
तब हम ऐसी कहानियाँ सुनकर बड़े रोमांचित होते थे ,कल्पना में खो जाते थे। बड़ी रोचक लगती थी ,वे कहानियाँ। बड़े होने पर एहसास हुआ कि वो दरवाज़े वो कहानियाँ हमारे लिए ही थी। अक्सर मम्मी बुआ से कहती ,-'इसका ध्यान रखना ,अब बड़ी हो रही है ,बचपना अभी इसका गया नहीं ,ज्यादा घर से बाहर न जाये। 'बुआ ने समझाया -'स्यानी लड़की या भले घर की लड़कियाँ ज्यादा देर तक बाहर नहीं घूमती। ज़्यादा जरूरी काम है ,तो अपने छोटे भाई को साथ ले जाना। संस्कारोंके दरवाज़े से बंधे हमने हां में हां मिलायी ,ऐसा किया भी। कहीं जाना होता तो छोटे भाई को साथ लेकर जाते। कभी -कभी अपने आप पर हँसी भी आती कि छोटा भाई रक्षा करेगा। जिसका आधा काम अभी मैं ही करती हूँ ,फिर भी संस्कार कहते हैं -बड़ों ने कहा हैं तो कहना मानना ही है।
दूसरा दरवाजा था ,पढ़ाई के साथ -साथ घर के कामों की जिम्मेदारी कैसे निभानी है ,उसकी अभी से तैयारी। काम के बोझ में अपने -आप को इतना व्यस्त करना कि और बातों की तरफ ख़्याल ही न जाए। हम क्या करना चाहते हैं ?/क्या करना है ,हमें अपनी जिंदगी को किस तरह से जीना है ? अधिकार भी एक बंद दरवाज़े की तरह ही था। हमारी जिंदगी की बागडोर भी दूसरों के हाथ में थी ,हमारी सोच ही हमारी अपनी नहीं थी क्योंकि भले घर की लड़कियां न ज़्यादा बोलती थी न ही ज़्यादा सोचती थीं
हम राजकुमारियों के हाथ में एक ताकत और थी ,त्याग। भाइयों के लिए त्याग करना ,उनके लिए सोचना। एक दरवाजा त्याग से होकर गुजरता था अपनी इच्छाओं को दबाना ,भावनाओं का त्याग करना ,घर के प्रति व घर वालों के प्रति। खुलकर जीना किसे कहते है ,ये तो शायद जाना ही नहीं। और इतना होने के बाद प्रेम के दरवाजे से गुजरते हुए ,सहनशीलता तक पहुंचे। सहनशीलता तो हर नारी का कर्तव्य है। यह उसके स्वभाव में शामिल होना ही चाहिए। वो ऊंची आवाज़ में भी अपनी बात नहीं कर सकती ,नम्र, मधुर ,मीठा वादन भी हर लड़की को आना चाहिए क्योंकि ये उसके स्वभाव को परिस्कृत करते है। इतने सारे दरवाजों में कैद होने के बाद ,तब एक सभ्य ,संस्कारी राजकुमारी तैयार होती थी।
किसी दूसरे घर के लिए या यूँ कहे किसी राजकुमार के लिए लेकिन ये जरूरी नहीं कि ये राजकुमार भी उसके क़ाबिल हो।ये हक़ भी उसका अपना नहीं होता। एक लॉटरी की तरह विवाह सम्पन्न होता है राजकुमार ठीक निकला तो उसकी जिंदगी सँवर जाती है। वरना इन दरवाजों की कैद से निकलकर दूसरे पिंजरे में कैद हो जाती है। वो इसका विरोध भी नहीं करती ,क्योंकि इस जीवन को जीने की उसे आदत जो पड़ चुकी होती है। ऐसी ही जिंदगी गुजारी थी ,हमने। परियों की कहानी से आते -आते हम कब वास्तविकता में जीने लगे ,पता ही नहीं चला लेकिन अब तो किसी राजकुमार की भी उम्मीद नहीं।
सोचते -सोचते वो वर्तमान में आ अपनी बेटी के पास गयी ,उसके बालों को सहलाकर सोचने लगी। मैं अपनी राजकुमारी को सही गलत की पहचान कराऊंगी ,लेकिन किसी बंधन में नहीं बांधूगी। वो अपने दरवाजे खुद चुनेगी। जहाँ खुला आसमान होगा ,उसकी अपनी सोच होगी। अपने फैसले होंगे। रूपा मन ही मन पछता रही थी ,क्योंकि आज उसने पायल को डांट जो दिया था। पायल अपनी सहेलियों के साथ निकल गई ,जो समय बताकर गई थी ,उस समय पर ना आकर बड़ी देर कर दी थी तभी उसमें उन बंद दरवाजों की गमक आई और उसने पायल को अच्छे से डांटा। वो बंद दरवाज़े जिन्हें वो खुद भी नहीं खोल पाई ,और न ही खोलने की कोशिश की
लेकिन अब ज़माना बदल गया है [उसने अपने -आप से वायदा किया ]मैं अपनी बेटी के दरवाजों को खोलने में उसकी मदद करुँगी। उसके साथ रहूँगी।
अगले दिन जब पायल उठी ,तो उसके पलँग के पास स्टूल पर कुछ रखा था। उत्सुकता से उसने वो डिब्बा खोलकर देखा तो वो उछल पड़ी क्योंकि उसमें एक फ़ोन था। कल जो उसे डांट पड़ी थी वो उसे कब की भूल चुकी थी। रसोईघर में आकर रूपा से लिपटकर बोली -मम्मा ये ज़रूर आपने सोचा होगा। स्कूटी भी आपने ही जिद्द करके दिलवाई थी और अब फ़ोन भी। रूपा ने कहा -'ये तुम्हारी जिंदगी की उड़ान में सहायक होगा। अब कहीं भी जाओगी ,तो फ़ोन करके हमें बता भी सकती हो हमें चिन्ता भी नहीं होगी। तुम्हें डांट भी नहीं पड़ेगी। जो भी करो ,अच्छे से करो ,दिल से करो। मैं तुम्हारे साथ हूँ। लेकिन इन सुविधाओं का कभी दुरूपयोग मत करना। समझाये देती हूँ ,रूपा ने आखें दिखाते हुए कहा। '
मम्मा आप भी मानोगी नहीं ,अपना रौब दिखाये बग़ैर। और दोनों खिलखिला कर हँस पड़ीं।