बचपन में पापा का हाथ पकड़कर सब्ज़ी का थैला लेकर मंडी जाती थी ,तो वहाँ लाउडीस्पीकर पर तेज़ आवाज़ में गाना सुनती थी। महंगाई मार गई ,महंगाई मार गई '.... पापा से पूछा -पापा ये कौन है ? वे उस समय पर कुछ नहीं बोले। शायद बच्चा समझकर ,लेकिन अब सोचती हूँ ,वे भी शायद इसी की मार से परेशान थे। कभी किसी बात का ठीक से ज़बाब नहीं देते थे। मेरे मन में अनेक प्रश्न उठते ,कि ये महंगाई कौन है ? किस -किस को मार रही है ? किसी को कहते सुना -'अजी इंदिरा का राज है ,महंगाई तो होनी ही है। 'मेरे मन में प्रश्न उठा - तो क्या इंदिराजी के राज में ही मंहगाई सबको मार रही है। धीरे -धीरे कई नेता आये और चले गए , लेकिन महंगाई किसी से नहीं डरी। दिन प्रतिदिन बढ़ती चली गई। कोई भी महंगाई को रोकने में क़ामयाब न हो सका।
उसकी मार से हर कोई परेशान था। पापा ने सब्ज़ी वाले से भाव पूछे - उसके जबाब देने पर बोले 'इतनी मंहगी ! सब्ज़ी। क्या बताए ,साहब महंगाई तो है ही ,आग बरस रही है ,हर चीज पर। सब्ज़ी लेकर आगे बढ़े ,पापा को सबसे दुआ सलाम करते हुए चलने की आदत थी। फ़ल वाले के पास जाकर बोले -बड़े मियां कैसे परेशान बैठे हो ? बड़े मियां परेशान से भुनभुना कर बोले - क्या बताऊँ ? साहब ! फल की दुकान है , मंहगे तो होंगे ही , सुबह से बोहनी भी नहीं हुई। पापा फल खरीदने लगे। तब मैंने सोचा - ' ये महंगाई में एक अच्छी बात तो है , कि यह किसी से भेदभाव नहीं करती। हिन्दू हो या मुसलमान सबको एक साथ तंग करती है। यह किसी जाति या धर्म विशेष को ही तंग नहीं करती , इसकी मार से सभी परेशान हैं।
जब थोड़े से बड़े हुए तो महंगाई भी बढ़ी। जब माता - पिता को ख़र्चों के लिए अन्य चीजों से समझौता करते देखा ख़र्चों में कटौती करते देखा , तब महंगाई के कहर का पता चला। महंगाई का असर लोगो के रहन - सहन व व्यवहार में भी दिख ने लगा। पहले महिलाएं कितने - कितने गहने पहनती थीं। हमारे देवी - देवता भी कितने आभूषण पहनते हैं। लेकिन जब से महंगाई पीछे लगी है न , बेचारी औरतो के पास जो आभूषण थे वे भी बिकते नज़र आने लगे। महंगाई का सामना कैसे किया जाये ?यही सोचकर हर कोई परेशान था। काम भी नहीं ,ऐसे में अपने घर के गहने बेचकर कुछ दिन महंगाई से लड़ने की नाक़ामयाब कोशिश करते ,लेकिन महंगाई क्या थी ?सुरसा का मुँह ,सब हज़म। वो तो रिश्ते भी खा गई।
जब एक परिवार में पंद्रह से बीस लोग एक ही परिवार में रहते थे। आदमी बाहर काम करते थे औरते घर में चूल्हा -चौका। घर के बड़े बच्चे बाहर कमाने जाते थे। घर में भी पैसे भिजवा देते थे। लेकिन धीरे -धीरे उन्होंने कहना शुरू किया ,यहाँ अपने ही खर्चे पूरे नहीं पड़ते तुम्हें कहाँ से भिजवा दे ? महंगाई देखी है ,कितनी है ?शहर में रहना कितना मुश्किल है ,इस महंगाई के ज़माने में। पर कमाने के लिए तो बाहर निकलना ही पड़ेगा। घर बैठे कौन खाने को दे जाएगा ?ये शब्द अक्सर कानों में पड़ते। धीरे -धीरे सब अपने -अपने परिवार व ख़र्चों तक सीमित रह गए।
पहले कोई मेहमान आता था ,उसे चाय नहीं दूघ व देशी बढ़िया खाने का इंतजाम किया जाता था। हम जैसे -जैसे जवान हुए , महंगाई भी जवान हो गई। पहली बात तो लोग चाहते ही नहीं कि कोई आए,आ भी गया तो आधुनिक शैली में चाय बिस्कुट से स्वागत करते हैं ,क्योंकि खाने -पीने की चीजों पर महंगाई का पूरा -पूरा असर था। अपने और अपने परिवार के लिए ही पूरा नहीं पड़ता। महंगाई के चलते इसका असर लोगों की सोच पर भी पड़ा पहले लोग किसी के आने पर खुश होते थे अब जाने पर खुश होते हैं |
आधुनिकता की दौड़ में अब तो फेसबुक और वाह्ट्सएप पर ही बधाई और मिठाई भेज देते हैं। जैसे -जैसे लोग आधुनिक हुए महंगाई भी आधुनिक हो गई उसने भी नया आवरण ओढ़ा। जी , एस , टी , का [गुड्स एंड सर्विस टैक्स ] लोगों ने बहुत शोर मचाया ,जैसे कोई लड़की किसी गाँव में छोटे कपड़े पहन कर चली जाये। लोग चर्चा करते हैं, शोर मचाते हैं पर होता कुछ नहीं। इसी तरह इसका भी कुछ नहीं हुआ, दिन प्रतिदिन इसकी रौनक बढती चली गई। अब तो प्याज़ के आँसू रोने पड़ते हैं। हम तो उम्र के साथ बीमार व कमज़ोर थके हुए महसूस करते हैं। पर ये महंगाई तो दिन प्रतिदिन जवान होती जा रही है पचास से ऊपर पार कर गई ये उस डायन की तरह है , जो अपने ही लोगों को ही खा जाती है। ये भी खा रही है पता नहीं इसकी भूख कब शांत होगी। शायद ही कभी !
