सुबह की पहली किरण ने, कमरे को छुआ,पर दीवारों पर अभी भी कलम की खरोंचें थीं — जैसे किसी ने रात भर अंदर से कुछ लिखने की कोशिश की हो।आर्या ने उस रजिस्टर को देखा —
उसका कवर अब गाढ़े काले रंग का हो गया था,और उस पर सुनहरी अक्षरों से लिखा था - अब कहानी का दूसरा खंड आरम्भ होगा ,जो अध्याय लिखे नहीं गए हैं ,अब वो लिखे जायेंगे।
आर्या घबरा गई ,दूसरा खंड ? लेकिन मैंने तो किताब बंद कर दी थी…”उसने पहला पन्ना खोला —वो बिल्कुल खाली था ,लेकिन बीच में किसी ने छोटा-सा एक वाक्य लिखा था, मानो किसी और की लिखावट हो -“आर्या, अब मैं तुझे लिखूँगा।”उसके दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं।
कमरे में हल्की सी हवा चली,मेज़ पर रखे रजिस्टर के पन्ने अपने आप पलटने लगे।हर पलटते पन्ने से एक ध्वनि आती —जैसे कोई बुदबुदा रहा हो, कुछ कहने की कोशिश कर रहा हो।
आर्या ने ध्यान लगाकर ,कान लगाया,अब शब्द स्पष्ट सुनाई देने लगे:“कहानी पूरी नहीं हुई है…”“जो मिटा था, वो फिर जन्म लेगा…”“लेखक मरा नहीं, वो बदल गया है…”तभी उसे एहसास हुआ ,जैसे दीवार पर कोई कुछ लिख रहा है ,उसने पीछे मुड़कर देखा — दीवार पर वास्तव में ही, किसी ने उँगली से लिखा था -“दीनदयाल वापस आ गया ” उसी समय बिजली झपकने लगी ,और मेज़ के पास रखे, आईने में एक चेहरा उभरा —दीनदयाल ! वही वृद्ध लेखक, किन्तु अब उसका चेहरा आधा चेहरा मानवीय, आधा जला हुआ था।
“तूने सोचा मैं मिट गया?”तभी उसकी आवाज़ गूँजी,कहते हुए जोर -जोर से हंसने लगा और बोला -“कहानी में मौत नहीं होती, बस किरदार बदलते हैं।”
आर्या ने काँपते हुए, क्रोध से कहा -“तू… तुझे तो मैंने मिटा दिया था!”
दीनदयाल हँसा,“जब तूने मुझे लिखा ही नहीं,फिर मिटाया कैसे ?जिसकी तुमने रचना ही नहीं की तो उसका अंत कैसे कर सकती हो ? हर कहानी में हम बहुत कुछ लिखना चाहकर भी कुछ शब्द ,'अनलिखे' छोड़ जाते हैं — और मैं उनमें ज़िंदा हूँ।”
वो पीछे हटने लगी,“मैं तेरा खेल नहीं खेलूँगी।”
दीनदयाल की आवाज़ दीवारों से आई,“खेल तू नहीं खेलेगी, तेरे शब्द खेलेंगे क्योंकि अब वे तुझसे नहीं, मुझसे जुड़ चुके हैं।”और जैसे ही उसने बोला - मेज़ पर रखी कलम अपने आप चलने लगी —और पन्ने पर लिखने लगी:-“अर्जुन लौट आया।”
आर्या चीख पड़ी -“नहीं! अर्जुन मर चुका है!”
