बेटी के विवाह की तैयारियाँ बड़े जोर -शोर से चल रहीं थीं ,बड़ी मुश्किल रिश्ता तय हुआ था। कभी कोई अड़चन कभी कोई ,उसके साथ की लड़कियों के तो बच्चे भी हो गए। कहीं कोई बात ही नहीं बन रही थी ,पता नहीं इसकी क़िस्मत में क्या लिखा है ?एक जगह बात बनी भी तो तोड़नी पड़ी ,वो तो बड़ा ही शक्क़ी स्वभाव का निकला। इस बीच इसके पिता की तबियत बिगड़ गई ,राम -राम करके बचे। अगर ये चले जाते तो हमारा क्या होता ?इन परेशानियों से एक बात तो पता चली कि जिनसे उम्मीद होती है ,वो साथ नहीं होते। सहारा वो लोग दे जाते हैं ,जिनके बारे में कभी सोचा ही नहीं। ख़ैर !छोड़ो अब कोई परेशानी न आये ,सब सही सलामत हो जाए। सभी को निमंत्रण -पत्र भी भेज दिये और फ़ोन से भी सबको बुलावा दे दिया है। अब आप बताओ किसी और को निमंत्रण भिजवाना हो तो। नहीं भाभी जो आप लोगों ने किया ठीक है ,चलो !बान की रस्म कर लेते हैं।
सारी रस्में हो गई थीं ,बस एक ही रस्म रह गई थी जो अभी होनी बाकी थी। बार -बार सुमन की निगाह दरवाज़े पर जाती ,जैसे किसी का इंतज़ार कर रही हो फिर निराशा से अपने काम में लग जाती। किसी से कहे भी तो क्या ?उसे स्वयं को ही चार बातें सुनने को मिलेंगी। किसी से कुछ कह भी नहीं पा रही थी। अंदर ही अंदर घुट रही थी ,तभी लड़की को ले जाने के लिए उसकी सहेलियाँ आ गईं ,उन सबको तैयार होने के लिये पार्लर में जो जाना था। तभी राजेश ने कहा -लड़की तैयार होकर मंडप में ही पहुँचेगी और सारे मेहमान भी वहीं आयेंगे ,सब तैयार होकर मंडप में पहुँचो। सब तैयार होने लगे तब एक उम्मीद बंधी कि शायद मंडप में ही हो। सब आवश्यक सामान समेटकर वो सबके साथ मंडप में पहुँची।
मेहमान आने शुरू हो गए थे ,सुमन दरवाज़े के नज़दीक ही अपनी कुर्सी डालकर बैठ गई जिससे आने वालों का उसे पता चलता रहे। कुछ देर बाद ही उसे वहाँ से उठना पड़ा। जयमाला का समय हो गया था ,जयमाला के बाद वे लोग फेरों के लिए चले गए। अब तो उसे उम्मीद टूटती नजर आ रही थी। उसने अपने -आप से ही मन ही मन प्रश्न किया -ऐसी मेरी क्या ग़लती थी कि वो नहीं आया ?मैंने तो फ़ोन भी किया था कि समय पर पहुँच जाना। रस्म निभाने नहीं आता तो कम से कम विवाह में तो आ जाता। लड़की को आशीर्वाद ही दे देता। कन्यादान भी हो गया ,अब तो उस पर क्रोध आ रहा था। 'कोई नाराजग़ी भी थी तो बाद में बैठकर सुलझा लेते ,नाराज़गी जताने का उसने ये ही दिन चुना।
साथ बैठकर बातचीत करते ,गिले -शिक़वे दूर करते। इतना गरीब भी नहीं कि रस्म नहीं निभा सकता था। वो इतना कठोर कैसे हो सकता है ?लड़की के विवाह में उसके ताऊ ,चाचा और अनेक रिश्तेदार आए आया नहीं तो उसका मामा। मैं भी तो उम्मीद रखती थी कि मेरे मायके से मेरी भाभी ,भइया और उनके बच्चे भी आते ,भात देते , पटरे पर खड़े होते। सब कुछ होते हुए भी ,मैं निराश थी कि मेरी बेटी के विवाह में मेरा ही अपना परिवार नहीं आया। राजेश से कहती तो और चिढ़ जाते -कहते तेरे परिवार वाले तो ऐसे ही हैं ,समय पर कभी नहीं आते। इस बात का ताना भी कई बार दे चुके हैं कि जब मैं बीमार था तब भी कोई देखने नहीं आया। मैंने इस बात को भुलाकर भी उसे निमंत्रण दिया ,उसने तो तब भी मेरा मान नहीं रखा। कम से कम आकर अपनी भांजी को आशीर्वाद ही दे जाता। मेरे मन को तसल्ली हो जाती की वो आया। उसका मन अंदर ही अंदर रो रहा था।
