बरसों पुरानी हवेली के आँगन में शाम की धूप, तिरछी होकर बिखर रही थी। पीली मद्धम रोशनी दीवारों पर पड़ते हुए घर की पुरानी खुशबू को फिर से जगा रही थी—अचार की महक, माँ के हाथों की चाय, और पापा की हँसी, जो अब घर में कम ही गूंजती थी। नीम का वह पुराना पेड़, जहां पर कभी आयुष का बचपन बीता था , पापा की उंगली पकड़कर झूला झूलता था। आज वही पेड़, वही स्थान उसे कुछ अंजाना सा लग रहा है। मन में घबराहट है और दिमाग में, एक ही सवाल उभर रहा है -क्या पापा उसको समझ पाएंगे ?
कई वर्ष से वह मीरा से प्यार करता आ रहा है, किंतु इसकी भनक परिवार में किसी को भी नहीं लगी थी , वह अपने को एक जिम्मेदार बेटा, और एक जिम्मेदार पति बनना चाहता था इसलिए उसने समय का इंतजार किया। आज वह इस काबिल हो गया है, कि वह अपने परिवार से कह सके-' कि वह मीरा से प्यार करता है।'
मीरा और उसकी मुलाकात, एक कार्यक्रम में हुई थी, वहीं पर मीरा को देखकर, वह उस पर लट्टू हो गया था और वास्तव में ही लट्टू की तरह उसके आगे -पीछे घूम रहा था। जैसी लड़की वह चाहता था, मीरा वैसी ही लड़की थी उसने अपने दिल की बात, मीरा को बताने में कोई देरी नहीं की। मीरा ने भी इनकार नहीं किया क्योंकि वह भी आयुष को देखते ही, उस पर आसक्त हो गई थी। धीरे-धीरे दोनों की मुलाकातें बढ़ने लगी और धीरे-धीरे ही उन्हें पता चला कि अनजाने में ही उनसे एक बहुत बड़ी गलती हो गई है।
आयुष और मीरा का संबंध दूसरी बिरादरी से ही नहीं बल्कि उसके पापा और मीरा के पापा में आपसी दुश्मनी भी थी। दोनों ही यह सब जान गए थे, पीछे हटना भी चाहते थे, उनकी बुद्धि ने उन्हें समझाना चाहा कि इस रिश्ते में, उन्हें कष्ट के सिवा कुछ नहीं मिलने वाला है इसीलिए उन्होंने समझदारी से काम लेते हुए, कुछ दिन दूरी बनाए रखी किंतु फिर दिल के हाथों मजबूर होकर, एक- दूसरे से मिलने लगे ,सोचा था -'' जब ईश्वर ने हमें मिलवाया है, तो कुछ सोच कर ही मिलवाया होगा। अब जैसी भी स्थिति होगी दोनों मिलकर, उसका सामना करेंगे।''
वास्तविकता का ज्ञान होते हुए भी, दोनों एक दूसरे से मिलते रहे और उनका प्यार परवान चढ़ता रहा। अब आयुष अपने पैरों पर भी खड़ा हो गया। वे दोनों चाहते तो.... भाग भी सकते थे, भाग कर शादी कर सकते थे किंतु वे चाहते थे -इस परिवार की दुश्मनी समाप्त हो और माता-पिता का आशीर्वाद मिले। एक अच्छी शुरुआत करना चाहते थे। उनके प्यार की बात जब मीरा के परिवार तक पहुंची, तो घर में कोहराम मच गया और साथ ही मीरा को चेतावनी भी मिली कि वह उस लड़के से मिलना बंद कर दे और उससे विवाह के सपने देखना भी.... यह बिल्कुल भी संभव नहीं है।
तब आयुष ने सोचा, शायद मेरे पिता, मेरा परिवार, इस रिश्ते के लिए हां कर देगा और वे लोग हमारा साथ देंगे, तब वह मीरा को लेकर, अपने घर आया किंतु बाहर नीम के पेड़ के पास ही खड़ा रहा , उसका साहस नहीं हो रहा था, कि घर वालों से वह सच्चाई बता सके।
“तैयार हो?”—पीछे से मीरा की धीमी आवाज़ आई।
वह मुड़ा , मीरा, उसकी तीन साल की सबसे करीबी दोस्त, उसकी हँसी, उसकी चुप्पी, और उसकी अब… ज़िंदगी। चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान थी, मगर आँखों में वही डर—जो दो लोगों को एक बड़ी लड़ाई से पहले होता है।
