काव्या के मिट जाने पर,अब आर्या उसकी धरोहर संभालती है ,काव्या उसके साथ न होकर भी ,अदृश्य रूप में काव्या उसके साथ थी। सूरज की किरणें, खिड़की से भीतर आ रहीं थीं, पर उस कमरे में कोई सुकून नहीं था।मेज़ पर रखा रजिस्टर अब पूरी तरह खाली था — न स्याही, न हस्ताक्षर, न आवाज़ें।
बस एक कलम और एक पंक्ति -“अब लिख, आर्या ! — अब तेरी बारी है।”
आर्या ने कलम उठाई,उसे लगा ,जैसे ये कलम कोई साधारण, हल्की कलम नहीं,बल्कि किसी अदृश्य भार से भरी हुई है — जैसे उसमें सदियों के शब्द छिपे हों।वो बोली -“माँ, मैं कहाँ से शुरू करूँ?”मैं तो कुछ भी नहीं जानती।
हवा में हल्की सरसराहट सी हुई और उसके कानों में शब्द गूंजने लगे — मानो,आर्या को जवाब मिला हो,“ जहाँ तू डरती है, वहीं से शुरू कर।”आर्या ने कागज़ पर लिखा:“वो लड़की जिसने अपने शब्दों से दुनिया को छुआ हो ।”उसने जैसे ही उस रजिस्टर पर लिखा, कमरे की दीवारें हल्की-सी चमक उठीं।काँच के पार उसे लगा, जैसे कोई खड़ा है — धुँधली आकृति, जो धीरे-धीरे उसकी तरफ़ बढ़ रही है।आर्या चौंकी — चेहरा चिर -परिचित सा लग रहा था -“माँ?”अचानक उसके मुख से शब्द निकले।
पर वह काव्या नहीं थी,वह कोई और थी — काव्या जैसी दिखने वाली एक औरत, पर उसकी आँखों में अजीब शून्यता थी।“तुम कौन हो ?” आर्या ने पूछा।
वह औरत बोली,-“मैं वही कहानी हूँ, जो तू लिख रही है।”
आर्या के हाथ से कलम छूट गई,“मतलब?”
“मतलब ये कि तूने जो लिखा — ‘वो लड़की जिसने अपने शब्दों से दुनिया को छुआ है ’ —वो मैं हूँ। तूने मुझे पैदा किया है।”आर्या को यकीन नहीं हुआ।उसके सामने खड़ी वो औरत साँस ले रही थी, उसकी परछाई भी दीवार पर पड़ रही थी।
“माँ ने कहा था -कि शब्द सच बन सकते हैं, पर ये तो…”
औरत बोली,“अब तेरी हर बात सच होगी — पर ध्यान रखना, हर सच का एक मूल्य देना होता है।”
आर्या काँप गई,उसने धीरे से पूछा,“क्या मूल्य?”
“हर बार जब तू कुछ लिखेगी, कोई याद, कोई इंसान मिटेगा,कहानी का हर जन्म किसी न किसी वास्तविकता की मौत से जुड़ा है।”
आर्या के दिमाग़ में माँ की बातें गूंज गईं —“जब लेखक बनते हैं, मिटने के लिए तैयार रहना ।”उसने जल्दबाज़ी में कागज़ पलटा और लिखा:“माँ मुस्कुरा रही है, मेरी तरफ़ देख रही है।”
और जैसे ही उसने ये वाक्य लिखा, हवा में माँ की परछाई उभरी,वो मुस्करा रही थी — ठीक वैसे ही जैसी अंतिम रात्रि में थी।
आर्या ने रोते हुए कहा -“माँ! मैं तुझे वापस ला सकती हूँ!”
काव्या ने धीरे कहा,“मत कर, आर्या… हर वापसी, किसी और चीज़ को मिटा देती है।”आर्या ने उसकी ध्यान नहीं दिया।उसने एक और पंक्ति जोड़ी—“हम दोनों साथ हैं, हमेशा।”
कमरा रोशनी से भर गया —और जब वो लौ मंद पड़ी,दीवार पर आर्या के बचपन की तस्वीरें गायब हो गयीं थीं। मेज पर काव्या की परछाई तो थी, पर आर्या की नहीं थी। वो दहशत में चीख पड़ी,“माँ! मेरा अस्तित्व मिट रहा है!”काव्या ने आँसू भरे स्वर में कहा,“शब्द वापस नहीं लौटते, बेटी। अब सिर्फ़ रास्ता बदल सकता है।”आर्या ने कलम फेंक दी,“मैं अब नहीं लिखना चाहती!”
