vo mulakat

सुबह -सुबह जल्दी  तैयार होकर स्टेशन  लिए भागी। शुक्र है ,रिक्शा जल्दी ही मिल गया। घर से निकलने से पहले उसने दीपा और सहेलियों को फोन करके कह दिया था कि तैयार होकर स्टेशन पर ही आ जाना। सुबह छह बजे की ट्रेन है हमारी। मौसम गर्मी का था ,लेकिन सुबह -सुबह का मौसम बड़ा ही सुहावना था। ठंडी -ठंडी हवा चेहरे को छू रही थी ,सुबह की ताज़गी से मन बहुत ही प्रफुल्लित हो गया था। मैं  सोच रही थी कि हम रोज़ सुबह क्यों नहीं उठते? बस आलस में पड़े रहते हैं। आज भी अगर जाना न होता तब भी बिस्तर में होते। मुंबई से आकर अब रोज़ सुबह जल्दी उठा करुँगी। रिक्शे वाले ने अपना रिक्शा  किनारे लगाया। मैंने उसे पैसे देकर और अपना सामान लेकर स्टेशन की तरह तेजी से कदम बढ़ाये ,वहाँ पहुंचकर ही दम लिया। घड़ी में देखा अभी ट्रेन आने में आधा घंटा है। मैं एक बैंच पर बैठकर ट्रेन व सहेलियों का इंतजार करने लगी।