“शायद…” आयुष ने कहा।
“देखो, हम सच कहेंगे, ” मीरा ने उसका हाथ थामते हुए कहा। “बाक़ी… जो होगा, देखा जाएगा।”
दोनों आँगन की ओर बढ़े। दादी लकड़ी की मुँडेर पर बैठी तुलसी के पौधे में पानी दे रही थीं। माँ रसोई से चाय का ट्रे लेकर बाहर निकल रही थीं और पापा… पापा अपने पुराने रेडियो को ठीक करते हुए जैसे अपनी ही दुनिया में खोए थे।
आयुष का दिल एक पल को रुक सा गया,वह आगे बढ़ा “पापा… हमें आपसे कुछ बात करनी है।”
पापा ने सिर उठाया, चश्मा उतारा, और ध्यान से उन दोनों को देखा -“बोलो।”
आयुष ने एक गहरी साँस ली,“पापा… मैं और मीरा… हम दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं। हम शादी करना चाहते हैं।”
दादी के हाथ थम गए, माँ की आँखें फैल गईं और पापा… उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। एक लंबा सन्नाटा छा गया,इतना लंबा कि लगता था समय वहीं थम गया हो।“तुम्हें पता भी है, इसका मतलब क्या है?”—पापा की भारी आवाज़ ने सन्नाटे को तोड़ा।
“हाँ पापा,” आयुष ने हिम्मत जुटाते हुए कहा- “हमें बस आपका आशीर्वाद चाहिए।'' बाकी सब हम दोनों मिलकर संभाल लेंगे।”
पापा उठे, उनके कदमों में धीमी-सी थकान थी। उन्होंने मीरा को देखा—गंभीर नज़रों से, जैसे उसके भीतर झांक रहे हों ,उसको देखकर बोले -तुम तो भानुप्रताप की बेटी हो !
जी अंकल !नजरें झुकाकर मीरा ने जबाब दिया।
“मीरा ! तुम जानती हो, ये घर मेरी ज़िम्मेदारी है, इस परिवार ने… बहुत कुछ देखा है। रिश्ते बनाए जाते हैं, निभाए जाते हैं। शादी कोई खेल नहीं है ।”
मीरा ने धीरे से सिर झुकाया,“मुझे पता है, चाचाजी ! और मैं… मैं इस घर के नियमों को समझते हुए ही, इस घर में आना चाहती हूँ।”
पापा की आँखों में एक पल के लिए नरमी तैर गई, पर तुरंत वही कठोरता लौट आई“और तुम्हारे अपने घरवाले?”
मीरा की आवाज़ काँपी -“वो… तैयार नहीं हैं, लेकिन उन्होंने मना भी नहीं किया। बस… सोचने को कहा है।”
पापा की भौहें तन गईं। आदर्शवादी, सख्त, और हर चीज़ नियमों के मुताबिक़ करने वाले बोले -तब तुम हमसे क्या उम्मीद रखती हो ?जिस रिश्ते को तुम्हारे परिवार की सहमति नहीं मिली ,क्या उसे हम, अपनी सहमति दे देंगे। तुम हमारे दोस्त की नहीं ,दुश्मन की बेटी हो ,कल को वो हम पर या हमारे बेटे पर कोई भी इल्जाम लगा सकता है। उसके लिए बिना परिवार की रज़ामंदी के शादी—कैसे हो सकती है ?
आयुष की आवाज़ धीमी थी किन्तु उसकी आवाज में ढ्र्ढ्ता थी - पापा !मैं मीरा के बिना नहीं रह सकता, उसके बिना मैं अधूरा हूं , आप अपना आशीर्वाद दे दीजिए ! फिर इसके परिवार से भी मिलकर बात कर लेंगे। अब दुनिया चाहे कुछ भी कहे मैं इसे छोड़ नहीं सकता, मीरा के बिना… मैं अधूरा हूँ।
पोते के ऐसे शब्द सुनकर दादी बौखला गयीं , जिसकी उन्हें आशंका थी।
“अरे राम-राम! बिना जाति-कुल पूछे? बिना समाज देखे? ये सब… आजकल के लड़के-लड़कियाँ…”
माँ ने दादी का हाथ थामा -यह बच्चों की जिंदगी का सवाल है, हमें जो भी कदम उठाना होगा सोच समझ कर ही उठाना होगा।
पापा ने माँ की बात, बीच में ही काट दी,“इस घर में फैसले ऐसे नहीं होते। अगर शादी करनी है, तो दोनों परिवारों की सहमति आवश्यक है। ”
“नहीं तो?”—आयुष की आँखें भर आईं।“आप मुझे अपने दिल से,इस घर से बाहर निकाल देंगे?”