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उसकी मार से हर कोई परेशान था। पापा ने सब्ज़ी वाले से भाव पूछे - उसके जबाब देने पर बोले 'इतनी मंहगी ! सब्ज़ी। क्या बताए ,साहब महंगाई तो है ही ,आग बरस रही है ,हर चीज पर। सब्ज़ी लेकर आगे बढ़े ,पापा को सबसे दुआ सलाम करते हुए चलने की आदत थी। फ़ल वाले के पास जाकर बोले -बड़े मियां कैसे परेशान बैठे हो ? बड़े मियां परेशान से भुनभुना कर बोले - क्या बताऊँ ? साहब ! फल की दुकान है , मंहगे तो होंगे ही , सुबह से बोहनी भी नहीं हुई। पापा फल खरीदने लगे। तब मैंने सोचा - ' ये महंगाई में एक अच्छी बात तो है , कि यह किसी से भेदभाव नहीं करती। हिन्दू हो या मुसलमान सबको एक साथ तंग करती है। यह किसी जाति या धर्म विशेष को ही तंग नहीं करती , इसकी मार से सभी परेशान हैं।
जब थोड़े से बड़े हुए तो महंगाई भी बढ़ी। जब माता - पिता को ख़र्चों के लिए अन्य चीजों से समझौता करते देखा ख़र्चों में कटौती करते देखा , तब महंगाई के कहर का पता चला। महंगाई का असर लोगो के रहन - सहन व व्यवहार में भी दिख ने लगा। पहले महिलाएं कितने - कितने गहने पहनती थीं। हमारे देवी - देवता भी कितने आभूषण पहनते हैं। लेकिन जब से महंगाई पीछे लगी है न , बेचारी औरतो के पास जो आभूषण थे वे भी बिकते नज़र आने लगे। महंगाई का सामना कैसे किया जाये ?यही सोचकर हर कोई परेशान था। काम भी नहीं ,ऐसे में अपने घर के गहने बेचकर कुछ दिन महंगाई से लड़ने की नाक़ामयाब कोशिश करते ,लेकिन महंगाई क्या थी ?सुरसा का मुँह ,सब हज़म। वो तो रिश्ते भी खा गई।
जब एक परिवार में पंद्रह से बीस लोग एक ही परिवार में रहते थे। आदमी बाहर काम करते थे औरते घर में चूल्हा -चौका। घर के बड़े बच्चे बाहर कमाने जाते थे। घर में भी पैसे भिजवा देते थे। लेकिन धीरे -धीरे उन्होंने कहना शुरू किया ,यहाँ अपने ही खर्चे पूरे नहीं पड़ते तुम्हें कहाँ से भिजवा दे ? महंगाई देखी है ,कितनी है ?शहर में रहना कितना मुश्किल है ,इस महंगाई के ज़माने में। पर कमाने के लिए तो बाहर निकलना ही पड़ेगा। घर बैठे कौन खाने को दे जाएगा ?ये शब्द अक्सर कानों में पड़ते। धीरे -धीरे सब अपने -अपने परिवार व ख़र्चों तक सीमित रह गए।
पहले कोई मेहमान आता था ,उसे चाय नहीं दूघ व देशी बढ़िया खाने का इंतजाम किया जाता था। हम जैसे -जैसे जवान हुए , महंगाई भी जवान हो गई। पहली बात तो लोग चाहते ही नहीं कि कोई आए,आ भी गया तो आधुनिक शैली में चाय बिस्कुट से स्वागत करते हैं ,क्योंकि खाने -पीने की चीजों पर महंगाई का पूरा -पूरा असर था। अपने और अपने परिवार के लिए ही पूरा नहीं पड़ता। महंगाई के चलते इसका असर लोगों की सोच पर भी पड़ा पहले लोग किसी के आने पर खुश होते थे अब जाने पर खुश होते हैं |
आधुनिकता की दौड़ में अब तो फेसबुक और वाह्ट्सएप पर ही बधाई और मिठाई भेज देते हैं। जैसे -जैसे लोग आधुनिक हुए महंगाई भी आधुनिक हो गई उसने भी नया आवरण ओढ़ा। जी , एस , टी , का [गुड्स एंड सर्विस टैक्स ] लोगों ने बहुत शोर मचाया ,जैसे कोई लड़की किसी गाँव में छोटे कपड़े पहन कर चली जाये। लोग चर्चा करते हैं, शोर मचाते हैं पर होता कुछ नहीं। इसी तरह इसका भी कुछ नहीं हुआ, दिन प्रतिदिन इसकी रौनक बढती चली गई। अब तो प्याज़ के आँसू रोने पड़ते हैं। हम तो उम्र के साथ बीमार व कमज़ोर थके हुए महसूस करते हैं। पर ये महंगाई तो दिन प्रतिदिन जवान होती जा रही है पचास से ऊपर पार कर गई ये उस डायन की तरह है , जो अपने ही लोगों को ही खा जाती है। ये भी खा रही है पता नहीं इसकी भूख कब शांत होगी। शायद ही कभी !
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