कैसे हो जाते हैं लोग ,बड़े होकर? कितने प्यार से रहते थे हम दोनों। झगड़ते भी थे फिर एक हो जाते थे। कुछ परेशानी होती या कोई गलती करता, मैं अपने ऊपर ले लेती फिर मुझे डांट पड़ती। क्या भाई के इसीलिए राखी बाँधते हैं कि जब बहन को उसकी अपने परिवार की ज़रूरत हो तो अपना चेहरा भी न दिखाए। उसने तो राखी की भी लाज़ नहीं रखी। कम से कम आकर ही खड़ा हो जाता ,मुझे लगता कि मेरे घर से भी मेरा अपना कोई मेरे साथ खड़ा है। उसकी आँखों के कोरों में पानी आ गया। भाई ने तो ये भी नहीं सोचा कि बहन दरवाज़े पर खड़ी तेरी राह देखती होगी। लोगों से क्या कहेगी कि उसकी अपनी बेटी के विवाह में उसका अपना सगा भाई ही नहीं आया। आँसू पोंछते हुए ननद ने देख लिया। सोचा बेटी की विदाई है इसीलिए रो रही है। झट से उन्होंने गले लगा लिया बोलीं -बेटी तो दूसरे की अमानत है ,ये तो जाएगी ही। इसे तो अपने घर जाना ही होता है। बेटी का ध्यान आते ही मेरी रुलाई फूट गई। मैं उसके पास गई और गले लगकर ख़ूब रोई बोली -बेटा वो नहीं आया। वो समझ गयी कि मम्मी क्यों परेशान थीं। उसने कहा -कोई बात नहीं मम्मी ,आप चिंता न करो क्योंकि मेरी बेटी ही मेरा दुःख समझ सकती थी। सबने सोचा बेटी की विदाई में रो रही है लेकिन मैं तो एक दिल से जुड़े रिश्ते के टूटने का दर्द झेल रही थी एक नए रिश्ते के जुड़ने के साथ भावनाओं से जुड़ा रिश्ते की विदाई का ग़म था। न जाने कब तक मैं बेटी से लिपटकर रोती रही ,दोनों की विदाई में।
सारी रस्में हो गई थीं ,बस एक ही रस्म रह गई थी जो अभी होनी बाकी थी। बार -बार सुमन की निगाह दरवाज़े पर जाती ,जैसे किसी का इंतज़ार कर रही हो फिर निराशा से अपने काम में लग जाती। किसी से कहे भी तो क्या ?उसे स्वयं को ही चार बातें सुनने को मिलेंगी। किसी से कुछ कह भी नहीं पा रही थी। अंदर ही अंदर घुट रही थी ,तभी लड़की को ले जाने के लिए उसकी सहेलियाँ आ गईं ,उन सबको तैयार होने के लिये पार्लर में जो जाना था। तभी राजेश ने कहा -लड़की तैयार होकर मंडप में ही पहुँचेगी और सारे मेहमान भी वहीं आयेंगे ,सब तैयार होकर मंडप में पहुँचो। सब तैयार होने लगे तब एक उम्मीद बंधी कि शायद मंडप में ही हो। सब आवश्यक सामान समेटकर वो सबके साथ मंडप में पहुँची।
