रात लंबी थी,काव्या के सामने पुराना रजिस्टर रखा हुआ था — आधे जले, आधे सुरक्षित पन्नों के मध्य उसकी उंगलियाँ ठहर गई थीं।आर्या उसके बगल में बैठी थी, किन्तु उसकी आँखों में नींद नहीं, डर था।
अर्जुन की आत्मा धीमे स्वर में बोली —“काव्या… सोच ले ! अगर तूने लिखना शुरू किया, तो तू सिर्फ़ एक खिलाड़ी नहीं रहेगी — तू भी कहानी का हिस्सा बन जाएगी।”
काव्या मुस्कराई — वह थकी हुई थी, किन्तु अब उसने ढृढ़ निश्चय कर लिया था ,बोली -“हर खिलाड़ी एक न एक दिन अपनी कहानी खुद लिखता है, अर्जुन! अब बस फर्क इतना है कि मैं उस लेखक की कलम छीनने जा रही हूँ।”तब उसने आर्या से कहा - “आर्या ! दीया जलाओ !”
आर्या ने उठकर दीया जला दिया —दिए की हल्की लौ काँपी, और दीवार पर तीन परछाइयाँ उभर आईं ,तीसरी परछाई जो पहले हमेशा धुँधली नजर आती थी, वह अब स्पष्ट थी — महेश्वर की परछाई !वो मुस्कराया,उसकी परछाई से स्वर उभरा “देखा ! जिस दिन तू लिखेगी, उस दिन मैं जागूंगा।
काव्या ने, काग़ज़ पर स्याही की पहली बूंद गिराई ,वो स्याही नहीं ,मानो अंधकार था — ठंडा, जीवित !
उसने लिखा:-“जो मर चुके हैं, वे आज बोलेंगे।”और जैसे ही उसने आखिरी शब्द लिखा — हवा थम गई ,कमरे का तापमान गिर गया ,आर्या की साँस रुक गई ,फिर, दीवार के भीतर से एक धीमी दस्तक सुनाई दी —“ठक… ठक…”
काव्या ने काँपते स्वर में पूछा, “कौन है?”दीवार से आवाज़ आई, “हम वही हैं, जिन्हें तूने लिखा है।”
दीवार से धूल झड़ने लगी, और उसमें से धीरे-धीरे पाँच आकृतियाँ निकलीं —धुँधले से चेहरे पर वे चेहरे पहचाने जाने लायक थे —सुमित्रा, विजय, मालिनी देवी, देशमुख… और महेश्वर।
आर्या चीख पड़ी -“माँ, तूने ये क्या कर दिया!”
काव्या ने कलम कसकर पकड़ी,“मैंने उन्हें बुलाया नहीं है … मैंने बस ‘लिखा’है , फर्क यहीं है — अब शब्द खुद सोचने लगे हैं।” सुमित्रा की आकृति आगे बढ़ी —“काव्या ! तूने वो काम किया जो किसी ने नहीं किया।अब तू लेखिका नहीं रही, तू माध्यम बन चुकी है।”
काव्या बोली, “मैं माध्यम नहीं, लक्ष्य हूँ,जिसने यह कहानी शुरू की — वो चाहता था, कि हर कोई उसका पात्र बने,अब मैं उसे बताऊँगी कि पात्र भी' विद्रोह 'कर सकते हैं।”
महेश्वर हँसा, उसकी आवाज़ ऐसी लग रही थी जैसे किसी गुफा में से गूंज रही है —“विद्रोह ! तू समझती है कि यह तेरे बस में है?लेखन कोई शक्ति नहीं, यह शाप है — जो भी लिखता है, पहले मिटता है।”
काव्या ने कहा, “तो फिर मिटना मंज़ूर है।”
उसने दूसरा वाक्य लिखा —“जो सच के खिलाफ खड़ा होगा, वो राख बन जाएगा।”
महेश्वर ने कुछ बोलने की कोशिश की,पर उसके शरीर से धुआँ उठने लगा,उसकी परछाई झिलमिलाई, और एक पल में हवा में घुल गई।
आर्या चौंकी,“माँ… तूने उसे मिटा दिया!”
काव्या बोली, “नहीं आर्या, मैंने उसे लिखा नहीं — बस उसकी जगह से उसे हटाया है ”काव्या अब समझ चुकी थी — हर वाक्य वास्तविकता को गढ़ सकता है।
उसने पन्ने पर लिखा:“देशमुख जीवित हो ”काग़ज़ पर स्याही फैली, और दरवाज़े पर दस्तक हुई।
आर्या की आँखें फैल गईं —“कोई… कोई बाहर है!”