पापा शांत रहे ,मगर उनकी खामोशी… किसी भी शब्द से ज़्यादा दर्दनाक थी।
मीरा आगे बढ़ी,“चाचा जी !मेरे परिवार ने तो इंकार कर दिया ,आप मुझे बचपन से जानते हैं ,एक आप से ही उम्मीद लेकर हम यहाँ आये थे,आपका आशीर्वाद रहा ,तो हम हर परेशानी का सामना कर सकते हैं। अगर मेरी वजह से घर में परेशानी हो रही है तो मैं—कहते हुए वो रोने लगी। ”
“मीरा!” आयुष ने तुरंत उसका हाथ कसकर पकड़ लिया
बहुत हो गया,क्या आप अपने समय को भूल गए ?आपने भी तो शादी अपने प्यार से ही की थी। अपने दादा जी को राज़ी करने में आपको कितना समय लगा था, ये हम सब जानते हैं।”दो प्यार करने वाले क्या, दो प्यार करने वालों का दर्द नहीं समझेंगे ?''
रतनलाल जी चौंके,उनकी पत्नी ने उनकी पुरानी यादों को छेड़ दिया था ,उन्हें अपने दिन स्मरण हो आये।
माँ आगे बोली—“हर पीढ़ी को अपने फैसले खुद लेने दीजिए, हम उनकी जगह कैसे तय कर सकते हैं, कि उन्हें किसके साथ जीवन बिताना है?”
पापा धीमे-धीमे बैठ गए, वो कुछ नहीं बोले, लेकिन माँ की बातें दीवारों में गूंज रहीं थीं -''दुश्मनी अपनी जगह है ,जब इतने दिनों इसे पाला है तो कुछ दिन प्यार पालकर देख लेते हैं और मुझे उम्मीद है ,ये प्यार ज्यादा साथ रहेगा।''
दादी बोलीं—“पर समाज क्या कहेगा? दुश्मन की बेटी को घर ले आये।
माँ ने मुस्कुराकर उत्तर दिया—ये भी साहस का कार्य है ,“समाज कभी खुश नहीं होता, माँ ! आज भी कहेगा, कल भी, लेकिन अगर हमारे बच्चे खुश हैं… तो इनके लिए यही असली आशीर्वाद है।”
पापा ने मीरा और आयुष को देखा “एक आखिरी बात…”—उन्होंने कहा -“तुम दोनों… कितने यकीन से कह सकते हो कि तुम जीवन भर साथ निभाओगे? सिर्फ प्यार ही काफी नहीं होता।”
आयुष ने बिना एक सेकंड की देरी के जवाब दिया—“अगर भरोसा, ईमानदारी और इज़्जत साथ हो… तो प्यार सबसे बड़ी ताकत बन जाता है।”
मीरा ने धीरे से कहा—“हम लड़ेंगे भी, रूठेंगे भी, पर छोड़ेंगे नहीं। बस आपका साथ चाहिए, चाचा जी !”
पापा ने लंबी गहरी साँस ली,उनका चेहरा थोड़ा नरम पड़ा।उन्होंने हाथ बढ़ाकर, आयुष व मीरा के सिर पर रख दिया और बोले -पापा कहो !“अगर तुम दोनों में इतना हौसला है… तो मैं कौन होता हूँ रोकने वाला?”उनकी आँखें हल्की-सी नम हो गईं।“जाओ। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।”
दादी और माँ ने भी मुस्कुराकर उन दोनों को गले लगा लिया और बोलीं -हमारा आशीर्वाद ही नहीं ,हम भी तुम्हारे साथ हैं।
मीरा और आयुष ने आगे बढ़कर सबका आशीर्वाद लिया और आयुष बोला -यदि आप लोगों का साथ और आशीर्वाद मेरे साथ है ,तो मैं किसी से भी टक्कर ले सकता हूँ। उस शाम हवेली में पहली बार फिर से वही पुरानी गर्माहट लौट आई—वही खुशियों की धूप, जो बरसों से कहीं खो गई थी।
आयुष और मीरा ने एक-दूसरे की ओर देखा…और मुस्कुराए -क्योंकि उन्हें बस एक चीज़ चाहिए थी—प्यार करने वालों का आशीर्वाद !
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