'गुरु गोविन्द दोउ खड़े ,काके लागू पाय। बलिहारी गुरु आपने ,जिन गोविन्द दियो बताय। '
बचपन में ये दोहा हमने खूब याद किया। कबीर दासजी का ये दोहा गुरु के महत्व को दर्शाता है ,इसमें गोविन्द से भी ज्यादा गुरु को महत्व दिया है। बचपन में माता -पिता को भी गुरु का अनुसरण करते देखा। वो कहते '-गुरु ही हमारे मार्गदर्शक होते हैं ,गुरु चाहे आध्यात्मिक हो या विद्यालय के गुरु ,दोनों ही हमारे पथ प्रदर्शक के रूप में आगे बढ़ने के लिए हमें प्रेरित करते हैं।' बचपन से ही हमारे मन में गुरु के प्रति एक विशिष्ट भाव था ,जो अतुल्नीय था। हम ये सोचकर उनका अनुसरण करते रहे कि जो रास्ता वो हमें बता रहे हैं सही ही होगा ,और उनके बताये हुए रास्ते पर चलते रहे।
समय के साथ जब हम बड़े हुए तो गुरु का एक रूप देखने को मिला ,मन प्रश्नों से भर उठा। अपने बचपन का एक किस्सा बताती हूँ -हमारे घर के पास ही एक परिवार रहता था ,उस घर के मालिक भी गुरु को मानते थे। वो कृष्ण भक्ति में लीन रहते थे लम्बे -लम्बे बाल ,कृष्ण लीला का वर्णन करते ,वर्णन करते -करते कहीं खो जाते। उनके परिवार में तीन बच्चे और बीवी थी ,वे उच्च पद पर थे। उनके घर में हर वो सामान था जो उस समय में किसी साधारण व्यक्ति के लिए सपने जैसा था। उनका प्रेम भाव धीरे -धीरे बढ़ता गया और घर पर ही सतसंग होने लगा। सतसंग के लिए गुरु की शिष्या आतीं ,उनकी सेवा के लिए फल और मेवे लाये जाते। कुछ दिन रहतीं तो उनके कपड़े धोना उनके पैर दबाना, ये घर के मालिक का ही काम था। वो अपनी पत्नी को भी कहते- उनकी सेवा करने के लिए, लेकिन उसके मन में उन साध्वियों के लिए न ही मन में कोई श्रद्धा भाव था न ही सेवा भाव।
वो अपने पति झगड़ती कि कैसी साध्वी हैं, जो अपना काम स्वयं नहीं करती ?बीमार थोड़े ही हैं। जब उसके पति उनकी सेवा करते तो उसे उन पर भी क्रोध आता। अक्सर वो पड़ोस में आकर रोती और कहती- कि ये कैसी साध्वी हैं ?हट्टी -कट्टी हैं ,दूसरे के आदमी से सेवा करवाती हैं ,न ही इन्हें[पति ] बच्चों का ध्यान है न ही मेरा। पड़ोसन ने समझाया '-कि तुम्हारे पति ये सब सेवा भाव से करते हैं।'
धीरे -धीरे परिस्थितियाँ बद से बद्त्तर हो गईं ,उन महाशय ने अपने घर का जो भी कीमती सामान था ,सब सतसंग वालो के आश्रम में दान कर दिया उनके तीन बच्चे और पत्नी घर से बेघर हो गए। आदमी कितनी मेहनत से काम करता है तब एक -एक पैसा जोड़कर सामान खरीदता है ,उन्होंने अपनी भक्ति -भावना में सब कुछ न्यौछावर कर दिया। तब दिमाग में प्रश्न कौंधने लगे -उन साध्वियों को क्या आवश्यकता थी इतने महंगे सामानों की? जिन्होंने अपने घर को त्याग दिया उन्हें दूसरों के घर में रहने की क्या आवश्यकता है ?किसी का घर तोड़कर ,किसी के बच्चे अनाथ करके, उन्हें क्या मिला ?उन्हें कौन पालेगा ?गुरु इतने स्वार्थी कैसे हो सकते हैं ?
