विनय की कहानी आज फिर इस अंक में छपी है ,साप्ताहिक पत्रिका में हर बार एक कहानी छप ही जाती है। मैं हर बार वो पत्रिका लेता ,उसकी कहानियाँ बड़े चाव से पढ़ता। हर अंक में उसकी एक नई कहानी होती। मैंने उसकी कहानियों को संग्रह करके रखा हुआ था। अचानक मेरा ध्यान उसकी अब तक की सभी कहानियों पर गया ,मैंने देखा कि उसकी अधिकतर कहानियाँ ग़रीबी या गरीबों पर ही लिखी थीं। उनके विचार लिखता कि वो ग़रीबी में रहकर कितनी ऊंची सोच रखते हैं। कितने आदर्शवादी विचार रखते है। मान -सम्मान के साथ जीते हैं ,कोई उनकी भावनाओँ से खेलने का प्रयत्न करता है तो किसी भी परिस्थिति में उसका मुँह तोड़ ज़बाब देने की हिम्मत रखते हैं। उसकी कहानी के पात्र बेबस ,लाचार या बेसहारा नहीं बल्कि मेहनत करके शान से सर उठा कर जीते हैं।
कहानियाँ पढ़कर लगता की सारे आदर्शवादी विचार ,स्वाभिमान ,मान -सम्मान और मेहनत सब कामवाली बाई या अन्य किसी ग़रीब के ही पास है। मैं अक़सर सोचता ग़रीब को इतनी फ़ुरसत ही कहाँ है ?कि वो ऐसी बातें सोचे। वो तो दो वक़्त की रोटी के लिए दिन -रात मेहनत करता है ,तब जाकर उसे पेट भर रोटी मिलती है। वो तो रोज़गार ढूंढता है ,कहीं से दो पैसे मिल जाएं ,कहीं से आमदनी बढ़ने का ज़रिया मिले। कई बार तो ग़रीबी वो करा देती है जो वो करना ही नहीं चाहता।पैसे के लिए झूठ -सच भी बोल जाता है। आदर्शों से पेट नहीं भरता वरन पेट के लिए कभी -कभी आदर्श भी त्यागने पड़ जाते हैं। हम भी तो ग़रीब ही थे ,इतनी मेहनत के बाद भी ,बस ठीक -ठाक ही कमा पाते हैं।
जब सारे काम ग़रीब ही कर रहे हैं। गरीब और अनपढ़ होने के बाद भी भूखे पेट आत्मसम्मान से जी लेते हैं। तोआदर्शवादी ,पढ़े -लिखे बुद्धिजीवी ,अमीर लोग क्या सभी छोटी सोच रखते हैं ,कभी ग़रीब की मदद नहीं करते ,सभी अमीर ज़ालिम अत्याचारी होते हैं। किसी भी अमीर में स्वाभिमान और आदर्श नहीं होते। मध्यम वर्गीय परिवार से पूछो -'वो तो दो पाटो में पिसा है ,न वो इतना अमीर कि अपनी और बच्चों की सभी इच्छओ की पूर्ति कर सके ,न ही इतना ग़रीब कि भीख मांग कर गुजारा कर सके। अपने आत्मसम्मान अपनी गरिमा को बनाये रखने के लिए दिन -रात मेहनत करता है। किसी से मदद भी नहीं ले सकता क्योंकि उसके परिवार की भी एक गरिमा है उसकी अपनी नजरों में।
उसकी कहानी में बच्चा भूखे पेट है ,उसकी मालकिन उसके बच्चे को अच्छा खाना देती है लेकिन उसकी माँ उसे वो खाना नहीं लेने देती क्योंकि यदि वह वो खाना खायेगा तो उसकी दुबारा इच्छा होगी , वही खाना खाने की ,यदि वो दोबारा माँगता है उसके न देने पर , असमर्थ होने पर वो ज़िद करेगा ,या फिर चोरी भी कर सकता है।उसकी कहानी के पात्र कितना सोच लेते हैं। सच्चाई तो ये है कि रोटी के लिए ही मेहनत करते हैं। ये वो अपना अधिकार भी समझते हैं कि उस परिवार से कुछ न कुछ अच्छा सा मिले जिस परिवार की वो सेवा कर रहे हैं लेकिन उसकी कहानी के पात्र कुछ ज्यादा ही उच्च विचारों वाले हैं कि बच्चा चाहे भूखा रहे लेकिन उसकी माँ उसे वो खाना नहीं लेने देगी।
मैंने विनय से कहा ,तो वो बोला -ऐसी भाव पूर्ण कहानी न लिखुँ तो छपती नहीं। कुछ कहानियाँ सच्चाई से ओत -प्रोत आज भी पड़ी हैं जो छपी नहीं। जो छपती हैं वही लिखता हूँ। मुझे भी तो पैसे चाहिए। खाली पेट उसूल व आदर्शों से नहीं भरता। गरीब व ग़रीबी से जुडी ,भावनात्मक कहानियाँ ही छपती हैं ,वही बिकती भी हैं। मेरा काम तो इसी से चलता है। एक से एक लेखक बैठे हैं। अपनी इच्छा से लिखुँगा तो मैं ही पढुँगा। आदर्शों से पेट नहीं भरता। बात वही जो लोगों को झकझोरे चाहे कैसे भी? बात लोगों तक पहुँचे। लोग पढ़ने पर मजबूर हो जाये। गरीब का पेट भरे या न भरे पर ग़रीब की कहानी से तो किसी न किसी का पेट तो भरेगा ही। उसको समाज में मेहनती ,आदर्शवादी और सच्चा किसी भी रूप में प्रस्तुत करें। कहानियों में तो उसका सम्मान बना ही रहेगा कि देश का गरीब कितना स्वाभिमानी है और हमारी रोजी -रोटी भी।
