आज थोड़ा जल्दी उठी क्योंकि आज मुझे पड़ोस में लड़के की घुड़चढ़ी में भी जाना है ,उससे पहले ही पूरा काम निपटा देना है। बच्चों को तैयार किया स्कूल भेजा फिर सुनील के जाने के बाद सास-ससुर के लिए अलग हल्का नाश्ता बनाया उनके खाने के बाद दोपहरकी भी तैयारी करके रख दी। मैंने पहले ही अपने दिमाग मैं सोच के रखा था किस समय पर कौन सा काम करना है ,उस समय -सारणी में थोड़ा भी इधर -उधर हो जाता तो मेरे हाथ -पाँव फूल जाते। फिर भी लग रहा था ,कुछ छूट तो नहीं गया। जल्दी -जल्दी तैयार होकर मैं घर से निकल गई ,उनके यहाँ से बाजे की आवाज आ रही थी। कहीं देरी तो नहीं हो गई ,सोचकर जल्दी -जल्दी कदम बढ़ा दिए। वहाँ पहुँचकर ही दम लिया। मैं भी भीड़ में शामिल हो गई तभी सुनीता जी आती दिखाई दीं। आते ही उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा ,कहने लगीं कितना भी काम निपटा लो खत्म होने का नाम ही नहीं लेता। मुझे भी लगा कि कोई हमदर्द मिल गया मैंने कहा -सच कह रहीं हैं ,आप। काम है कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता।कितना भी कर लो।
मैंने इधर -उधर नजर घुमाकर देखा ,सभी औरतें अच्छे से सज -धज कर आई थीं। मेरी निगाह एक महिला पर आकर अटक गई ,वो काफी खुश थी। मैंने सुनीता जी से पूछा, कौन है ये ?वो बोलीं ये तो लड़के की बुआ है ,मैं इनसे मिल चुकी हूँ ,व्यवहार में भी अच्छी हैं ,खुशमिज़ाज भी हैं। इनके बच्चे नहीं हैं क्या ?हैं न तीन बच्चे। आश्चर्य से मेरी आँखे फैल गईं। फिर भी इतनी खुश। हमारे तो बच्चे थोड़े बड़े हो गए और उनको देखो !मैंने श्रीमति मेहता जी की बहु की ओर इशारा किया। बच्चा उनकी गोद में भी परेशान हो रहा था और वे भी परेशान हो रहीं थीं। घूमते हुए हम घर तक आ गए। शाम को शादी में मिलने का कहकर हम घर आ गए।
शादी में सब तैयार होकर गए ,वहाँ पर भी मेरी नज़र लड़के की बुआ पर थी। सुनील और बच्चे खाना खाने गए ,मैं भी वहीं किसी कुर्सी पर बैठकर खाने लगी। थोड़ी देर बाद ही किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा मैंने पीछे घूमकर देखा ,कि वो लड़के की बुआ ही थी कह रही थी -भाभी क्या हम यहां बैठ जाए ?मैंने हाँ में गर्दन हिला दी। वो भी वहीं बैठकर खाने लगी। मैंने बातचीत शुरू करने के इरादे से कहा - आपके बच्चे नहीं दिख रहे ,लाई नहीं क्या ?वो बोली -एक बेटा तो अपने पापा के साथ है और दो छोटे अपने दादी -बाबा के पास हैं ,अंदर कमरे में ,उन्हें वहीं खाना दे आई। मैंने कहा -वो परेशान नहीं होंगे ,उन्होंने नहीं कहा कि ले जाओ ,अपने साथ। बोली -नहीं ,बल्कि वो तो खुश रहते हैं। उन्हें लगता है ,मैं अच्छे से नहीं संभाल पाऊंगी। मैंने भी ज्यादा सिरदर्दी नहीं ली ,संभालना है तो संभालें। आख़िर उनके भी तो कुछ लगते हैं ,वे भी खुश ,बच्चे भी अपने दादा -दादी के साथ खुश और मैं भी उसने मुस्कुराते हुए कहा। मुझसे ज़्यादा ख्याल रखते हैं ,मेरा काम तो सिर्फ़ दवाई और खाने का ध्यान रखना है।
