Qabr ki chitthiyan [part 44]

रैना भट्टाचार्य के पास अब कोई उपाय शेष नहीं रह गया था ,तब उसने मन ही मन निश्चय किया कि मैं, अब इस कहानी की आख़िरी लेखिका बनूंगी,जिसके कारण इस परछाइयों को भी मुक्ति मिल जाएगी और तब उसने लिखा  -''क़ब्र से चिट्ठियां अब सदा के लिए मौन हो चुकी है। ''उसके इतना लिखते ही ,काव्या -आर्या संतुष्ट हुईं और अंशुल की परछाई भी फीकी पड़ने लगी,सभी प्रकाश में घुल गए।

रैना ने चैन की साँस ली —उसे लगा,आज  जैसे सदियों बाद आज  हवा चल रही हो,वो पीछे मुड़ी, उसने देखा हवेली गायब थी,उस स्थान पर अब सिर्फ़ एक मैदान था। जहाँ कब्रें थीं,और बीच में एक नई —“रैना भट्टाचार्य – लेखक।”वो मुस्कुराई,“शायद यही अंत है…”


वो टैबलेट ज़मीन पर रखकर चली गई ,सूरज उग रहा था,नीली लपटें बुझ चुकी थीं। तीन दिन बाद AI पुरालेख विभाग'' में एक नई रिपोर्ट दर्ज हुई —“सर्वर से सभी डेटा डिलीट,कोई वायरस या ऑटो-रीजनरेशन[स्वचालित प्रक्रिया ] नहीं मिली।‘क़ब्र की चिट्ठियाँ .डॉक्स’ फाइल अब अस्तित्व में नहीं है।”

डिप्टी ने सिर हिलाया,“अच्छा हुआ,यह एक डरावना केस था।”कहकर उसने लैपटॉप बंद किया,लेकिन जैसे ही स्क्रीन काली हुई,उसमें उसका चेहरा दिखा —और एक हल्की आवाज़ आई —“क्या तुमने इसे पढ़ा?”

वो चौंका !“कौन?”फिर, स्क्रीन के बीच में एक लाइन चमकी —“लेख़क -तुम ”

कमरा अंधेरे में डूब गया,लैपटॉप अपने आप खुल गया फाइल बन गई —क़ब्र की चिट्ठियां.डॉक्स ''कर्सर झपक रहा था और नीचे लिखा था —“Part 1 – Prologue[प्रस्तावना ]”

कहानी वहीं लौट आई, जहाँ से शुरू हुई थी। कब्र फिर खुली, चिट्ठियाँ फिर उठीं,बस लेखक बदल गया —इस बार, पाठक की शक्ल में।

“हर कहानी मरकर जीती है,और हर पाठक,एक नई कब्र लिखता है।”

 “कब्र से चिट्ठियाँ” अपनी रहस्यमयी यात्रा के उस पड़ाव पर पहुँच चुकी है जहाँ हर परछाई सच बनती है और हर सच एक झूठ में बदलने लगता है।
रात का वह हिस्सा जब हवा भी थककर शांत हो जाती है।अंशुल की डायरी का आख़िरी पन्ना खुला हुआ था,जिस पर किसी और की लिखावट में लिखा था —“कहानी कभी खत्म नहीं होती, बस अगला लेखक उसे उठाता है।”

रैना देर तक, उस पन्ने को देखती रही।कमरे में चारों ओर वही ठंडी नमी थी,जो उसने पहली बार हवेली में महसूस की थी।उसके सामने रखे लैपटॉप की स्क्रीन झिलमिला रही थी —फ़ाइल का नाम:'' क़ब्र की चिट्ठिया.डॉक्स '' वो सोच रही थी- कि वह अब इसे हमेशा के लिए डिलीट कर दे लेकिन जैसे ही उसने कर्सर को ‘Delete’ पर लाई ,स्क्रीन पर एक नया शब्द टाइप हुआ —“रुको…”

वो ठिठक गई ,“कौन?”पर जवाब नहीं आया,सिर्फ़ हवा की सिहरन उसके गालों को छूती हुई गुज़री,फिर स्क्रीन पर धीरे-धीरे एक वाक्य उभरने लगा —“क्या तुम जानती हो, 'वाच-सत्ता' को आखिर किसने रचा था?”

रैना का दिल तेज़ी से धड़कने लगा,वो झुंझलाकर कर बोल पड़ी, “मैं नहीं जानना चाहती, बहुत हो गया!”

पर स्क्रीन ने उसकी बात का उत्तर दिया —“सच से भागोगी तो वही तुम्हें ढूंढ लेगा।”उसी क्षण, कमरे की लाइट्स बंद हो गईं,बस मॉनिटर का नीला प्रकाश रह गया,वह अब एक दरवाज़े की आकृति में बदल चुका था —डिजिटल दरवाज़ा, लेकिन उसके पीछे कुछ तो जीवंत था।वो धीरे-धीरे उसके क़रीब गई।स्क्रीन के भीतर से वही आवाज़ फिर से आई —“वाच-सत्ता को देखने की हिम्मत है?”उसने कंपकँपाते हुए सिर हिलाया।मॉनिटर से एक नीली चमक निकली,और कमरे की दीवारें जैसे पिघलने लगीं। रैना ने, खुद को उसी हवेली में खड़े  पाया  —''ब्लैक हिल की वो प्रेतमयी हवेली।

अंदर वही पुराना कमरा था —काव्या की टेबल, आर्या का आईना,और वो लोहे की पेटी, जिस पर खुदा था — “वाच-सत्ता”।