मेहमान आने शुरू हो गए थे ,सुमन दरवाज़े के नज़दीक ही अपनी कुर्सी डालकर बैठ गई जिससे आने वालों का उसे पता चलता रहे। कुछ देर बाद ही उसे वहाँ से उठना पड़ा। जयमाला का समय हो गया था ,जयमाला के बाद वे लोग फेरों के लिए चले गए। अब तो उसे उम्मीद टूटती नजर आ रही थी। उसने अपने -आप से ही मन ही मन प्रश्न किया -ऐसी मेरी क्या ग़लती थी कि वो नहीं आया ?मैंने तो फ़ोन भी किया था कि समय पर पहुँच जाना। रस्म निभाने नहीं आता तो कम से कम विवाह में तो आ जाता। लड़की को आशीर्वाद ही दे देता। कन्यादान भी हो गया ,अब तो उस पर क्रोध आ रहा था। 'कोई नाराजग़ी भी थी तो बाद में बैठकर सुलझा लेते ,नाराज़गी जताने का उसने ये ही दिन चुना।
साथ बैठकर बातचीत करते ,गिले -शिक़वे दूर करते। इतना गरीब भी नहीं कि रस्म नहीं निभा सकता था। वो इतना कठोर कैसे हो सकता है ?लड़की के विवाह में उसके ताऊ ,चाचा और अनेक रिश्तेदार आए आया नहीं तो उसका मामा। मैं भी तो उम्मीद रखती थी कि मेरे मायके से मेरी भाभी ,भइया और उनके बच्चे भी आते ,भात देते , पटरे पर खड़े होते। सब कुछ होते हुए भी ,मैं निराश थी कि मेरी बेटी के विवाह में मेरा ही अपना परिवार नहीं आया। राजेश से कहती तो और चिढ़ जाते -कहते तेरे परिवार वाले तो ऐसे ही हैं ,समय पर कभी नहीं आते। इस बात का ताना भी कई बार दे चुके हैं कि जब मैं बीमार था तब भी कोई देखने नहीं आया। मैंने इस बात को भुलाकर भी उसे निमंत्रण दिया ,उसने तो तब भी मेरा मान नहीं रखा। कम से कम आकर अपनी भांजी को आशीर्वाद ही दे जाता। मेरे मन को तसल्ली हो जाती की वो आया। उसका मन अंदर ही अंदर रो रहा था।
कैसे हो जाते हैं लोग ,बड़े होकर? कितने प्यार से रहते थे हम दोनों। झगड़ते भी थे फिर एक हो जाते थे। कुछ परेशानी होती या कोई गलती करता, मैं अपने ऊपर ले लेती फिर मुझे डांट पड़ती। क्या भाई के इसीलिए राखी बाँधते हैं कि जब बहन को उसकी अपने परिवार की ज़रूरत हो तो अपना चेहरा भी न दिखाए। उसने तो राखी की भी लाज़ नहीं रखी। कम से कम आकर ही खड़ा हो जाता ,मुझे लगता कि मेरे घर से भी मेरा अपना कोई मेरे साथ खड़ा है। उसकी आँखों के कोरों में पानी आ गया। भाई ने तो ये भी नहीं सोचा कि बहन दरवाज़े पर खड़ी तेरी राह देखती होगी। लोगों से क्या कहेगी कि उसकी अपनी बेटी के विवाह में उसका अपना सगा भाई ही नहीं आया। आँसू पोंछते हुए ननद ने देख लिया। सोचा बेटी की विदाई है इसीलिए रो रही है। झट से उन्होंने गले लगा लिया बोलीं -बेटी तो दूसरे की अमानत है ,ये तो जाएगी ही। इसे तो अपने घर जाना ही होता है। बेटी का ध्यान आते ही मेरी रुलाई फूट गई। मैं उसके पास गई और गले लगकर ख़ूब रोई बोली -बेटा वो नहीं आया। वो समझ गयी कि मम्मी क्यों परेशान थीं। उसने कहा -कोई बात नहीं मम्मी ,आप चिंता न करो क्योंकि मेरी बेटी ही मेरा दुःख समझ सकती थी। सबने सोचा बेटी की विदाई में रो रही है लेकिन मैं तो एक दिल से जुड़े रिश्ते के टूटने का दर्द झेल रही थी एक नए रिश्ते के जुड़ने के साथ भावनाओं से जुड़ा रिश्ते की विदाई का ग़म था। न जाने कब तक मैं बेटी से लिपटकर रोती रही ,दोनों की विदाई में।