हमने अपने ये प्रश्न अपने माता -पिता से किये तो उनका जबाब था -शायद उनके प्रारब्ध में यही लिखा था ,जो परमात्मा करता है अच्छे के लिए ही करता है। शायद इसी में उनकी कोई भलाई छिपी हो ,और इन्हीं वचनों के साथ एक गुरु के कारण, हम चुपचाप किसी का घर उजड़ते हुए देखते रहे। कॉलेज में प्रवेश के बाद गुरु का एक और नया रूप देखने को मिला। गुरु शिष्या से राधा -किशन जैसा संबंध रखना चाहते थे। कृष्ण के और रूप छोड़कर सिर्फ गोपी और रास वाला रूप ही या द रखा।आये दिन अख़बार और पत्रिकाओं में भी ऐसी ही खबरें पढ़ने और सुनने को मिलतीं। स्कूलों और कोचिंग सेंटरों में कोई न कोई गुरु इस रिश्ते को कलंकित करता। ये तो उन गुरुओं की बातें हैं ,जो अपनी शिक्षा द्वारा देश के भविष्य यानि भावी युवाओं का निर्माण करने में सहायक होते हैं।
इसी तरह गृहस्थ जीवन में आकर मनुष्य अनेक परेशानियों में घिर जाता है ,और अपने आध्यात्मिक गुरु सेअपनी परेशानियाँ साझी करते हैं। आध्यात्मिक गुरु के पास वे अपनी सामाजिक और आर्थिक परेशानियों से मुक्त होने जाते हैं कि कुछ मानसिक शांति मिले, लेकिन आध्यात्मिक गुरु अपने विचारों व बातचीत से इस प्रकार मोहित कर देते हैं कि वो सही -गलत नहीं सोच पाते। और गुरु उनकी परेशानियों को उन्हीं के दिए अर्थ द्वारा ही दूर करते हैं। जिस गुरु ने घर ,परिवार त्याग दिया ,उसका अर्थ से क्या प्रयोजन ?और धीरे -धीरे वो आध्यात्मिक गुरु व्यवसायी बन जाता है। वातानुकूलित गाड़ियों में घूमता है। आगे -पीछे कार्य करने के लिए सेवादार होते हैं। घर -गृहस्थी वालों से दान के नाम पर धन खींचकर बड़े -बड़े मठ ,सतसंग घर और आश्रम स्थापित कर लेते हैं। न जाने कितनी एकड़ जमीन आश्रमों के नाम पर हड़प लेते हैं।
कोई उनसे पूछे कि ये सम्पत्ति उन्होंने कहाँ से बनाई ?क्या वो कोइ बड़ेअफसरहैं।,या इंजीनियर ,जो भी हो, ये पैसा तो आता है उन गृहस्थियों से ,जो अपनी परेशानियों को उन गुरुओं से सुलझाने आते हैं और खाली हाथ वापस लौट जाते हैं। आज का मानव इतना डरा हुआ है कि गुरु के विरुद्ध सोचना भी पाप समझता है और परिस्थितियां उसे इतना तोड़ देती हैं कि वो गुरु का विरोध करने की हिम्मत भी नहीं कर पाता। गुरु भी तब तक इतना शक्तिशाली हो जाता है ,बड़े -बड़े नेताओं में उनकी पहुंच होती है। यदि कोई उनके ख़िलाफ़ जाने की हिम्मत भी करता है तो साम ,दाम , दंड ,भेद किसी भी तरीक़े से उस आवाज को दबा दिया जाता है। इसी के दुष्परिणाम के रूप में आशाराम बापू राम -रहीम जैसे आध्यात्मिक गुरु पनप पाए ,इन लोगों पर इतना पैसा आया कहाँ से ?सेवा के नाम पर लोगों से मुफ़्त काम करवाते हैं, व व्यापार करते हैं। इन गुरुओं ने जब संसार त्याग दिया तो समाज या सामाजिक कार्यों से क्या प्रयोजन ?
