chlte musaphir

उह !ये ठंड भी न हाड़ कँपा दिये ,पता नहीं क्या करके बैठेगी ये ठंड। हड्डी के अंदर घुसी जा रही है। और वो गुदड़े से लग रहे बिस्तर में जा घुसी। उसकी खाट [चारपाई ]ऐसी बुनी थी जालीदार सी ,नीचे  से भी ठंड घुस रही थी। हालाँकि उसने गद्दा बिछा रखा था ,पर वो भी बीस साल पुराना था। इतनी पुराने रूअड़ में ही क्या निवास [गर्माहट ]होगी। निवास आ ही नहीं रही थी ,उस पर बुढ़ापे का शरीर। ऊपर से ठंड ने तो कसम खा रखी थी कि प्राण ले के ही छोड़ेगी। फिर उसने अपने हाथ से बनी पुरानी ऊन की जुराबें पहनी ,टाँगों में घुटनों तक पुराने कपड़ों की बनी पट्टी लपेटी। तभी उसकी पोती सुमन आयी बोली -ले माँ चाय पी ले। क्या चाह ले आई ?ला दे दे। पोती हँसी -चाह नहीं चाय बोलते हैं। हाँ -हाँ चाय वो मुस्कुराकर बोली ये सब शहरों के चोंचले हैं चाय हाथ में लेते हुए बोली। आजा बैठ , उसने अपने पास जगह बनाते हुए कहा। नहीं माँ आप आराम से रहो ,मैं[ पास में ही पड़ी मुड्ढी ]इस पर बैठ जाती हूँ। 

             उसे देखकर रामप्यारी सोचने लगी ,एक ये पोती है जो अपने दादी -बाबा से प्यार करती है। दादी -बाबा ही नहीं घर के सभी लोगों से प्यार है वरना आजकल  के बालक तो बैठते ही नहीं अपने बड़े -बूढ़ों के पास ,तभी उसे ध्यान आया और तेज आवाज़ में अपने पोते को पुकारा -अरे मनोज !जा देखिये अपने बाबा को जाड़ा  तो नहीं लग रहा ,उन्हें भी चाह दे दियो। लेकिन किसी ने ध्यान ही नहीं दिया उसकी बात पर ,न ही कोई बोला। तभी सुमन बोली -मैं देख आती हूँ ,आप इतने चाय पियो। कहकर वो चली गई। उसके जाने के बाद वो सोचने लगी -'जब सारे पोते -पोती छोटे -छोटे थे ,यहीं मेरे बिस्तर में पड़े रहते थे यहीं मूतते। इनकी माँ भी यहीं गेर जाती ,माँजी लो, ध्यान रखियो। अब बालक बड़े हो गए कोई आकर भी नहीं झाँकता। जैसे -जैसे बुढ़ापा आता जा रहा है ,ठंड भी बढ़ती जा रही है। किसी को फुरसत ही नहीं की आकर बुढ़िया की खोज -खबर ले लें। उन्हीं पुराने बिस्तरों में पड़ी हूँ ,इनकी माँ को तो यूँ भी नहीं की बिस्तरे  को धूप में डाल दें। 
                एक बार आये भी बोले -माँ तेरे बिस्तरे में से तो बदबू आती है। मैंने कहा  भी -बचपन में तो यहीं पड़े रहते थे यहीं मूतते रहवे थे ,ये वो ही बदबू है जिसमे मैं रह रही हूँ। अब वो लेट गई ,करवट बदली। फिर वही विचार आने लगे -'बहु भी कोई काम की न निकली एक तो नौकरी पर जा के बैठ  गयी उसका तो कोई मतलब ही न है। ये दोनों यहाँ लड़ती रहवं ,छाती पर मूँग दल रही हैं ,न कुछ करती ,न कुछ सुनती। क्या करूँ ?किस्मत के लिखे को कैसे टाल दूँ ?तीन -तीन बहु -बेटा  होने के बाद भी कैसी हालत 
में पड़ी हूँ। सोचते होंगे -बुढ़िया के तो जी[मन ] ही न है। अपनी ही औलाद तो आके भी न झाँकती ,जब तक हाथ -पैर चलते रहे इनके बालक पालती रही। अब बेबस सी पड़ी हूँ। उसने अपने घर की बुनी लिहाफ़ को अच्छे से लपेटा ,गद्दे को ठीक किया पर वो सिकुड़कर फिर वहीं आ गया। रामप्यारी बुदबुदाते हुए -कई  बार कही कि  इसके दावन कस दो ,खाट झोली सी हो रही है पर न कोई सुनता ,न ही किसी को फुरसत, और वो लिहाफ़ को सिर तक ओढ़कर सो गयी। 
                 आज तो बड़ी चढ़ी [गुस्से में  ]बैठी है ,रोटी भी नसीब होगी के नहीं ,दोनों ने अपनी -अपनी मर्ज़ी से चूल्हा न्यारा [अलग ]कर लिया। लड़ पड़ीं थीं दोनों एक --दूसरे का मुँह देखती रहती थी कि रोटी कौन बनाये ?ऐसे में दुर्गति तो बड़े -बूढ़ों की है ,पास जावें ,कहाँ रहें ?ऐसे में छः ईंट रखकर रामप्यारी ने भी चूल्हा बना लिया। आज बूढ़े का मन हलवा खाने का कर  रहा है पर बनाऊँ कैसे ?किससे  मांगू सामान ?बहु से कही तो सुनने को मिलेगा -बुढ़ापे में चटोरपन सूझ रहे हैं ,फिर सोचा -सूजी या बेसन का बनाऊँ तो पता नहीं बहु ने कहाँ रखे होंगे ?पूछूँगी ,तो चार बात बनाएगी फिर कुछ सोचकर धीरे से आटा ले आई। घी कहाँ से लाऊँ ?चिकनाहट के लिए थोड़ा सा तेल डाल दिया। चीनी भी न मिली तो मटके में रखा गुड़ डाल दिया। हलवा मीठा ही तो होना है ,गुड़ से हो जायेगा। जब तेजपाल ने हलवा खाया तो मुँह बनाया फिर कुछ सोचकर चुपचाप खा लिया। बचा हुआ हलवा  जब बुढ़िया ने चाटा ,तो थूक दिया। हलवा बड़ा ही बेस्वाद बना था। 

