anokhe rishte

मम्मी ने जब से सुना ,मौसी आ रही हैं ,तब से जल्दी -जल्दी काम निपटा रही हैं। उन्हें अब सारा घर अस्त -व्यस्त नजर आ रहा है। कभी शयन कक्ष में जाती कभी रसोईघर में ,कभी हमे समझाने लगती -' हर चीज सही जगह पर लगाकर रखो। हमने समझाया कि मम्मी मौसी तो कल आ रही हैं क्यूँ परेशान हो रही हो ?बोलीं तो क्या हुआ ,हमे तो अपनी तैयारी पूरी रखनी चाहिए। कल कितना काम बढ़ जायेगा -नाश्ता ,दोपहर का खाना आदि कितने काम होंगे। ये काम होंगे या फिर सामान सहेजने में लगेंगे। सोचकर न बाबा न मुझे जो करना है करने दो। कहकर वो चली गयीं। हम भी उनके दिए निर्देशों के पालन में लग गए।

                          अगले दिन मौसी अपने परिवार के साथ आ पहुंची। मम्मी ने खूब ख़ातिर दारी की, खाने में कई तरह के व्यंजन थे, हमारी भी मौज आ गई। क्योकि उनके कारण मम्मी ने हमें भी पढ़ने -लिखने के लिए नहीं टोका।उसके बाद हम सारे बाहर भी घूमने गए। सारा दिन कैसे निकल गया ,पता ही नहीं चला। इससे एक बात तो पता चली कि मम्मी दूरदर्शी हैं । तभी तो ज़्यादातर काम कल ही निपटा दिया था। घूम- फिर कर हम थककर सो गए। मम्मी अपने काम निपटाने लग गईं। वो कब सोइ हमे पता ही न चला। सुबह जब आँख खुली तो वे सबके लिए नाश्ते की तैयारी में लगी थीं। और मौसी अपने जाने की तैयारी  में लगी थीं। हमने उनसे जाने के लिए मना किया। दो -चार दिन और रुक  जातीं ,लेकिन उन्होंने फिर कभी आने का वायदा करके चली गईं। उनके जाने के बाद मम्मी ने काम समेटा और शांत होकर कुर्सी पर बैठ गईं। काफी देर तक ऐसे ही बैठी रहीं ,हमने सोचा कि शायद थक गईं हैं इसलिये ऐसे बैठी हैं। लेकिन लग रहा था कि वो किसी गहन चिन्तन में हैं। पूछने पर बोलीं -'ये रिश्ते भी कितने अनोखे  होते हैं।
                                       एक समय था ,जब तुम्हारे पापा के पास काम नहीं था। नौकरी की आमदनी से ख़र्चे पूरे नहीं पड़ते थे, इसीलिए सोचा कि कुछ व्यापार कर  लें। शुरुआत में आमदनी तो हुई नहीं और घाटा हो गया। आर्थिक तंगी बढ़ी। ख़र्चों में कटौती करनी पड़ी। कोई उपाय नजर नहीं आ रहा था। धीरे -धीरे रिश्तेदारों को भी भनक लग गई। अब जो भी आता ,सुझाव देकर जाता। क्या जरूरत थी ,नौकरी छोड़ने की ?पहले व्यापार  बढ़ा लेते तब नौकरी छोड़ते। व्यापार  का कोई अनुभव तो था नहीं तो व्यापार करने की ज़रूरत ही क्या थी ?सुझाव सब देते पर मदद किसी ने नहीं की। धीरे -धीरे उनका आना -जाना भी कम हो गया। कमी तो चल ही रही है ,खातिर दारी में भी कमी आ रही थी ,कि कहीं  कुछ मांग न ले या मदद न करनी पड़ जाये। अपनी -अपनी परेशानी बताकर कन्नी काटकर चले गए।
                       वो दिन हमने कैसे गुज़ारे मैं आज भी याद करती हूँ ,तो मन सिहर उठता है। मैं घर के काम करके नौकरी करने जाती फिर आकर काम करती ,तुम्हारे पापा और मैं रात  -दिन लगे रहते। दो ,तीन साल बाद हमारी मेहनत का परिणाम नजर आया। तुम्हारी इस मौसी ने भी पुराने कपड़े देकर या कुछ खाने -पीने का सामान देकर मदद की। बस और रिश्तेदारों की तरह आना नहीं छोड़ा इसलिए ये आज भी उसी अधिकार से आ