कृपया पढ़कर अपने विचार भी व्यक्त करें ,धन्यवाद।
बचपन में ये दोहा हमने खूब याद किया। कबीर दासजी का ये दोहा गुरु के महत्व को दर्शाता है ,इसमें गोविन्द से भी ज्यादा गुरु को महत्व दिया है। बचपन में माता -पिता को भी गुरु का अनुसरण करते देखा। वो कहते '-गुरु ही हमारे मार्गदर्शक होते हैं ,गुरु चाहे आध्यात्मिक हो या विद्यालय के गुरु ,दोनों ही हमारे पथ प्रदर्शक के रूप में आगे बढ़ने के लिए हमें प्रेरित करते हैं।' बचपन से ही हमारे मन में गुरु के प्रति एक विशिष्ट भाव था ,जो अतुल्नीय था। हम ये सोचकर उनका अनुसरण करते रहे कि जो रास्ता वो हमें बता रहे हैं सही ही होगा ,और उनके बताये हुए रास्ते पर चलते रहे।
समय के साथ जब हम बड़े हुए तो गुरु का एक रूप देखने को मिला ,मन प्रश्नों से भर उठा। अपने बचपन का एक किस्सा बताती हूँ -हमारे घर के पास ही एक परिवार रहता था ,उस घर के मालिक भी गुरु को मानते थे। वो कृष्ण भक्ति में लीन रहते थे लम्बे -लम्बे बाल ,कृष्ण लीला का वर्णन करते ,वर्णन करते -करते कहीं खो जाते। उनके परिवार में तीन बच्चे और बीवी थी ,वे उच्च पद पर थे। उनके घर में हर वो सामान था जो उस समय में किसी साधारण व्यक्ति के लिए सपने जैसा था। उनका प्रेम भाव धीरे -धीरे बढ़ता गया और घर पर ही सतसंग होने लगा। सतसंग के लिए गुरु की शिष्या आतीं ,उनकी सेवा के लिए फल और मेवे लाये जाते। कुछ दिन रहतीं तो उनके कपड़े धोना उनके पैर दबाना, ये घर के मालिक का ही काम था। वो अपनी पत्नी को भी कहते- उनकी सेवा करने के लिए, लेकिन उसके मन में उन साध्वियों के लिए न ही मन में कोई श्रद्धा भाव था न ही सेवा भाव।
वो अपने पति झगड़ती कि कैसी साध्वी हैं, जो अपना काम स्वयं नहीं करती ?बीमार थोड़े ही हैं। जब उसके पति उनकी सेवा करते तो उसे उन पर भी क्रोध आता। अक्सर वो पड़ोस में आकर रोती और कहती- कि ये कैसी साध्वी हैं ?हट्टी -कट्टी हैं ,दूसरे के आदमी से सेवा करवाती हैं ,न ही इन्हें[पति ] बच्चों का ध्यान है न ही मेरा। पड़ोसन ने समझाया '-कि तुम्हारे पति ये सब सेवा भाव से करते हैं।'
धीरे -धीरे परिस्थितियाँ बद से बद्त्तर हो गईं ,उन महाशय ने अपने घर का जो भी कीमती सामान था ,सब सतसंग वालो के आश्रम में दान कर दिया उनके तीन बच्चे और पत्नी घर से बेघर हो गए। आदमी कितनी मेहनत से काम करता है तब एक -एक पैसा जोड़कर सामान खरीदता है ,उन्होंने अपनी भक्ति -भावना में सब कुछ न्यौछावर कर दिया। तब दिमाग में प्रश्न कौंधने लगे -उन साध्वियों को क्या आवश्यकता थी इतने महंगे सामानों की? जिन्होंने अपने घर को त्याग दिया उन्हें दूसरों के घर में रहने की क्या आवश्यकता है ?किसी का घर तोड़कर ,किसी के बच्चे अनाथ करके, उन्हें क्या मिला ?उन्हें कौन पालेगा ?गुरु इतने स्वार्थी कैसे हो सकते हैं ?