कहानियाँ पढ़कर लगता की सारे आदर्शवादी विचार ,स्वाभिमान ,मान -सम्मान और मेहनत सब कामवाली बाई या अन्य किसी ग़रीब के ही पास है। मैं अक़सर सोचता ग़रीब को इतनी फ़ुरसत ही कहाँ है ?कि वो ऐसी बातें सोचे। वो तो दो वक़्त की रोटी के लिए दिन -रात मेहनत करता है ,तब जाकर उसे पेट भर रोटी मिलती है। वो तो रोज़गार ढूंढता है ,कहीं से दो पैसे मिल जाएं ,कहीं से आमदनी बढ़ने का ज़रिया मिले। कई बार तो ग़रीबी वो करा देती है जो वो करना ही नहीं चाहता।पैसे के लिए झूठ -सच भी बोल जाता है। आदर्शों से पेट नहीं भरता वरन पेट के लिए कभी -कभी आदर्श भी त्यागने पड़ जाते हैं। हम भी तो ग़रीब ही थे ,इतनी मेहनत के बाद भी ,बस ठीक -ठाक ही कमा पाते हैं।
जब सारे काम ग़रीब ही कर रहे हैं। गरीब और अनपढ़ होने के बाद भी भूखे पेट आत्मसम्मान से जी लेते हैं। तोआदर्शवादी ,पढ़े -लिखे बुद्धिजीवी ,अमीर लोग क्या सभी छोटी सोच रखते हैं ,कभी ग़रीब की मदद नहीं करते ,सभी अमीर ज़ालिम अत्याचारी होते हैं। किसी भी अमीर में स्वाभिमान और आदर्श नहीं होते। मध्यम वर्गीय परिवार से पूछो -'वो तो दो पाटो में पिसा है ,न वो इतना अमीर कि अपनी और बच्चों की सभी इच्छओ की पूर्ति कर सके ,न ही इतना ग़रीब कि भीख मांग कर गुजारा कर सके। अपने आत्मसम्मान अपनी गरिमा को बनाये रखने के लिए दिन -रात मेहनत करता है। किसी से मदद भी नहीं ले सकता क्योंकि उसके परिवार की भी एक गरिमा है उसकी अपनी नजरों में।
उसकी कहानी में बच्चा भूखे पेट है ,उसकी मालकिन उसके बच्चे को अच्छा खाना देती है लेकिन उसकी माँ उसे वो खाना नहीं लेने देती क्योंकि यदि वह वो खाना खायेगा तो उसकी दुबारा इच्छा होगी , वही खाना खाने की ,यदि वो दोबारा माँगता है उसके न देने पर , असमर्थ होने पर वो ज़िद करेगा ,या फिर चोरी भी कर सकता है।उसकी कहानी के पात्र कितना सोच लेते हैं। सच्चाई तो ये है कि रोटी के लिए ही मेहनत करते हैं। ये वो अपना अधिकार भी समझते हैं कि उस परिवार से कुछ न कुछ अच्छा सा मिले जिस परिवार की वो सेवा कर रहे हैं लेकिन उसकी कहानी के पात्र कुछ ज्यादा ही उच्च विचारों वाले हैं कि बच्चा चाहे भूखा रहे लेकिन उसकी माँ उसे वो खाना नहीं लेने देगी।
मैंने विनय से कहा ,तो वो बोला -ऐसी भाव पूर्ण कहानी न लिखुँ तो छपती नहीं। कुछ कहानियाँ सच्चाई से ओत -प्रोत आज भी पड़ी हैं जो छपी नहीं। जो छपती हैं वही लिखता हूँ। मुझे भी तो पैसे चाहिए। खाली पेट उसूल व आदर्शों से नहीं भरता। गरीब व ग़रीबी से जुडी ,भावनात्मक कहानियाँ ही छपती हैं ,वही बिकती भी हैं। मेरा काम तो इसी से चलता है। एक से एक लेखक बैठे हैं। अपनी इच्छा से लिखुँगा तो मैं ही पढुँगा। आदर्शों से पेट नहीं भरता। बात वही जो लोगों को झकझोरे चाहे कैसे भी? बात लोगों तक पहुँचे। लोग पढ़ने पर मजबूर हो जाये। गरीब का पेट भरे या न भरे पर ग़रीब की कहानी से तो किसी न किसी का पेट तो भरेगा ही। उसको समाज में मेहनती ,आदर्शवादी और सच्चा किसी भी रूप में प्रस्तुत करें। कहानियों में तो उसका सम्मान बना ही रहेगा कि देश का गरीब कितना स्वाभिमानी है और हमारी रोजी -रोटी भी।