जाती है। इसने और रिश्तेदारों की तरह मुँह तो नहीं छिपाया। ज्यादा मदद तो नहीं की लेकिन लगता था साथ तो खड़ी है। काम बढ़ा ,आमदनी भी बढ़ी।  रिश्तेदार भी आने लगे ,बधाई देने के बहाने से। आखिर तुम्हारी मेहनत काम कर  गई ऐसे ही शब्दों से अपनी झेंप उतारते।कई  बार तो मन में आया कि इन लोगों से बात भी न करू। फिर सोचा सबकी अपनी -अपनी परेशानियाँ होती हैं। चलो छोडो ,जो हुआ सो हुआ
                                       ये रिश्ते भी कितने अज़ीब और खोखले होते हैं ,जब जरूरत थी तो कोई साथ नहीं था। अब लगता है ,सब साथ हैं। इनके अंदर का खोखलापन मैं देख चुकी हूँ ,अब ये लोग आते हैं ,हँसते ,बोलते हैं और चले जाते हैं पर अब मेरे मन में वो पुराने भाव नहीं आ पाते ,जो इनका खोखलापन देखने से पहले थे।
                     सारी बातें सुनकर आदि बोला -'ऐसे लोगों को आपने घर में बैठाया ही क्यों ?आपने उनसे रिश्ता तोडा क्यूँ नहीं ,मैं होता तो ऐसे रिश्तेदारों से मतलब रखता ही नहीं। तब मम्मी ने समझाया -रिश्ते ऐसे ही होते हैं ,न ये जोड़े जा सकते हैं ,न ही तोड़े। जुड़  तो ये अपने आप ही जाते हैं ,पर इन्हें निभाता कौन ,कैसे है ?ये समय पर ही पता चलता है। अगर ये रिश्ते ही न हों ,हम अपने घर में अकेले पड़े रहे कोई पूछेगा भी नहीं। सब अपने -अपने घर के नबाब हैं। इन रिश्तों से ही आदमी अपने को सुरक्षित महसूस करता है ,कि  मैं अकेला नहीं मेरे परिवार में ताया है ,चाचा है ,मामा है ,मौसी है दादी -बाबा है आदि लोग हैं। आदमी सीना ठोककर कहता है ,मेरा भरा -पूरा परिवार है ,मैं कोई अनाथ हूँ। अकेला आदमी क्या कर  लेगा यदि दुःख -सुख में कोई साथ खड़े होने वाला न हो। इतने बड़े परिवार में कोई न कोई तो साथ खड़ा हो ही जाता है। जैसे तुम्हारी मौसी आ जाती थी। या सामाजिक डर  से भी आ जाते हैं। कभी -कभी तो पराये भी आपके लिए वो कर जाते है ,जो सगे भी न कर  पाएं ,लेकिन जो विश्वास या अपनापन हम  इन रिश्तों में समझते हैं ,वो कहीं नहीं होता। ये जानते हुए भी कि ये रिश्ते कितने खोखले हैं,फिर भी हम अपने चारों  ओर इन बनावटी रिश्तों   का एक सुरक्षात्मक घेरा बनाये होते हैं। 
                  कोई भी रिश्तेदार आ जाए ,बच्चों में ख़ुशी होतीहै ,रिश्तों की पहचान होती है वरना बच्चों को क्या पता चलेगा कि रिश्ते क्या होते हैं कौन चाचा है ,कौन मामा इत्यादि। इसीलिए यह जानते हुए भी कब कौन सा रिश्ता धोखा दे जाए फिर भी हम इन अनोखे रिश्तों को निभाते हैं यह भी जिंदगी का एक सच है। जिसको हम न चाहते भी जीते हैं। आज हमें रिश्तों के बारे में कुछ नया सीखने को मिला सुनकर हम अपने -अपने काम में लग गए। मम्मी अब भी वैसे ही बैठी थीं। 





             






















laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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