हमने अपने ये प्रश्न अपने माता -पिता से किये तो उनका जबाब था -शायद उनके प्रारब्ध में यही लिखा था ,जो परमात्मा करता है अच्छे के लिए ही करता है। शायद इसी में उनकी कोई भलाई छिपी हो ,और इन्हीं वचनों के साथ एक गुरु के कारण, हम चुपचाप किसी का घर उजड़ते हुए देखते रहे। कॉलेज में प्रवेश के बाद गुरु का एक और नया रूप देखने को मिला। गुरु शिष्या से राधा -किशन जैसा संबंध रखना चाहते थे। कृष्ण के और रूप छोड़कर सिर्फ गोपी और रास वाला रूप ही या द रखा।आये दिन अख़बार और पत्रिकाओं में भी ऐसी ही खबरें पढ़ने और सुनने को मिलतीं। स्कूलों और कोचिंग सेंटरों में कोई न कोई गुरु इस रिश्ते को कलंकित करता। ये तो उन गुरुओं की बातें हैं ,जो अपनी शिक्षा द्वारा देश के भविष्य यानि भावी युवाओं का निर्माण करने में सहायक होते हैं।
इसी तरह गृहस्थ जीवन में आकर मनुष्य अनेक परेशानियों में घिर जाता है ,और अपने आध्यात्मिक गुरु सेअपनी परेशानियाँ साझी करते हैं। आध्यात्मिक गुरु के पास वे अपनी सामाजिक और आर्थिक परेशानियों से मुक्त होने जाते हैं कि कुछ मानसिक शांति मिले, लेकिन आध्यात्मिक गुरु अपने विचारों व बातचीत से इस प्रकार मोहित कर देते हैं कि वो सही -गलत नहीं सोच पाते। और गुरु उनकी परेशानियों को उन्हीं के दिए अर्थ द्वारा ही दूर करते हैं। जिस गुरु ने घर ,परिवार त्याग दिया ,उसका अर्थ से क्या प्रयोजन ?और धीरे -धीरे वो आध्यात्मिक गुरु व्यवसायी बन जाता है। वातानुकूलित गाड़ियों में घूमता है। आगे -पीछे कार्य करने के लिए सेवादार होते हैं। घर -गृहस्थी वालों से दान के नाम पर धन खींचकर बड़े -बड़े मठ ,सतसंग घर और आश्रम स्थापित कर लेते हैं। न जाने कितनी एकड़ जमीन आश्रमों के नाम पर हड़प लेते हैं।
कोई उनसे पूछे कि ये सम्पत्ति उन्होंने कहाँ से बनाई ?क्या वो कोइ बड़ेअफसरहैं।,या इंजीनियर ,जो भी हो, ये पैसा तो आता है उन गृहस्थियों से ,जो अपनी परेशानियों को उन गुरुओं से सुलझाने आते हैं और खाली हाथ वापस लौट जाते हैं। आज का मानव इतना डरा हुआ है कि गुरु के विरुद्ध सोचना भी पाप समझता है और परिस्थितियां उसे इतना तोड़ देती हैं कि वो गुरु का विरोध करने की हिम्मत भी नहीं कर पाता। गुरु भी तब तक इतना शक्तिशाली हो जाता है ,बड़े -बड़े नेताओं में उनकी पहुंच होती है। यदि कोई उनके ख़िलाफ़ जाने की हिम्मत भी करता है तो साम ,दाम , दंड ,भेद किसी भी तरीक़े से उस आवाज को दबा दिया जाता है। इसी के दुष्परिणाम के रूप में आशाराम बापू राम -रहीम जैसे आध्यात्मिक गुरु पनप पाए ,इन लोगों पर इतना पैसा आया कहाँ से ?सेवा के नाम पर लोगों से मुफ़्त काम करवाते हैं, व व्यापार करते हैं। इन गुरुओं ने जब संसार त्याग दिया तो समाज या सामाजिक कार्यों से क्या प्रयोजन ?
कृपया पढ़कर अपने विचार भी व्यक्त करें ,धन्यवाद।


