धर्मेश बहुत देर से बैठा कुछ सोच रहा था ,फिर उसने मन ही मन कुछ फैसला किया। उसके बाद वो सुनीता से बोला -ये तुम्हारा आख़िरी फैसला है ?तब तक वो उठकर रसोईघर में जा चुकी थी। वहीं से बोली -हाँ और अपने काम में लगी रही। धर्मेश उठा और सोचता हुआ चल दिया। उसने किसी से फोन पर बात की और थके कदमों से अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।
अगले दिन मकान के पिछले हिस्से में तोड़ -फोड़ आरम्भ हो गई। सुनीता को कुछ समझ नहीं आ रहा था ,कि ये क्या हो रहा है ?उसने पूछा भी ,ये क्यों करवा रहे हो ?लेकिन उसने जबाब दिया -बस देखती जाओ।उसे सुनीता के व्यवहार पर बहुत दुःख हुआ था। उसे उससे ऐसी उम्मीद नहीं थी। धर्मेश को आज भी याद है,' जब वो छोटा था ,माँ उसका कितना ख़्याल रखती थी। हर चीज समय पर देना ,उसके कुछ कहने से पहले ही समय पर वोचीज हाज़िर हो जाती थी। हम दोनों भाइयों का ही पूरा -पूरा ख्याल रखतीं। जब में पढ़ने बैठता तो पास में फ़ल काटकर रख देतीं ,दूध रख देती कि मेरी पढ़ाई में किसी प्रकार की दिक्क़त न आये। जब पेपर होते तो जगती रहतीं ,स्वेटर बुनती रहतीं ,जम्हाई लेती। मैं समझता था ,माँ दिन भर की थकी होंगी। मैं माँ से कहता भी कि आप सो जाइये। तो कहती -तू पढ़, अकेले का मन नहीं लगेगा और बैठे -बैठे सो जातीं। माँ को पता होता कि मेरे बच्चे को कब, क्या चाहिए ?जब मेरी पढ़ाई पूरी हुई ,जल्दी ही नौकरी भी लग गई।
जहाँ मैं नौकरी करता था ,वहीं मेरी मुलाक़ात सुनीता से हुई। सुनीता मुझे सुलझी हुई समझदार लड़की लगी। यह पता होने पर कि सुनीता को भी मैं पसन्द हूँ। तब मैंने माँ से इस बात का ज़िक्र किया था। मेरे पिता को ये रिश्ता पसंद नहीं था। तब माँ ने ही कहा था -हमें क्या करना है ?अपने बच्चों की ख़ुशी में ही हमारी ख़ुशी होनी चाहिए। विवाह तो तब भी करेंगे चाहे हमारी पसंद का हो या इसकी। इसकी पसंद की होगी तो ये भी खुश रहेगा। इसकी ख़ुशी में ही हमें ख़ुश होना चाहिए। सुनीता से विवाह होने के बाद दोनों अपनी नौकरी पर आ गए। अभी छोटा पढ़ ही रहा था। जिंदगी आराम से कट रही थी दो -तीन साल बाद छोटे की नौकरी भी लग गई। पिता अब रहे नहीं ,माँ अकेली रह गईं। मैं अपनी माँ को अपने साथ ले आया।
कुछ दिन तो आराम से हँसी -ख़ुशी बीत गए। फिर सुनीता ने कहना आरम्भ किया -माँ को वहीं अपने घर छोड़ आओ। अब मेरे बस में नहीं उनकी तीमारदारी करनी। मैंने पूछा भी -अब माँ कहाँ जाएगी ?अब पापा भी नहीं हैं। वो अकेली क्या करेंगी ?वो बोली छोटे के पास भेज दो। लेकिन छोटे का तो अभी विवाह भी नहीं हुआ ,वो अकेला कैसे संभालेगा मैंने समझाते हुए कहा। मैं कुछ नहीं जानती अपनी माँ का कुछ न कुछ इंतजाम करो वो तुनक कर बोली। मैं जानता था ,माँ के आने से उसका काम बढ़ा है ,घूमना -फिरना कम हुआ है। जब कोई भी आजादी से रह लेता है तो जिम्मेदारी आने पर उसे बंधन लगने लगता है। मैंने उसे समझाने की कोशिश भी की जैसे तुम्हारी माँ ऐसे ही मेरी भी ,ऐसी स्थिति में क्या तुम अपनी माँ की सेवा नहीं करती ,उन्हें भी अपनी माँ ही समझो फिर भी वो मानी नहीं ,कोई उम्मीद न देखकर उसने ये कदम उठाया।