मैं सोच रही थी ,कितनी बड़ी बात ये आराम से कह गईं। 'मेरे ही नहीं उनके भी तो कुछ लगते हैं। तभी मेरा ध्यान श्रीमति मेहता की बहु की ओर गया,जो बच्चों को दादी -बाबा के पास फटकने नहीं देती ,वो लोग भी अकेलापन महसूस करते हैं। उनके कमरे में बच्चों को जाने नहीं देती कि बुढ़ापे में बीमारियाँ लगी रहती हैं ,न जाने बच्चों को कौन सी बीमारी लग जाए। बच्चों को खुद ही संभालती है ,घर भी। जब थक जाती है तो गुस्सा आता है जो उन बुजुर्गों पर निकालती है। समझती है ,बच्चे तो मेरे हैं ,उनका बेटा भी मेरा है।
बेचारे बुजुर्ग सब कुछ होते हुए भी ,अपने ही घर में परायों की तरह रहते हैं। यही तो समझ -समझ का फेर है।
मैंने इधर -उधर नजर घुमाकर देखा ,सभी औरतें अच्छे से सज -धज कर आई थीं। मेरी निगाह एक महिला पर आकर अटक गई ,वो काफी खुश थी। मैंने सुनीता जी से पूछा, कौन है ये ?वो बोलीं ये तो लड़के की बुआ है ,मैं इनसे मिल चुकी हूँ ,व्यवहार में भी अच्छी हैं ,खुशमिज़ाज भी हैं। इनके बच्चे नहीं हैं क्या ?हैं न तीन बच्चे। आश्चर्य से मेरी आँखे फैल गईं। फिर भी इतनी खुश। हमारे तो बच्चे थोड़े बड़े हो गए और उनको देखो !मैंने श्रीमति मेहता जी की बहु की ओर इशारा किया। बच्चा उनकी गोद में भी परेशान हो रहा था और वे भी परेशान हो रहीं थीं। घूमते हुए हम घर तक आ गए। शाम को शादी में मिलने का कहकर हम घर आ गए।
शादी में सब तैयार होकर गए ,वहाँ पर भी मेरी नज़र लड़के की बुआ पर थी। सुनील और बच्चे खाना खाने गए ,मैं भी वहीं किसी कुर्सी पर बैठकर खाने लगी। थोड़ी देर बाद ही किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा मैंने पीछे घूमकर देखा ,कि वो लड़के की बुआ ही थी कह रही थी -भाभी क्या हम यहां बैठ जाए ?मैंने हाँ में गर्दन हिला दी। वो भी वहीं बैठकर खाने लगी। मैंने बातचीत शुरू करने के इरादे से कहा - आपके बच्चे नहीं दिख रहे ,लाई नहीं क्या ?वो बोली -एक बेटा तो अपने पापा के साथ है और दो छोटे अपने दादी -बाबा के पास हैं ,अंदर कमरे में ,उन्हें वहीं खाना दे आई। मैंने कहा -वो परेशान नहीं होंगे ,उन्होंने नहीं कहा कि ले जाओ ,अपने साथ। बोली -नहीं ,बल्कि वो तो खुश रहते हैं। उन्हें लगता है ,मैं अच्छे से नहीं संभाल पाऊंगी। मैंने भी ज्यादा सिरदर्दी नहीं ली ,संभालना है तो संभालें। आख़िर उनके भी तो कुछ लगते हैं ,वे भी खुश ,बच्चे भी अपने दादा -दादी के साथ खुश और मैं भी उसने मुस्कुराते हुए कहा। मुझसे ज़्यादा ख्याल रखते हैं ,मेरा काम तो सिर्फ़ दवाई और खाने का ध्यान रखना है।
मैं सोच रही थी ,कितनी बड़ी बात ये आराम से कह गईं। 'मेरे ही नहीं उनके भी तो कुछ लगते हैं। तभी मेरा ध्यान श्रीमति मेहता की बहु की ओर गया,जो बच्चों को दादी -बाबा के पास फटकने नहीं देती ,वो लोग भी अकेलापन महसूस करते हैं। उनके कमरे में बच्चों को जाने नहीं देती कि बुढ़ापे में बीमारियाँ लगी रहती हैं ,न जाने बच्चों को कौन सी बीमारी लग जाए। बच्चों को खुद ही संभालती है ,घर भी। जब थक जाती है तो गुस्सा आता है जो उन बुजुर्गों पर निकालती है। समझती है ,बच्चे तो मेरे हैं ,उनका बेटा भी मेरा है।
बेचारे बुजुर्ग सब कुछ होते हुए भी ,अपने ही घर में परायों की तरह रहते हैं। यही तो समझ -समझ का फेर है।