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                  मैंने चारों तरफ नजरें घुमाकर देखा ,कुछ लोग मेरी ही तरह इंतजार में थे। दो -चार व्यक्ति अख़बार में सिर घुसाये बैठे थे ,सफाई कर्मचारी सफाई में लगा था। चारों तरफ निग़ाह डालकर मैंने घड़ी पर निग़ाह डाली। दीपा और पदमा अभी तक नहीं पहुंची थीं। पंद्रह मिनट ही रह गए थे ,अब मुझे थोड़ी चिंता होने लगी। तभी दूर  से वो तीनों आती दिखाई दीं। थोड़ी ही नोक-झोंक हुई थी कि गाड़ी आ गई।  हम चारों ने अपना -अपना सामान उठाया ट्रेन की तरफ भागे। हमने पहले ही अपनी सीट आरक्षित करवा लीं थीं। हम अपनी-अपनी सीटों पर जा बैठे। कुछ लोग उतर रहे थे ,कुछ हमारी तरह चढ़े थे। मन में बड़ा उल्लास था घूमने का। गाड़ी ने धीरे -धीरे अपनी रफ़्तार बढ़ा दी। 
         अभी एक ही स्टेशन छूटा था कि एक लड़का और एक आदमी हमारे डिब्बे में चढ़े। पता चला कि वो लोग भी वहीं जा रहे हैं लेकिन उनकी कोई आरक्षित सीट नहीं थी। पहले तो हम सोच रहे थे आराम से बैठेंगे। किसी को ऐसे ही नहीं बिठायेंगे ,जब पता चला कि वो लोग भी वहीं जा रहे हैं तो हमने बैठने के लिए जगह बना दी। उन्होंने बताया हमारा काम ही कुछ ऐसा है कि हम तीसरे -चौथे दिन आते -जाते रहते हैं। मैंने इशारे से जूही को मना कर दिया ज्यादा बात न करे। हम आपस में ही बात करते ,ताश खेलते जा रहे थे। मैंने देखा कि वो लड़का बार -बार दीपा की तरफ देखे जा रहा है। मैंने इशारे से औरों को भी बताया ,हम इशारों ही इशारों में सतर्क हो गए गाड़ी अपनी तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़े जा रही थी। 
              हमने खाना खाया वो हमारी तरफ देख रहे थे जूही ने पूछ ही लिया -अंकल खाना खायेंगे ?उन्होंने नहीं में गर्दन हिलाई उन्होने गाड़ी में ही खाने का आर्डर दे दिया था लेकिन फिर भी उस लड़के ने जूही के हाथ से वो पूड़ी ले ली। और हमारे नजदीक आकर बैठ  गया। हमने चुपचाप खाना खाया और चुप बैठ  गए जिससे उसकी हिम्मत न पड़े आगे बोलने की ,लेकिन वो बीच -बीच में दीपा को ताड़ ही लेता था। उसने जूही से बातचीत करनी 
शुरू की। बातों ही बातों में बोला -आपकी सहेली सुंदर है ,क्या नाम है इनका ?कहाँ रहती हैं ?अब वो समझ गई कि वो दीपा के बारे में जानकारी लेने के लिए बात करने की कोशिश कर  रहा था और भी बहुत सी बातें की लेकिन घूम -फिरकर दीपा के बारे में जानकारी मांगने लगता। 
               उसके हटते ही जूही ने खुलासा किया ,ये तो दिल का मामला है। वो अपनी दीपा पर दिल हार चुका  है। दीपा ने कहा -क्या ऐसा उसने तुझसे कहा ?नहीं पर उसकी बातों से लगता है। बातचीत करने के बाद से वो कुछ ज्यादा ही चहक रहा था। अपने व्यवहार से ऐसे दर्शा रहा था जैसे हम उसके ही साथ हों ,हम उसकी जिम्मेदारी हों ,हम समझ रहे थे हमारे बहाने से वो दीपा के नज़दीक आना चाह रहा था।ऐसा लगता था कि  अपनी बातों से अपने व्यवहार से वो दीपा को प्रभावित करना चाहता हो। लेकिन दीपा इसे नज़र अंदाज करके ऊपर बर्थ पर चली गई और हमें भी हिदायत दे गई की ज्यादा बातें न करो। मीठे बोलकर ही लोग ठगते हैं। हमे कुछ गलत नहीं लगा। हम कुछ देर तक ताश खेलते रहे फिर हम भी आराम के लिए अपनी -अपनी बर्थ पर लेट गए।
                       तभी अचानक कुछ लड़के उस डिब्बे में घुसे ,इससे पहले हम कुछ समझ पाते। वो लड़का और उसके चाचा हमारी ढाल बनकर ऐसे बैठ गए जैसे हमारे ही साथ हों। उनके इस तरह के व्यवहार से हम अपने को सुरक्षित महसूस कर  रहे थे। उनके प्रति हमारे मन में सम्मान की भावना घर कर  गई। दो- तीन स्टेशन बाद वो लोग चले गए तब हमने राहत की साँस ली। सुबह होने वाली थी,दूसरी तरफ से वो लड़का यानि की आशीष बर्थ पर चढ़ा। काँपती आवाज़ में उसने दीपा  कहा -आप मुझे पसंद हैं ,क्या मैं भी आपको पसंद हूँ ?यदि हाँ तो ये मेरा फोन नंबर है मुझे कॉल करना। उस बर्थ की जाली में से एक छोटी सी पर्ची खिसका दी -बोला इसमें मेरा पता भी है। दीपा बुरी तरह घबरा गई वो नीचे उतर आई। पूरा समय कैसे बीत गया ?पता ही नहीं चला। हमने अपना -अपना सामान उठाया और चल दिए। वो हमें दूर तक जाते हुए देखता रहा। कुछ लोग कभी-कभी ऐसे मिलते हैं कि जिंदगी पर अपनी छाप छोड़ जाते हैं ऐसा ही आशीष भी था दीपा ने वो पर्ची मुझे दिखाई और फिर वहीं फ़ेंक दी, वो समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे? वो एकदम शांत थी। 
         हम सब घूमने निकले ,समुन्द्र के किनारे हम बैठे अठखेलियां कर रहे थे। दीपा दूर कहीं क्षितिज़ में कुछ ढूंढ  रही थी। मैंने पूछा -क्या देख रही हो ?बोली -ऐसे लगता है ,जैसे उस सफ़र में कुछ छूट सा गया है ,उसे ही ढ़ूढ़ने की कोशिश कर रही हूँ। कहते हैं ,अजनबियों पर भरोसा मत करो ,पर पता नहीं उस पर भरोसा हो गया। तो फिर तुमने उसका फोन नंबर क्यों फेंक दिया ?मैंने कहा। वो बोली -पछता तो मैं भी रही हूँ लेकिन रखने का भी कोई फायदा नहीं था। तू तो जानती ही है मेरे घर वालों को ,ऐसा कुछ नहीं होने देते। हम कई जगहों पर घूमने 
गए पर उसकी नजरें आशीष को तलाश रही थीं। काश !कि वो कहीं दिख जाये या पीछे से आकर अपनी मधुर आवाज़ में मुस्कुराकर कहे -हैलो !
       कई  साल बीत गए ,दीपा की शादी भी हो गई ,लेकिन वो मुलाक़ात आज भी उसके चेहरे पर मुस्कुराहट ला देती है। हवा के झोंके सी उसकी यादों को तरोताज़ा कर  जाती है।

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laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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