मकान का वो हिस्सा साफ -सफाई ,रंग -रोगन से ठीक हो गया। उसमें जरूरत का सभी सामान लगाया गया। सुनीता ने सोचा ,शायद कोई किरायेदार आ रहे हैं इसीलिए चुप रही। जब सारी तैयारी हो गईं ,तब धर्मेश अपनी माँ को वहाँ लाया। वो रोज सुबह उठकर जाता घर की साफ -सफाई करता। खाना बनाने वाली ,बर्तन साफ करने वाली लगा दी। अब वो खुश था कि उसने अपनी माँ के लिए कुछ तो किया। यह देखकर सुनीता तिलमिला गई बोली -तुमने माँ को वहाँ क्यों रखा ?धर्मेश बोला -माँ मेरी जिम्मेदारी है, मैं अपनी माँ को कहीं भी ,कैसे भी रखूँ ?तुमसे तो मैंने जबरदस्ती नहीं की ,कि मेरी माँ की जिम्मेदारी लो। ये तो प्यार का सौदा था तुम नहीं मानी। मैंने अपनी माँ का इंतजाम अपने तरीक़े से कर लिया।
माँ मेरी जिम्मेदारी हैं ,मैं ही निभाउंगा भी। माँ तो मेरी है न ,अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटूँगा। रही बात छोटे भाई की ,अगर उसके पास जाना चाहे तो जा सकती हैं ,मैं रोकूंगा नहीं। वो उसकी भी मां हैं। जिस तरह मैं माँ से रिश्ता नहीं तोड़ सकता उसी तरह तुमसे भी रिश्ता नहीं तोड़ सकता तुमसे रिश्ता मेरी पसंद और माँ की इच्छा से हुआ। माँ से तो मेरा रिश्ता ऊपर से ही जुड़कर आया है। दोनों ही रिश्तों का मान रखना ही मेरा फ़र्ज है।मैं इतना लाचार भी नहीं कि दोनों का ख़्याल न रख सकूँ। तुम अपना फ़र्ज निभाओ या मत निभाओ ,मैं तुम्हें बाध्य नहीं करुँगा। लेकिन माँ मेरी है तो जिम्मेदारी भी मेरी है ,लेकिन एक बात कहूँगा ,माँ मेरी हो या तुम्हारी। मैं उनके लिए भी वही फ़र्ज निभाता। कहकर वो कमरे से बाहर निकल गया। सुनीता अवाक् खड़ी उसे जाते देखती रही उसकी सोच के सामने वो अपने को बोना महसूस कर रही थी।
अगले दिन मकान के पिछले हिस्से में तोड़ -फोड़ आरम्भ हो गई। सुनीता को कुछ समझ नहीं आ रहा था ,कि ये क्या हो रहा है ?उसने पूछा भी ,ये क्यों करवा रहे हो ?लेकिन उसने जबाब दिया -बस देखती जाओ।उसे सुनीता के व्यवहार पर बहुत दुःख हुआ था। उसे उससे ऐसी उम्मीद नहीं थी। धर्मेश को आज भी याद है,' जब वो छोटा था ,माँ उसका कितना ख़्याल रखती थी। हर चीज समय पर देना ,उसके कुछ कहने से पहले ही समय पर वोचीज हाज़िर हो जाती थी। हम दोनों भाइयों का ही पूरा -पूरा ख्याल रखतीं। जब में पढ़ने बैठता तो पास में फ़ल काटकर रख देतीं ,दूध रख देती कि मेरी पढ़ाई में किसी प्रकार की दिक्क़त न आये। जब पेपर होते तो जगती रहतीं ,स्वेटर बुनती रहतीं ,जम्हाई लेती। मैं समझता था ,माँ दिन भर की थकी होंगी। मैं माँ से कहता भी कि आप सो जाइये। तो कहती -तू पढ़, अकेले का मन नहीं लगेगा और बैठे -बैठे सो जातीं। माँ को पता होता कि मेरे बच्चे को कब, क्या चाहिए ?जब मेरी पढ़ाई पूरी हुई ,जल्दी ही नौकरी भी लग गई।
