शांतपुर—नाम के विपरीत, अब वह गाँव शांत नहीं रहा था। चौधरी देवेंद्र सिह जी की हवेली के भीतर उठी एक छोटी-सी 'कलह' ने पूरे गाँव की नींद छीन ली थी। चौधरी देवेंद्र सिंह, उम्र साठ के पार, गाँव के सबसे सम्मानित व्यक्ति माने जाते थे। उनके दो बेटे—राघव और विवेक—एक ही छत के नीचे रहते थे, पर दिलों की छतें बहुत पहले दरक चुकी थीं।
राघव बड़ा था—समझदार पर कठोर स्वभाव का था, खेत-खलिहानों का काम भी वही संभालता था।
विवेक शहर में पढ़ा-लिखा था, सरकारी नौकरी करता था। दोनों के जीवन अलग थे, पर उनकी जड़ें एक ही थीं—हवेली, और पिता का आदेश। शुरुआत में सब कुछ सामान्य चल रहा था। राघव ने अपने खेतों में नई मशीन लाने का सुझाव दिया।
विवेक ने कहा—"पहले मजदूरों की मज़दूरी बढ़ाओ।" बात बस यहीं से बिगड़ गई। कुछ ही दिनों में गाँव की चौपालों तक यह चर्चा थी कि "चौधरी के घर में अब दोनों बेटों के मध्य ''कलह''हो रही है।" देवेंद्र सिंह ने उन्हें बहुत समझाने कोशिश की, कि बेटों में एकता बनी रहे, किन्तु अब उनकी ज़िद और कलह के कारण बन गयी थी, चौधरी के शब्दों का भी अब पहले जैसा असर नहीं रहा ।
माँ, सावित्री देवी, दोनों बेटों के मध्य दीवार बनती जा रही थी। एक रात उन्होंने अपने आपसे कहा - “देवेंद्र, यह घर अब घर नहीं रहा,पहले जैसी शांति और प्रेम नहीं रहा … रणभूमि बन गया है।” एक दिन अचानक चौधरी साहब बीमार पड़ गए। दोनों बेटे आए, पर एक-दूसरे से बात तक न की।
डॉक्टर ने कहा—“तनाव से हालत और बिगड़ जाएगी।” पर बच्चों को कौन समझाता कि पिता का तनाव तो इन्हीं दो बेटों का दिया हुआ था, तीसरे दिन चौधरी ने दोनों को बुलाया, उनके हाथ काँप रहे थे, पर आवाज़ स्थिर थी— “मुझे अब कुछ दिन ही जीना हैं। मेरी एक आख़िरी इच्छा है…इस हवेली को बाँट लो।” कमरे में सन्नाटा छा गया।
सावित्री देवी ने घबराकर कहा—“नहीं जी, ऐसा मत कहिए!” पर देवेंद्र सिंह ने दस्तावेज़ तैयार करवाए। खेत, हवेली, यहाँ तक कि बर्तन तक का बँटवारा कर दिया गया। दोनों बेटों ने बिना विरोध किए दस्तखत कर दिए। अगली सुबह चौधरी ने सबको बुलाकर कहा, “आज से तुम दोनों अपने -अपने हिस्से में रहो। कलह खत्म।” कुछ ही दिनों में हवेली दो हिस्सों में बँट गई—बीच में दीवार खड़ी कर दी गई। एक तरफ राघव का परिवार, दूसरी तरफ विवेक का। शुरू में सब सहज लगा, पर धीरे-धीरे हवेली की हवा तक भारी लगने लगी ।
रातों को सावित्री देवी, अकेली छत पर बैठी रोतीं रहती । इस बात का बेटों को कोई फर्क नहीं पड़ता था। महीने बीत गए। फिर एक दिन गाँव में बिजली गिरी—देवेंद्र सिंह जी नहीं रहे। शवयात्रा में दोनों बेटे साथ थे, पर उनके बीच वही दूरी थी। जब चिता जली, राख में पिता की देह के साथ हवेली की आखिरी गर्माहट भी खत्म हो गई। राख के बाद का सन्नाटा डरावना था। माँ कमरे में अकेली रह गईं। दोनों बेटों ने कहा—“माँ, आप जिस तरफ रहना चाहें, रह लीजिए।” वह मुस्कुरा दीं—“अब किस तरफ जाऊँ, बेटा? इस दीवार ने तो दोनों तरफ से मेरा घर छीना है।”
रात को जब दोनों अपने- अपने हिस्से में लौटे, तो हवा में कुछ अजीब था। राघव के कमरे की दीवार से धुआँ निकल रहा था। दौड़कर देखा—दीवार के उस पार आग लगी थी। विवेक के हिस्से के रसोईघर में गैस लीक होकर विस्फोट हुआ था। दोनों ओर अफरा-तफरी मच गई। दीवार के पार से विवेक की आवाज़ आई—“भाई ! माँ अंदर है!” दोनों ने मिलकर दीवार तोड़ने की कोशिश की। मिट्टी और ईंटों के नीचे दबे हुए शब्द निकले—“माँ…” दीवार टूटी, पर तब तक देर हो चुकी थी। सावित्री देवी की साँसें थम चुकी थीं।
अगली सुबह गाँव के लोगों ने देखा—हवेली के बीच की दीवार अब नहीं थी। दोनों भाई बाहर बैठे थे, न कुछ बोले, न रोए। गाँव के बुजुर्ग ने पास आकर कहा—“जब दीवार खड़ी हुई थी, तब ही यह घर मर गया था। अब बस राख बची है—कलह की राख।” कुछ हफ्तों के पश्चात हवेली बिक गई। राघव शहर चला गया, विवेक विदेश। कोई नहीं जानता, किसने दीवार गिराई थी—आग ने या पछतावे ने। पर गाँव के लोग अब भी कहते हैं— “कलह'' किसी को जीतने नहीं देती, वह तो सबका घर जलाकर राख कर देती है।”
