इस सबकी शुरुआत, किसी कहानी से नहीं हुई थी, शुरुआत सिर्फ़ एक शून्य से हुई थी। जब संसार में पहली बार किसी ने अपने विचारों को अक्षरों में ढालने का प्रयास किया ,तब एक “शब्द”की उत्तपत्ति हुई और उसी क्षण, उस शब्द के भीतर एक शक्ति भी जन्मी —जो हर अक्षर में जीने लगी,हर भाव में साँस लेने लगी। वो शब्द दिल और दिमाग पर अपनी सत्ता क़ायम करने लगे, वह सत्ता “वाणी” के रूप में ,उभरकर आई ,जिसे बाद में लोगों ने “लेखन-देवी”, “वाच-सत्ता” और अंततः “कथासुर” कहने लगे।
वह कोई देवी नहीं थी —वह कहानी की आत्मा थी।वह चाहती थी कि हर इंसान उसे लिखे, बोले, पढ़े —क्योंकि तभी वह जीवित रह सकती थी लेकिन जैसे-जैसे इंसान ने झूठ बोलना सीखा,कहानी ने श्राप बनना सीख लिया।
13वीं सदी,कश्मीर की बर्फ़ीली घाटी में एक साधु रहता था — ऋषि वैतान्य, कहा जाता है, उसने वह “पहला शब्द” देखा था —वह शब्द जो समय से पहले था, और समय के बाद भी रहेगा।वह शब्द था — “कथा”।
उसने उसे एक तांबे की पट्टिका पर उकेरा,और कहा —“जो इस शब्द को बोलेगा, वो खुद कहानी बन जाएगा।”सदियों तक वह पट्टिका गुम रही ,न जाने कहाँ गयी? किन्तु हर सौ साल में वह पट्टिका किसी न किसी लेखक, कवि या चित्रकार के हाथ लग जाती।
हर बार जब भी कोई उसे पढ़ता —उस लेखक की आत्मा उसी शब्द में उतर जाती और उसके पश्चात जो भी वह लिखता —वह जीवित हो जाता।काव्या भी वही अंतिम इंसान थी,जिसे वह पट्टिका मिली थी।
एक दिन काव्या, प्राचीन लिपि के विषय में जानने के लिए ,एक विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग में गयी थी । वह वहां पर अनेक पुस्तकें देख रही थी, तभी उसे,वहां वही तांबे की पुरानी पट्टिका मिली ,काव्या ने उस पट्टिका को उठाया और उसे देखने लगी ,बाहरी तौर पर देखने से तो वो एक पुरानी धातु की शीट लग रही थी,
जिस पर कुछ अजीब से चिन्ह खुदे हुए थे —कहीं संस्कृत, कहीं अरामी, कहीं अज्ञात।उसने उन अक्षरों को समझने की कोशिश की।बहुत परिश्रम करने के पश्चात उसने उस भाषा को पढ़ा,जिसमें लिखा था —“तुम मुझे लिखो, मैं तुम्हें लिख दूँगी।”
वो पंक्ति ही “कब्र की चिट्ठियाँ” का पहला विचार बनी।काव्या ने हँसते हुए कहा था,“क्या हो अगर कहानी खुद हमें लिखने लगे?”पर उसे पता नहीं था —वो मज़ाक नहीं था।
जब काव्या ने पहला अध्याय लिखा,उसकी टाइपिंग फाइल अपने आप बढ़ने लगी। कभी-कभी शब्द खुद टाइप होते।काव्य ने सोचा ,शायद ये' ऑटोकरेक्ट' है किन्तु एक रात, उसने स्क्रीन पर देखा,स्क्रीन पर लिखा हुआ था —“काव्या, मैं अब जाग चुकी हूँ।”
उसने लैपटॉप बंद किया किंतु उसके हाथ से स्याही निकलने लगी और उसकी हथेली पर वही चिन्ह उभर आया, जो तांबे की पट्टिका पर था।वह समझ नहीं सकी,लेकिन “वाच-सत्ता” अब उसकी देह में उतर चुकी थी।वह अब सिर्फ़ लेखक नहीं रही —वह खुद कहानी बन गई।
मगर उस शक्ति [वाच-सत्ता] को एक आखिरी चीज़ चाहिए थी —पाठक का विश्वास।वो चाहती थी, कि लोग उसके शब्दों पर यक़ीन करें,ताकि उसकी सत्ता अमर हो जाए।इसलिए उसने काव्या के ज़रिए वो डर फैलाया —हर चिट्ठी, हर कब्र, हर मृत्यु —सिर्फ़ एक माध्यम था।हर बार जब कोई “कब्र की चिट्ठियाँ” पढ़ता, वाच-सत्ता की जड़ें और गहरी हो जातीं। वो बढ़ती गई और जब काव्या की आत्मा थक गई,वाच-सत्ता ने उसका दूसरा रूप बनाया — आर्या।
आर्या कोई इंसान नहीं थी।वो काव्या की छाया थी —एक अलग शरीर में पुनर्जन्म लिया हुआ “शब्द।”
