कई बार इच्छा हुई कि घर जाकर माँ की गोद में सर रखकर लेटी रहुँ ,उसे अपने दिल की बात बताऊँ। किस तरह ससुराल में मैं घुट -घुटकर जी रहीं हूँ ?किस तरह मैं मानसिक परेशानियाँ झेलते -झेलते ,धीरे -धीरे टूटती जा रही हूँ ?जिंदगी के धक्के खा -खाकर मैं किस तरह मानसिक व शारीरिक रूप से जर्र -जर्र होती जा रही हूँ ?लगता, उसके आँचल में लिपटकर देर तक रोती रहुँ। उम्मीदों की पोटली लिए मैं अपनी माँ के पास पहुँची। माँ को तो बच्चे की हालत देखते ही पता चल जाता है कि मेरा बालक कैसा है ?कैसे विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहा है ?किस तरह से उसे हिम्मत देनी है ?कैसे उसे बिखरते हुए को सँजोना है ?कैसे अपने प्यार से उस डूबती नैया को उबारना है ?ये तो सिर्फ़ बातें हैं ,मेरा भ्र्म है। किताबों में होती होंगी ऐसी माँ। ऐसी ही माँ को ढूढ़ रही थी मैं वहाँ ,पर वो तो अजनबी लगी। या मैं उनके लिए अज़नबी हो गई ,मेहमान बन गई।
दिल किया माँ के गले लगूँ ,देर तक लिपटी रहुँ पर उसे तो फ़ुरसत ही नहीं कि वो पास भी बैठ सके। वो तो उस घर में रह रहे भाभी -भइया ,पोते -पोतियों में बटी ऐसी नारी थी जो नारी का ही दर्द न समझ सकी। उसने तो एहसास ही करा दिया कि आँचल तो आँचल ,ये घर भी तेरा नहीं है। तीखे शब्द बाण उस आहत तन मन को और आहत कर रहे थे। लग रहा था ये वो माँ नहीं ,जो बेटी का आहत मन देख स्वयं आहत हो जाती है। अपने आँचल में छुपा लेती है ,प्यार से शब्दों का मरहम लगाती है। ये तो कलयुगी माँ है इनके पास आँचल कहाँ ?ये तो व्यस्त जीवन व्यतीत करने वाली जिनके पास प्यार के दो शब्द भी नहीं।
इस आधुनिक व्यस्ततम जीवन में भी सोच वही पुरानी। अब ये घर तुम्हारा नहीं ,घर की मान -मर्यादा का ख़्याल रखो ,नाक नहीं कटवा देना ,समाज में हमारी इज्ज़त है। वो उन्हें और उस घर को देख रही थी ,कि पहनावे और रहन -सहन से तो आधुनिक हो गए हैं लेकिन सोच वही। आधुनिक पहनावे में उसे वही पुराने लोग नज़र आ रहे थे। जैसे किसी गिरगिट ने नया रंग बदला हो। सोच से तो वे वही पुराने परम्परावादी लोग हैं ,सोच तो नहीं बदली। जो समाज के लिए ,इज्ज़त के लिए बेटी की भावनाओं से तो क्या उसकी जान से खेल जाये। वो हताश बेसहारा सोचती है मेरा घर कहाँ है ?
उस निर्दयी परिवार में जो किसी न किसी बहाने प्रताड़ित करता है या उस पति का जो अपनी बात भी नहीं रख पाता ,जो अपने ही स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर सकता वो मेरी मान मर्यादा का ख़्याल कैसे रख सकता है ?क्या हमारी खुशियों का कोई मोल नहीं ?क्या ऐसे घर परिवार बनते हैं ?मेरे आँसुओं मेरे अरमानों कुर्बानी से। मैं तो मान मर्यादा और इज्जत की गठरी लिए न इधर की न उधर की रही। माता -पिता ने अपनी जिम्मेदारी का बोझ उतारा और ससुराल में अपनी जगह बनाने के लिए ,कितनी मानसिक ,शारीरिक परेशानियों से गुजरते हैं। हमने दोनों घर की इज्ज़त को संभाले रखने का ठेका लिया है। हमारी इज्ज़त हो या न हो।
हम तो मान मर्यादा की चक्की के दो पाटों में पिस रहे हैं। हमारे सपने ,इच्छाएं हमारा जीवन इसमें हम जियेंगे या जी जायेंगे। समय के हाथ है कि इस लड़ाई में जीत किसकी होगी? परम्पराओं की या नई सोच की। ये समय के हाथ में है पर मैं उन दो घरों के बीच अकेली खड़ी हूँ। मान मर्यादा की गठरी लिए।