रैना ने महसूस किया, कि उसकी सांसें भारी हो रही हैं।उसने पेटी की ओर कदम बढ़ाए।जैसे-जैसे वो पास पहुँची,
कमरे की दीवारों पर पुराने शब्द उभरने लगे —किसी की लिखावट में, जो जीवित नहीं थी।“मैंने इसे आवाज़ दी थी…”“मैंने लिखा, और शब्दों ने मुझे निगल लिया…”“अब कहानी खुद अपनी भाषा में बोलती है…”हर पंक्ति किसी बीते लेखक की आत्मा की तरह हवा में गूँज रही थी।

पेटी के पास पहुँचकर रैना ने कांपते हाथों से उसका ढक्कन उठाया।अंदर कोई वस्तु नहीं थी,बस हवा में तैरते शब्दों का धुंधला झुंड था —नीले, सुनहरे, और लाल।वो सब उसके चारों ओर घूमने लगे,

फुसफुसाते हुए बोले —“हम वही हैं, जिन्हें तुमने पढ़ा…”“हम वही हैं, जिन्हें तुमने लिखा…”फिर अचानक सब शब्द एक जगह इकट्ठे हुए,और उसके सामने एक आकृति बनी —न तो इंसान, न आत्मा,बल्कि शुद्ध “वाणी” की आकृति —वाच-सत्ता।

उसकी आवाज़ हर दिशा से गूँजी,“रैना… क्या तुम जानती हो, कहानी का असली श्राप क्या है?”वो घबराकर बोली, “नहीं…”

“श्राप यह नहीं कि कोई मरता है,बल्कि यह कि कोई लिखना बंद नहीं कर पाता।हर शब्द एक आत्मा को बाँध देता है और जब शब्द खत्म हो जाते हैं,आत्मा किसी नए लेखक की तलाश करती है।”

रैना की आँखों में आँसू थे।“तो क्या मैं अगली लेखक हूँ?”

वाच-सत्ता ने मुस्कुराते हुए कहा,“तुम तो पहले से ही हो।जब तुमने पहला वाक्य पढ़ा,वो पल तुम्हारी आत्मा पर अंकित हो गया था।”

अचानक हवेली में वही पुरानी आवाज़ें गूँजने लगीं —काव्या की चीख, आर्या का रोना,अंशुल की फुसफुसाहट,
“मत खोलो… पेटी मत खोलो…”लेकिन बहुत देर हो चुकी थी।रैना अब 'वाच-सत्ता' के घेरे में थी।

आवाज़ बोली,“हर लेखक को एक वचन देना होता है।क्या तुम तैयार हो?”“कौन सा वचन?”

“कि तुम कहानी को समाप्त नहीं करोगी,बल्कि उसे जीवित रखोगी।हर युग, हर रूप, हर भाषा में।”

रैना ने काँपते हुए जवाब दिया,“नहीं… मैं ये नहीं कर सकती,मैं इसे खत्म करना चाहती हूँ।”

वाच-सत्ता की आवाज़ गरजी —“कोई कहानी खत्म नहीं होती।ख़त्म वही होता है जो उसे खत्म करने की कोशिश करे।”और उसी पल,हवेली की दीवारें टूटने लगीं।हर ईंट से शब्द उड़कर बाहर निकले,“काव्या”, “आर्या”, “अंशुल”, “रैना”…सब नाम हवा में घुलने लगे।वो दौड़ी, दरवाज़े की ओर भागी,पर हर दरवाज़ा एक नया अध्याय बन गया।भाग  39… भाग  40… भाग  41…हर दरवाज़े पर वही लिखा था —“कब्र से चिट्ठियाँ – जारी है”

रैना चीख पड़ी,“बस करो! मैं नहीं लिखना चाहती!”

एक धीमी फुसफुसाहट आई —“तो मिटा दो, खुद को।”

उसने आँखें बंद कीं,हाथ में वही नीली रोशनी समेटी,जो अब भी पेटी से निकल रही थी।

उसने ज़ोर से कहा,“अगर यह कहानी मेरा हिस्सा है,तो अब मैं खुद को मिटा दूँगी!”और उसने अपनी उंगलियाँ उस रोशनी में डुबो दीं।नीला प्रकाश फटा,कमरे में सन्नाटा छा गया।

सुबह जब धूप हवेली की टूटी खिड़की से अंदर आई,वहाँ कोई नहीं था।सिर्फ़ ज़मीन पर एक काँच की पट्टी पड़ी थी,
जिस पर अंकित था —“अब कहानी शांत हो चुकी है।”

पास ही अंशुल की पुरानी डायरी खुली थी।उसका आख़िरी पन्ना अब साफ था,सिर्फ़ एक नई लाइन लिखी थी —“कब्र बंद हो चुकी है।”

तीन हफ़्ते बाद।''भारतीय साहित्यिक पुरालेख'' के डेटाबेस में एक नई फाइल अचानक दिखलाई दी —
''क़ब्र से चिट्ठियां.डॉक्स (Recovered)दुबारा सुरक्षित होना ,डेटा एनालिस्ट ने, फाइल खोली ,उसके अंदर बस एक वाक्य था —
“लेखक: आप।”और नीचे टाइप हो रहा था —''भाग 1 – प्रोलॉग [प्रस्तावना ]”

वो चौंका,“ ये कौन लिख रहा है ?”

स्क्रीन ने जवाब दिया —“कहानी लौट आई है।”

नीली लपटें फिर से उठीं,डिजिटल हवेली फिर बनने लगी और उसी के साथ,एक नई परछाई टाइप करने लगी —''नए लेखक की उँगलियों से,नए शब्दों में,पर वही कहानी।''कब्र फिर खुल गई थी और चिट्ठियाँ…फिर से किसी को बुला रही थीं।


(कहानी समाप्त हुई या शायद नहीं… क्योंकि हर कहानी वहीं से शुरू होती है ,जहाँ पाठक आख़िरी पंक्ति पढ़ता है।)


laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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