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सुबह के पाँच बज चुके थे ,अलार्म बजे जा रहा था। वो अभी और सोना चाहती थी ,लेकिन क्या करे  ? मजबूरी है उठना तो है ही ,फिर लेट हो जाउंगी। ये विचार आते ही उसने फुर्ती से अलार्म बंद किया और एकदम बिस्तर छोड़ सीधे रसोईघर में गई वहाँ अपने लिए चाय रखी ,बच्चो के लिए दूध गर्म  किया। और जल्दी -जल्दी नाश्ते की तैयारी में जुट गई।फ़टाफ़ट  बच्चों को उठाया और नहाने चली गई। नहाकर आई तो नहाने  के लिए बच्चों को भेजा। तैयार होकर अपना और बच्चों का टिफ़िन लगाया।[ इतनी सुबह -सुबह वो कहाँ जाने की तैयारी कर रही थी। अरे !कहीं नहीं उसे और बच्चों को सात बजे तक अपने -अपने विद्यालय जो पहुँचना है। ]कहाँ पढ़ाती हो बेटी ? राह में चलती एक महिला ने पूछा। वो जल्दी -जल्दी कदम बढ़ा रही थी। चलते -चलते ही बोली -ज्यादा दूर नहीं पास में ही है। इतनी जल्दी करते भी देरी हो ही जाती है ,कभी दो -चार मिनट, कभी एन मौक़े पर ही  पहुँच पाती हूँ। परसों तो प्रधानाध्यापक ने टोका भी था -ममता जी थोड़ा जल्दी आया कीजिए। वो मन ही मन बुदबुदाई ,और कदम तेज़ी से बढ़ा दिए। लेकिन ऐसा रोज होता था। 

               दो या ढाई बजे घर लौटती ,सारा फैला सामान समेटती ,स्वयं व  बच्चे खाना खाते। काम निपटाते-निपटाते  चार बज जाते तब शाम की चाय के साथ बच्चों को पढ़ाती ,फिर शाम के खाने की तैयारी। शाम का काम समेटते-समेटते  नौ बज जाते तब वो आराम से बैठती ,सोचती क्या जिंदगी है ?एक पल को भी आराम नहीं ,भागमभाग। इतने पैसे भी नहीं मिलते कि नौकर रख सकूँ। इन प्राइवेट स्कूलों में मेहनत ज्यादा होती है ,पैसे कम मिलते हैं। ख़ैर !थोड़े ही दिनों की बात है ,बच्चे बड़े हो जायेंगे तब इतनी परेशानी नहीं होगी। इसी उम्मीद केसाथ दिन गुजरते गए। 
                  कुछ साल बाद बच्चे बड़े हो गए ,अपना ज्यादातर काम स्वयं करने लगे। अब उसके पास काफी समय बच जाता था इतनी भागमभाग नहीं थी। थोड़े दिन तो उसे लगा कि अब आराम करुँगी ,अब इतनी थकावट भी नहीं होती थी। बच्चे आगे पढ़ाई के लिए बाहर चले गए। जो समय उसे उसे भरा -भरा लगता था। सोचती थी समय ही नहीं मिलता अब उसके पास समय ही समय था। अब अपनी नींद पूरी करुँगी और आराम करुँगी ,लेकिन जिंदगी की इतनी भाग -दौड़ के बाद आराम मिला तो नींद न जाने कहाँ गई ?सोचा अपना शौक ही पूरा कर  लूँ। नृत्य तो नहीं कर पाऊंगी क्योंकि  अब शरीर में इतनी ताकत नहीं रही। मन ही मन फैसला करके चित्रकला का सामान ले आई। जब में छोटी थी तो बहुत अच्छे चित्र बनती थी। चित्र बनाने बैठी ,पर बात नहीं बनी। विचार न जाने कहाँ  लुप्त हो गए ,वो बचपन का जुनून लुप्त होता नजर आया  .जिंदगी भी क्या अजब खेल दिखती है। जब शौक था ,तब समय नहीं था। अब समय है तो समय के साथ जुनून और सोच दोनों बदल गए। परिस्थितियों व जिम्मेदारियों  के कारण अपनी इच्छाएं पीछे रखती रही ,कि जब समय मिलेगा तब करूंगी। और अब लगता है क्या करना है ?ये सब करके। 
                              दो साल बाद बेटे की पढ़ाई पूरी होने के साथ ही उसकी नौकरी भी वहीँ लग गई  बेटी भी वहीं अपना काम ढूढ़ रही थी। लगते ही दोनों बच्चों ने कहा -मम्मी अब आपको कमाने की आवश्यकता नहीं है। अब आप घर में ही आराम करें। वो भी अब सुबह -सुबह उठकर भागना नहीं चाहती थी। उसने अपने पद से मुक्त होने की अर्जी दे दी। अब वो आराम से जीवन जीना चाहती थी। 
               आज वो देर से उठना चाहती थी क्योंकि उसे आज कहीं जाना ही नहीं है ,लेकिन आज तो अलार्म भी नहीं बजा फिर भी आँखें उसी समय पर खुल गईं ,इतने सालों की आदत जो पड़ी हुई है। दुबारा सोने की कोशिश की पर नींद नहीं आई। सुबह  उठना सेहत के लिए अच्छा होता है। सोचकर वो उठी अपने लिए चाय बनाई ,इधर -उधर टहली। समय देखा ,अभी छह ही बजे हैं ,तब तो कितनी जल्दी सात बज जाते थे। समय का पता ही नहीं चलता था। आराम -आराम से सारे  काम निपटाए ,नहा कर आई समय देखा अभी दस ही बजे हैं। पता ही नहीं समय कैसे थम सा गया है ?जिस नींद के लिए परेशान रहती थी अब वो भी मुँह मोड़ गई। हिमांशु भी शाम क्या रात को ही आएंगे , उनका व्यापार ही ऐसा है। समय काटे नहीं कट रहा। 
                    शाम के समय को गुज़ारने के लिए, उसने कुछ बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। सुबह के समय सोचा घर की सफाई की जाये ,पेंट पुताई करवा लें घर को कुछ  नयापन देने की कोशिश करें। उसने बच्चों से बातचीत करके घर में काम शुरू करवा दिया। सुंदर -सुंदर चित्र भी लगवाये।  अपनी सोच के आधार पर घर को अच्छे से सजाया। जो भी देखता प्रसंशा करता। कुछ माह तो ऐसे ही गुज़र गए। धीरे -धीरे सब अपने -अपने कामों में लग गए। कुछ दिनों तक तो दीवारें बोलती नज़र आईं ,घर में मन भी लगा। धीरे -धीरे समय अपने ढर्रे पर चलने लगा। अब वो दीवारें भी बेजान नजर आने लगीं। समय काटे नहीं कटता। सब कोई अपने में व्यस्त ,जब वो भी व्यस्त थी उसे ही कहाँ समय मिल पाता था। किसी के सुख -दुःख में खड़े होने का। 

                आज उसके पास समय है।  वो बीमार होने के बावजूद ,उस एकांत से जूझ रही थी। जो शायद उसका हमसफ़र बन गया था।



















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laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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