दरवाज़ा धीरे-धीरे खुला —वहाँ राघव देशमुख खड़ा था, ज़िंदा !उसका चेहरा धूल और खून से सना था, पर उसकी आँखें अब इंसान जैसी नहीं थीं — बल्कि उसकी आँखों में अब स्याही की शक्ति तैर रही थी।
वह बोला,“काव्या… तूने मुझे इस संसार में ला तो दिया, पर मैं अब पूरा इंसान नहीं रहा। मैं वही हूँ, जो लिखे गए और अधूरे के बीच फँस गया है।”
काव्या ने घबराकर कहा -“मुझे माफ़ कर… मैंने बस कोशिश की—”
देशमुख बोला,“अब बस कोशिश मत कर, या तो कहानी खत्म कर, या खुद उसमें सम्मिलित हो जा।”
अर्जुन की आत्मा ने गूँजते स्वर में कहा —“काव्या ! जो शक्ति तेरे पास है, वो लेखक ने खुद अपने विनाश के लिए छोड़ी थी।वो देखना चाहता था, क्या कोई इंसान उसे हरा सकता है,अब तू भी वही कर रही है।”
काव्या ने पूछा -“तो लेखक कौन है? कहाँ है?”
अर्जुन बोला -“लेखक अब कोई व्यक्ति नहीं… वह ‘विचार’ बन चुका है,वो हर उस दिमाग में है जो लिखने की हिम्मत करता है।”
आर्या धीरे से बोली -“तो फिर माँ, क्या तू भी लेखक बन रही है?”
काव्या ने कहा-“अगर लेखक वो है, जो दूसरों के भाग्य लिखता है,तो मैं वह बनूँगी, जो खुद का भाग्य लिखे।”
उसने नया पन्ना खोला, और लिखा—“कलम अब किसी एक की नहीं, सबकी होगी।”
जैसे ही शब्द पूरे हुए, कमरा रोशनी से भर गया —जैसे हर दीवार, हर वस्तु लिखे हुए शब्दों में बदल गई हो। काव्या के सामने अब रजिस्ट्रर नहीं था — बल्कि सैकड़ों चिट्ठियाँ थीं,हर एक पर किसी मृत आत्मा का नाम ,हर चिट्ठी हवा में तैरती, और एक आवाज़ देती—“हमें पूरा कर दो… हमें अंत दो…!”
आर्या ने डर से कहा,“ये सब कौन हैं?”
काव्या ने कहा,“ये सब वो हैं, जिनकी कहानियाँ आधी-अधूरी छूट गईं थीं, जिन्हें लेखक ने शुरू किया, पर कभी खत्म नहीं किया।अब मैं उन्हें उनका अंत दूँगी।”
उसने पहली चिट्ठी खोली —नाम लिखा था: ‘मालिनी देवी’।
वह बोली,“जो प्रकाश की तलाश में अंधकार में गई, उसे शांति मिले।”और तुरंत एक नीली लौ उठी —मालिनी देवी की आत्मा प्रकट हुई, मुस्कराई, और धीरे-धीरे मिट गई।
आर्या की आँखों में आँसू आ गए।“माँ… तू सच में उन्हें मुक्त कर रही है।”काव्या ने एक-एक कर कई चिट्ठियाँ खोलीं।
हर आत्मा बाहर आई, हर कहानी को एक अंत मिला।लेकिन जैसे-जैसे वह लिखती गई, उसकी अपनी उंगलियाँ फीकी पड़ने लगीं।
अर्जुन ने चेताया,“काव्या! तू जितना लिखेगी, उतनी मिटेगी!”
काव्या बोली-“मिटना कोई हानि नहीं है , अर्जुन !जब तक कोई कहानी बचती है, कोई न कोई लेखक मिटता ही है।”
पर तभी एक चिट्ठी हवा में घूमकर उसके हाथ में आ गिरी —उस पर लिखा था: ‘काव्या सान्याल’
आर्या ने काँपते हुए कहा,“माँ… ये तेरी अपनी चिट्ठी है।”
काव्या ने चिट्ठी खोली,अंदर बस एक पंक्ति थी —“जो अपनी कहानी लिखता है, उसे अंत लिखने का हक़ नहीं होता।”
उसके पीछे से वही आवाज़ आई —“देखा, मैंने कहा था - काव्या…लेखक वही बनता है, जिसे वो हराना चाहता है।”
महेश्वर की परछाई लौट आई थी — पर अब वो वही नहीं था,उसकी आँखों में देशमुख का चेहरा भी झलक रहा था,जैसे अब “लेखक” किसी एक का नहीं, सभी का सम्मिलित रूप बन गया हो।
काव्या ने दृढ़ आवाज़ में कहा—“तो ठीक है, अगर कहानी सबकी है,तो उसका अंत भी सब मिलकर लिखेंगे।”उसने आर्या की ओर देखा,“ले, इस बार तू लिख ! जो चाहे लिख दे !”
आर्या काँपते हाथों से कलम उठाती है,और धीरे से लिखती है—“लेखक सो गया…”दीया बुझ गया।कुछ पल बाद कमरा खाली था।
रजिस्टर टेबल पर पड़ा था, खुला हुआ —पर अब उसके सारे पन्ने खाली थे,बस एक पंक्ति बाकी थी, जो चमक रही थी —“हर कहानी का अंत वही है, जहाँ कोई नई कहानी लिखने की हिम्मत करता है।”
बाहर सुबह हो रही थी,आर्या अकेली थी, हाथ में वही कलम —पर दीवार पर उसकी माँ की परछाई थी, मुस्कराती हुई।“माँ…” वह फुसफुसाई और हवा में वही धीमी आवाज़ आई —“अब लिख, आर्या !… अब तेरी बारी है।”
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