराये के मकानों में परेशानियों में निकाल दिया। 
 अमित ने उसे समझाते हुए कहा -तुम किराये के मकान की बात करती हो ,हमारा ये  जीवन भी किराए के मकान में है। समय आने पर इस किराये के मकान को और इस संसार को ही छोड़कर जाना है। जब तक रहो ख़ुश होकर जियो ,जितने दिन  भी जीना है ,आज में रहकर जियो, देर से हुई लेकिन तुम्हारी अपने घर की इच्छा तो पूर्ण हुई। अमित की बातों से उसकी बेचैनी कुछ कम हुई और वो बाहर आकर बैठ गई ,जहाँ से उसे आते -जाते लोग  दिखाई  रहे थे,और वो गुनगुना रही थी -आदमी मुसाफ़िर है ,आता है जाता है। 




































laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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