                         रामप्यारी गुस्से और दुःख में बड़बड़ाने लगी या यूँ कहो बूढ़े को सुनाने लगी -पाँच -पाँच औलाद होने पर भी परेशान। क्या करें ?बेटी ब्याही गईं ,बहु -बेटा ,पोते -पोती सब अपने में मस्त। सारी जिंदगी दहि [शरीर ]तोड़कर काम करा। आज इस कोठे [कमरा ]में ऐसे पड़े हैं जैसे कोई अपना हो ही न 
दुर्गति है ,सबको अपनी -अपनी है ,कुछ न मिले तो राड [झगड़ा ]कर  दें। सारी  जिंदगी मेहनत करी ,बालक ब्याह दिए सारे काम हो गये अब हम किसी को न सुहाते। सोचें कब बूढ़े -बुढ़िया टरके बात बीच में ही काटकर तेजपाल ने कहा -क्यूँ परेशान हो रही है ,हम तो चलते मुसाफ़िर हैं ,जिस दिन बुलावा आ जायेगा चल देंगे। उसके चेहरे की पीड़ा साफ़ झलक रही थी ,उसे देखकर रामप्यारी चुप रही। 
          आज तो रक्षाबंधन है ,लड़की राखी बांधने आयेगीं। चलो हँसी -ख़ुशी से त्यौहार मन जायेगा। तभी तेजपाल को याद आया की लड़की को विदा करते समय मुझे भी दो -चार पैसे हाथ में होने चाहिये। मैंने रमेश को रखने के लिए पैसे दिए थे रामप्यारी की तरफ देखते हुए तेजपाल ने कहा -रमेश से कहना तेरी बहन पोंची बांधने आएगी तो लड़की को बिदाई के लिए थोड़े पैसे दे देगा मुझे। ये बात उसकी बहु ने सुन ली वो पैसे उसकी बहु ने अपने काम में ख़र्च कर  दिए। अब दोनों में झगड़ा हो गया। उनकी तू -तू ,मैं -मैं सुनकर और इस बात से दुःखी होकर कि जब लड़की घर आएगी तो क्या ख़ाली हाथ घर से विदा होगी। सोचकर ही मन खट्टा हो गया। कितना मन खुश था ,सोचा कब तक बेइज़्जत होते रहेंगे सोचते हुए वो खेतों की तरफ़ बढ़ गया ,वहाँ काम में अपना ध्यान बटाने का प्रयत्न करने लगा। वहाँ काम करते उसके हाथ में कुछ चुभा पर उसका मन इतना परेशान था कि उसने जानने की कोशिश ही नहीं की ,कि कुछ चुभा है या किसी ने काटा है। 
                  बेचैन मन से जब काम करते -करते थकावट होने लगी तो वो अपने मित्र के पास हुक्का पीने  लगा। हुक्का पीते -पीते उसे वहीं चक्कर आ गया। दो -चार लोग उसे उठाकर लाये। संदेह होने पर सपेरे के पास ले गये लेकिन उसने इंकार कर  दिया कि अब इसमें जान ही नहीं है। सब रो रहे थे ,लेकिन बुढ़िया की आँखों में कोई आँसू नहीं था क्योंकि वो अपने अंदर सुख का अनुभव कर  रही थी कि चलो इस दुर्गत भरी जिंदगी से इसे तो छुटकारा मिला पर दुःख इस बात का है कि ये मौत मुझे न आई।
 
         वो सोच रही थी कि मेरी दुर्गत होना अभी बाक़ी  है। ये सब बनावटी रोना रो रहे हैं उसने कहा -क्यूँ रो रहे हो ?अपने काम निपटाओ ,जिसे जाना था वो गया। सबने सोचा 'बुढ़िया रोई नहीं ,बूढ़े का ग़म बैठ गया  है। लेकिन वो तो सोच  रही थी -जीते जी तो कभी ढ़ग से रोटी भी न दी ,अब रोने का नाटक कर रहें हैं ,सोचा शायद जान बूझकर भी न बताया हो कि मुझे सांप ने काट लिया। वो तो मुक्त हो गया मुझे अकेला छोड़ गया। तब तो रामप्यारी रोई नहीं ,जब उसने उसकी [तेजपाल]खाली जगह देखी अपने बाक़ी बचे एकाकी  जीवन की कल्पना की और उससे जुडी परेशानियों की तो वो अपने को रोक न सकी और जी भरकर रोई कि खुद चला गया मुझे अकेली छोड़ गया। हम तो दोनों ही मुसाफ़िर थे बीच राह में छोड़ गया। 




















































laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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