बचपन से ही रिश्तों को तवज्जों देना ,रिश्तों की क़द्र करना आदत रही है ,लेकिन बचपन में तो भोलापन या सीधापन मान लेते थे। रिश्तों को महत्व देते -देते ये भी पता चला कि रिश्ते निभाये दोनों ही तरफ से जाते हैं ,कभी ताली एक हाथ से नहीं बजती लेकिन रिश्ते इतने मतलब परस्त होते हैं कि काम निकला नहीं कि रिश्ता बेमानी लगने लगता है। कोशिश करते हैं कि ताली एक हाथ से ही बजायें जब तक काम है ,ताली का सहयोग मिलता रहेगा। काम समाप्त होते ही सोचते हैं ,क्यों समय व्यर्थ गँवाना। ज्यादा प्रयत्न करने पर लगता है कि जो लोग रिश्तों को रबर की तरह खींच रहे हैं वो लोग मूर्ख हैं। अपने काम से काम रखो। काम से काम ही तो रखा था ,रिश्तों की पूँजी ,रिश्तों की कड़ी के रूप में संभाल कर रखी थी जो इन कड़ियों को बिखेर देना चाहते हैं ,वो नजरे चुराते हैं।
आज के युग में जो रिश्ता निभाने की कोशिश करता है वो तो कोई मूर्ख ही होगा। भला रिश्ते भी कोई निभाने की चीज है ,मतलब खत्म रिश्ता खत्म। कोई बिरला ही होगा जो निःस्वार्थ भाव से रिश्तों को निबाहेगा,या फिर मूर्ख ,बेवकूफ़ या फिर सीधा। जिसे समाज या रिश्तों की समझ नहीं या समझना नहीं चाहता कि दुनिया चाँद पर जा रही है ,लोग बड़े मकानों से फ्लैटों में आ गए। लोग दिलों में तो क्या जिंदगी में ही आ जायें तो गनीमत है। दिल से जुड़े रिश्ते बड़े गहरे होते हैं आजकल फुरसत ही किसे है ?रिश्तों की गहराई मापने की ,खून के रिश्तों का तो हम यहाँ ज़िक्र ही नहीं कर रहे क्योंकि वे एक दूसरे के खून के प्यासे जो होते हैं ,फूटी आँख नहीं सुहाते। जिंदगी के रिश्ते भी किसी को मूर्ख या बेवकूफ़ बनाने तक ही सीमित हैं। जो रिश्ते निभा रहा है या निभाना चाहता है वो इस दुनिया का कैसे हो सकता है ?
जो दुनिया या समाज के साथ नहीं चल रहा वो ही रिश्तों को निभाने की बात करता है ,पिछड़ा हुआ है। इक्कीसवीं सदी में आ गए ,रिश्तों को रो रहे हैं। अब तो हालात ये हो गए है ,जैसे सालगिरह मनाते हैं ,इसी तरह रिश्ते एक माह भी टिक जायें 'माहगिरह ;मनाया करेंगे । आगे -आगे तो नज़र चोर रिश्ते होंगे। अभी परसों की ही बात है ,मेरे जानने वाले मिले लेकिन नज़र चुराकर ऐसे गए जैसे कोई पाप किया हो और रिश्ते तो क्या निबाहेंगे। कहते हैं ,ये रिश्ते निभा रहा है इसने दुनिया देखी ही कहाँ हैं ?अरे !दुनिया देखी है तभी तो रिश्ते निभा रहा है ,इन रिश्तों में ही दुनिया दिखा रहा है।
आजकल तो सीधे या मूर्ख लोग ही रिश्ते निभाते नजर आते हैं ,समझदार तो कन्नी काट जाते हैं। रिश्तों की कलई खुलती नजर आती है तो वे भी कहाँ चैन से जी पाते हैं ?ज्यादा अक्लमंदी में ही रह जाते हैं। रिश्ते निभाने का ठेका तो सीधे या सच्चे लोगों ने ही लिया है ,जो रिश्तों की ए ,बी ,सी ,डी नहीं जानते वो रिश्तों की परिभाषा समझाते हैं ,उनकी नज़र में हम मूर्ख जो हैं। रिश्ते निभाने का काम तो मूर्खों का है। खाली बैठे रिश्ता- रिश्ता जो खेलते हैं। रिश्ते सिर्फ़ पारिवारिक ही नहीं होते ,रिश्तों के बिना दुनिया नहीं चलती।दफ़्तर में रिश्ता बनाने वाले दफ़्तर में रिश्ता बनाते हैं लेकिन उनकी उस रिश्ते से जुडी परिभाषा अलग होगी पड़ोसी भी पड़ोसी से रिश्ता रखना चाहता है लेकिन उसकी भी अपनी एक सीमा होगी। उस रिश्ते की गहराई कितनी होगी ,ये भी वो समय और स्थिति के आधार पर तय कर लेता है। किन्तु ये तो तय है कि रिश्ते तो बनाने ही पड़ते हैं , चाहे मजबूरी में या फिर मतलब से।
बिना रिश्तों के जीवन संभव नहीं लेकिन ये रिश्ते परिस्थिति या व्यक्ति का रुतबा देखकर आवश्यकता अनुसारभी बनाये जाते हैं और बदले भी जा सकते हैं। इन सभी रिश्तों में एक बात आम है वो है रिश्ता निभाना ,और रिश्ता वो ही निभाता है जो मूर्ख या फिर सीधा -सच्चा हो ,वरना ये समाज तो बुद्धिजीवियों से भरा पड़ा है। रिश्ते यूँ ही नहीं निभाए जाते ,कई बार लोगों की बेतुकी बातें भी सुननी पड़ती हैं। कई बार रिश्तों को निभाने के लिए मूर्ख भी बने रहना पड़ता है क्योंकि हम तो मूर्ख हैं वो बुद्धिजीवी। बेवकूफ़ बनकर भी रिश्ते बने रहें ये भी कम बड़ी बात नहीं। इंसान ही रिश्तों के फेर में पड़े रहते हैं वरना किसी भी जानवर का कोई सम्बन्ध रिश्तों से नहीं होता लेकिन समझ तो जानवर भी रखते हैं तभी वफ़ादार भी होते है वे भी मानव के प्यार का बदला प्यार से देते हैं। लेकिन इंसानो में प्यार के बदले प्यार मिले ये परिस्थिति और आदमी की सोच पर निर्भर करता है सही / गलत , प्यार - अपने पन की अनुभूति तो जानवरों में भी होती है।
आजकल तो रिश्तों की परिभाषा तो इतनी छोटी हो गई है ,पति -पत्नी और बच्चे और रिश्तों का तो मतलब ही नहीं। ये रिश्ते भी जीवनभर आज के युग में साथ दें या बने रहें ,तो ऊपर वाले का खेल [करम ]समझें। क्योंकि इस रिश्ते में जो भी मूर्ख या सीधा रहेगा तभी रिश्ता बना रहेगा वरना ये रिश्ता भी और रिश्तों की तरह ढ़ह जाएगा।