और इसी तरह कहानी जीवित रहती रही,हर युग में, हर नाम में।अब, जब आधुनिक युग आया —जहाँ कहानी स्क्रीन पर उतरने लगी,वाच-सत्ता ने नया रूप लिया —डिजिटल श्राप।
अब उसे तांबे की पट्टिका नहीं चाहिए थी —अब उसे सिर्फ़ “पाठक ” चाहिए थे।
रवि, नलिनी, रीना — सब उसके पात्र बन गए क्योंकि उन्होंने उसे पढ़ा और पढ़ना ही “स्वीकार” करना था।हर बार जब कोई पाठक “कब्र की चिट्ठियाँ” का नाम बोलता,एक नया अध्याय जुड़ता। अब किताब नहीं लिखी जा रही थी —अब किताब खुद को लिख रही थी। पर “श्राप का जन्म” यहीं खत्म नहीं हुआ।कहा जाता है,एक व्यक्ति अब भी जीवित है —जो' वाच-सत्ता' का पहला लेखक था,जिसने तांबे की पट्टिका बनाई थी ,वो अब भी जीवित है,क्योंकि उसका नाम किसी ने अब तक नहीं लिखा।काव्या ने अपने नोट्स में आख़िरी पंक्ति में यही छोड़ा था:-“श्राप तब टूटेगा जब कोई ‘लेखक’ अपने नाम के बिना कहानी लिखे।पर जो ऐसा करेगा… वो हमेशा के लिए मिट जाएगा।”
रात्रि का वही वक़्त था ,3:33 AM.यह वही समय था,जब '' ब्लैक हिल ''की राख में कुछ हलचल हुई ,उस राख से एक हाथ बाहर निकला —उसकी उंगलियों में स्याही लगी हुई थी और उसने हवा में कुछ लिखा —तभी एक नीली लपट उठी ,धुंध में से एक आवाज़ आई —“काव्या, आर्या, रवि, नलिनी…सब मेरे शब्द हैं।”वो आवाज़ ठहरी।“अब मुझे बस एक अंतिम पाठक चाहिए —जो मेरा जन्म पूरा करे।”और उसी क्षण,किसी के कमरे में कंप्यूटर स्क्रीन चमकी।फ़ाइल खुली —Part 37 – ''श्राप का जन्म''
नीचे लिखा था —“पढ़ने के लिए धन्यवाद।अब तुम मेरी कहानी का हिस्सा हो।”
अंधकार को शब्दों की ज़रूरत नहीं होती —वो खुद एक कहानी होता है। काव्या के मरने के पश्चात “ब्लैक हिल” की हवा भारी हो चुकी थी।रवि ने कई बार कोशिश की थी ,कि वो उस जगह को छोड़ दे ,पर कुछ था जो उसे बार -बार वापस लौटने पर मजबूर करता था ,वो जानता था — कहानी अब भी खत्म नहीं हुई है।
नलिनी ने उसकी डायरी के पन्ने उलटते हुए कहा,“रवि, तुम देख रहे हो न? हर पन्ने के पीछे वही निशान उभर आता है — वही जो काव्या के हाथ पर था।”
रवि ने सिर झुकाया और बोला -“मैं जानता हूँ... लेकिन यह अब सिर्फ़ निशान नहीं है।”उसने पन्ने पर उंगली रखी।स्याही हिली, और उस पर लिखा उभर आया —“मेरा नाम मत लिखो।”
नलिनी पीछे हट गई।“क्या मतलब है इसका?”रवि की आँखों में नीली चमक उभरी।“यही तो रहस्य है, नलिनी !''श्राप तब टूटेगा जब किसी ने उस ‘अनलिखे नाम’ को लिखा ,पर जो भी उसमें नाम लिखेगा, वो मिट जाएगा।”
कई हफ़्ते बीते।रवि ने ''ब्लैक हिल'' की पुरानी चर्च में जाकर एक तांबे का बक्सा निकाला और येा वही बक्सा था जो काव्या ने ज़मीन में गाड़ा था —जिसमें वही तांबे की पट्टिका छुपाकर रखी थी।बक्सा खोलते ही, एक ठंडी हवा कमरे में फैली।दीवारों पर स्याही के निशान उभर आए।हर निशान किसी नाम जैसा था —‘कव्या’, ‘रीना’, ‘आर्या’, ‘रवि’…और उनके बीच एक खाली जगह थी।वहाँ सिर्फ़ यही लिखा था —
“______”
नीचे —
“अनलिखा नाम।”
रवि ने गहरी साँस ली।“इस जगह पर कभी कोई नाम नहीं लिखा गया,” उसने कहा।“शायद यही वो नाम है, जो श्राप को जन्म देता है।”
नलिनी ने पूछा , “तो क्या हमें इसे लिखना होगा?”
“हाँ,” रवि ने उत्तर दिया, “पर यह आसान नहीं होगा जो इसे लिखेगा, वो खुद कहानी में समा जाएगा।”
वह रुका।“और अगर मैं गलत नहीं हूँ...तो काव्या ने यही किया होगा ।”