पर अगले ही क्षण, कमरे का दरवाज़ा धीरे से खुला —और वहाँ अर्जुन खड़ा था किन्तु उसकी आँखें पूरी तरह काली थीं, चेहरा सफ़ेद , और शरीर से स्याही बह रही थी।“आर्या…” उसकी आवाज़ ठंडी थी।“तूने कहा था -'मैं कहानी में नहीं हूँ , पर मैं तो वही हूँ जो तूने नहीं लिखा।”
आर्या धीरे-धीरे पीछे हटी ,''तुम असली अर्जुन नहीं हो। तुम मेरी लिखी गलती हो।”
वो मुस्कराया -“तो फिर मुझे मिटा दे।”
आर्या ने कलम उठाई और तुरंत पन्ने पर लिखा—“अर्जुन गायब हो गया।” किन्तु आर्या के पन्ने पर लिखने पर भी उसे कुछ नहीं हुआ।स्याही ने पन्ने से निकलकर हवा में फैलना शुरू कर दिया।दीवारों पर अजीब आकार बनने लगे — मानो कोई नया अध्याय खुद-ब-खुद लिख रहा हो।
रजिस्टर के पन्ने खुद से पलटे और एक जगह रुक गए —पन्ने पर एक नक्शा बना हुआ था।उस नक्शे पर लिखा था - ''अनलिखे अध्याय का दरवाजा “- कालेश्वर के नीचे।”
आर्या बुदबुदाई -“कालेश्वर… वही जगह जहाँ माँ का अंत हुआ था।”
दीनदयाल की फिर से आवाज़ आई -“वहाँ वो सब लिखा गया जो कभी छापा नहीं गया।अगर तू वहाँ पहुँची, तो या तो कहानी खत्म कर देगी… या खुद उसका हिस्सा बन जाएगी।”
आर्या की आँखों में दृढ़ता थी,“अगर सच्चाई वहाँ है, तो अब मैं वहीं जाऊँगी।”रात्रि में वो अकेली ही ''कालेश्वर के खंडहर'' में पहुँची। वहां हवा में राख और धुएं की गंध थी — यह वही गोदाम था जो उन्होंने जलाया था।
अब वहाँ सिर्फ़ राख थी… और राख के नीचे एक लोहे का दरवाज़ा।दरवाज़े पर वही निशान था — तीन घेरेवाला ,आर्या ने जैसे ही अपना हाथ दरवाज़े पर रखा, दरवाज़ा अपने आप खुल गया।अंदर उतरते ही घना अँधेरा हो गया।दीवारों पर पुरानी हस्तलिपियाँ उकेरी हुई थीं — हज़ारों लेखकों के नाम थे ,और हर नाम के नीचे उनकी मौत की एक तारीख़ !वो फुसफुसाई,“हर लेखक जिसने इस रजिस्टर को छुआ… यहीं मरा।”
वो एक कमरे के बीच पहुँची —वहाँ पर एक गोल मेज़ थी, और उस पर वही पुराना रजिस्टर खंड १ रखा हुआ था।उसके बराबर में,बिना किसी नाम की एक नई किताब रखी हुई थी।
अचानक किताब अपने आप खुली।उसमें लिखा था - ''आर्या सान्याल ''का स्वागत है ,हर कहानी को एक संपादक की आवश्यकता होती है।
सम्पादक ?” आर्या बुदबुदाई।
तभी पीछे से किसी की हँसी आई।वो मुड़ी — उसे काव्या की परछाई वहाँ नजर आई ।
उसे देखकर आर्या बोली -“माँ?”
“नहीं,” परछाई बोली -“मैं वो हूँ जो तूने माँ समझकर लिखा, असली काव्या तो बहुत पहले चली गई।अब मैं सिर्फ़ तेरे शब्दों का प्रतिबिंब हूँ।”
आर्या की आँखों में आँसू आ गए।“तो तुम मेरी माँ नहीं हो ?”जैसे परछाई के कहे शब्दों को दोहराकर उन शब्दों पर विश्वास करना चाहती हो।
“नहीं, किन्तु तेरे अंदर जो भय है, वही मेरा रूप है ,तूने अपनी माँ की तस्वीरों में मुझे देखा, क्योंकि तूने यही चाहा।”
आर्या ने धीरे से कहा-“तो सच्चाई क्या है?”
परछाई बोली -“सच्चाई ये है कि तू कहानी का लेखक नहीं, बल्कि कहानी की पात्र है। रजिस्टर तुझे नहीं मिला, बल्कि तू रजिस्टर में लिखी गई।”
आर्या का सिर घूम गया -“मतलब… मैं?”
दीनदयाल की आवाज़ फिर गूँजी,“हाँ, तू मेरी अंतिम रचना है ,लेकिन अब अगर तू चाहे, तो खुद अपनी कहानी फिर से लिख सकती है। टेबल पर कलम अपने आप खड़ी हो गई।एक तरफ़ पुरानी किताब थी — खंड १ , जो दीनदयाल ने लिखी थी।
दूसरी तरफ़ नई किताब — खाली, सफेद पन्ने, खंड २ ।
आवाज़ आई:-“पुराने शब्द मिटा दे — कहानी आज़ाद होगी या नए शब्द जोड़ दे — कहानी तेरे नाम हो जाएगी।”
आर्या ने कुछ देर सोचा,फिर कलम उठाई, और दोनों किताबों के मध्य हवा में लिखना शुरू किया —“कहानी अब किसी की नहीं,कहानी अब खुद को लिखेगी।”उसके इतना लिखते ही ,बिजली की सी चमक हुई ,दोनों किताबें आपस में टकराईं और एक नई किताब बनी —जिस पर लिखा था:-“कब्र की चिट्ठियाँ – खंड ∞ (अनंत ) जब आर्या की आँखें खुलीं — वो अब किसी किताब की दुनिया में थी।पन्ने तैर रहे थे, शब्द बह रहे थे, और हवा में उसकी खुद की आवाज़ गूँज रही थी—
“कहानी अभी खत्म नहीं हुई… बस लेखक बदल गया।”
दीनदयाल की परछाई मुस्कराई,“शायद अब तू समझी — कहानी कभी मरती नहीं,बस अपना नाम बदल लेती है।”