जहाँ मैं नौकरी करता था ,वहीं मेरी मुलाक़ात सुनीता से हुई। सुनीता मुझे सुलझी हुई समझदार लड़की लगी। यह पता होने पर कि सुनीता को भी मैं पसन्द हूँ। तब मैंने माँ से इस बात का ज़िक्र किया था। मेरे पिता को ये रिश्ता पसंद नहीं था। तब माँ ने ही कहा था -हमें क्या करना है ?अपने बच्चों की ख़ुशी में ही हमारी ख़ुशी होनी चाहिए। विवाह तो तब भी करेंगे चाहे हमारी पसंद का हो या इसकी। इसकी पसंद की होगी तो ये भी खुश रहेगा। इसकी ख़ुशी में ही हमें ख़ुश होना चाहिए। सुनीता से विवाह होने के बाद दोनों अपनी नौकरी पर आ गए। अभी छोटा पढ़ ही रहा था। जिंदगी आराम से कट रही थी दो -तीन साल बाद छोटे की नौकरी भी लग गई। पिता अब रहे नहीं ,माँ अकेली रह गईं। मैं अपनी माँ को अपने साथ ले आया।
कुछ दिन तो आराम से हँसी -ख़ुशी बीत गए। फिर सुनीता ने कहना आरम्भ किया -माँ को वहीं अपने घर छोड़ आओ। अब मेरे बस में नहीं उनकी तीमारदारी करनी। मैंने पूछा भी -अब माँ कहाँ जाएगी ?अब पापा भी नहीं हैं। वो अकेली क्या करेंगी ?वो बोली छोटे के पास भेज दो। लेकिन छोटे का तो अभी विवाह भी नहीं हुआ ,वो अकेला कैसे संभालेगा मैंने समझाते हुए कहा। मैं कुछ नहीं जानती अपनी माँ का कुछ न कुछ इंतजाम करो वो तुनक कर बोली। मैं जानता था ,माँ के आने से उसका काम बढ़ा है ,घूमना -फिरना कम हुआ है। जब कोई भी आजादी से रह लेता है तो जिम्मेदारी आने पर उसे बंधन लगने लगता है। मैंने उसे समझाने की कोशिश भी की जैसे तुम्हारी माँ ऐसे ही मेरी भी ,ऐसी स्थिति में क्या तुम अपनी माँ की सेवा नहीं करती ,उन्हें भी अपनी माँ ही समझो फिर भी वो मानी नहीं ,कोई उम्मीद न देखकर उसने ये कदम उठाया।
मकान का वो हिस्सा साफ -सफाई ,रंग -रोगन से ठीक हो गया। उसमें जरूरत का सभी सामान लगाया गया। सुनीता ने सोचा ,शायद कोई किरायेदार आ रहे हैं इसीलिए चुप रही। जब सारी तैयारी हो गईं ,तब धर्मेश अपनी माँ को वहाँ लाया। वो रोज सुबह उठकर जाता घर की साफ -सफाई करता। खाना बनाने वाली ,बर्तन साफ करने वाली लगा दी। अब वो खुश था कि उसने अपनी माँ के लिए कुछ तो किया। यह देखकर सुनीता तिलमिला गई बोली -तुमने माँ को वहाँ क्यों रखा ?धर्मेश बोला -माँ मेरी जिम्मेदारी है, मैं अपनी माँ को कहीं भी ,कैसे भी रखूँ ?तुमसे तो मैंने जबरदस्ती नहीं की ,कि मेरी माँ की जिम्मेदारी लो। ये तो प्यार का सौदा था तुम नहीं मानी। मैंने अपनी माँ का इंतजाम अपने तरीक़े से कर लिया।
माँ मेरी जिम्मेदारी हैं ,मैं ही निभाउंगा भी। माँ तो मेरी है न ,अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटूँगा। रही बात छोटे भाई की ,अगर उसके पास जाना चाहे तो जा सकती हैं ,मैं रोकूंगा नहीं। वो उसकी भी मां हैं। जिस तरह मैं माँ से रिश्ता नहीं तोड़ सकता उसी तरह तुमसे भी रिश्ता नहीं तोड़ सकता तुमसे रिश्ता मेरी पसंद और माँ की इच्छा से हुआ। माँ से तो मेरा रिश्ता ऊपर से ही जुड़कर आया है। दोनों ही रिश्तों का मान रखना ही मेरा फ़र्ज है।मैं इतना लाचार भी नहीं कि दोनों का ख़्याल न रख सकूँ। तुम अपना फ़र्ज निभाओ या मत निभाओ ,मैं तुम्हें बाध्य नहीं करुँगा। लेकिन माँ मेरी है तो जिम्मेदारी भी मेरी है ,लेकिन एक बात कहूँगा ,माँ मेरी हो या तुम्हारी। मैं उनके लिए भी वही फ़र्ज निभाता। कहकर वो कमरे से बाहर निकल गया। सुनीता अवाक् खड़ी उसे जाते देखती रही उसकी सोच के सामने वो अपने को बोना महसूस कर रही थी।