पर कलम अपने आप हवा में उठी, और पन्ने पर खुद से लिखने लगी —“कहानी कभी नहीं रुकती।”दीवारें काँप उठीं ,सारे पन्ने अपने आप पलटने लगे, स्याही उड़ने लगी, और पुरानी आवाज़ें लौट आईं।देशमुख की ठंडी आवाज़ आई,“कहा था न, कहानी सबकी है — अब तेरे बिना पूरी नहीं होगी।”
आर्या ने चीखकर कहा,“तू क्या चाहता है?”
“सिर्फ़ अंत ! बस अंत ! अचानक, दीवार पर एक नया नाम उभरा —‘दीनदयाल '
आर्या ने उसे पढ़ा,“ये कौन है?”
काव्या की परछाई बोली,“वो असली लेखक… जिसने पहली बार यह रजिस्टर लिखा था यानि एक नई कहानी शुरुआत की थी ,वो अब जीवित नहीं है , पर उसके शब्द अभी भी सक्रिय हैं।शायद तू अब उसी के अधूरे अध्याय को पूरा करने वाली है।”
आर्या ने गहरी साँस ली,“अगर उसने ये कहानी शुरू की, तो मैं उसका अंत लिखूँगी।”रात के सन्नाटे में उसने रजिस्टर के पहले पन्ने को खोला —उसमें धुंधले शब्द थे, जैसे किसी पुराने ज़माने की लिपि में लिखा हो :“जो कहानी मृत्यु से आगे बढ़ेगी,वही सृष्टि की अगली सुबह तय करेगी।”
आर्या ने स्याही में उंगली डुबोकर लिखा—“तो अब यह सुबह मेरी होगी।”अचानक पूरे कमरे में बिजली-सी कौंधी।काँच टूट गए ,आर्या खुद को एक अजीब, काल्पनिक जगह पर पाती है —ना ज़मीन, ना आसमान, बस तैरते हुए शब्द और पन्ने।
हर पन्ने पर नाम लिखा था —काव्या, देशमुख, विजय, मालिनी, अर्जुन… और अब, आर्या !ये सभी उसकी कहानी के किरदार हैं।
एक आवाज़ आई —“स्वागत है, नई लेखिका।”
आर्या ने मुड़कर देखा —एक वृद्ध व्यक्ति, सफेद दाढ़ी, आँखों में चमक — वही 'दीनदयाल '
“तुमने मुझे बुलाया?” आर्या ने पूछा।
वो हँसा,“नहीं, मैंने तुझे लिखा था।हर लेखिका अथवा लेखक जो इस रजिस्टर को पाते हैं, मेरी कहानी को आगे बढ़ाने का माध्यम होते हैं।”
आर्या ने कहा,“तो ये सब झूठ था? मेरी माँ, उसकी मौत, वो आत्माएँ—सब?”
दीनदयाल ने शांत स्वर में कहा,-“कहानी में ‘झूठ’ जैसा कुछ नहीं होता,जो लिखा गया है , वही सच है — बस उसका लेखक बदलता रहता है।”
“अब मैं लिखूँगी,” आर्या ने कहा।“अब कोई और नहीं।”
दीनदयाल मुस्कराया,“तो लिख ! पर याद रखना — हर लेखक अपने पहले पात्र को मिटाकर ही जन्म लेता है।”चेतावनी देते हुए उसने कहा। आर्या ने आँखें बंद कीं,उसके आस-पास घूमते शब्दों में तूफ़ान उठ गया।उसने लिखा—“पुराने लेखक की कहानी अब समाप्त ।”
दीनदयाल ने उसकी तरफ देखा और कहा ,“क्या तू समझती है, ये इतना आसान है?”
“हाँ,” आर्या ने कलम उठाई,“क्योंकि मैं' अंत' नहीं, 'शुरुआत' लिख रही हूँ।”
उसने लिखा—“रजिस्टर' अब मेरे नाम है, अब जो लिखा जाएगा, वो मेरे नियमों से होगा।”
और तभी दीनदयाल की आकृति बिखरने लगी —उसके शब्द हवा में उड़ने लगे और एक-एक कर उसके पन्ने जलने लगे। अब आर्या ने अपनी आँखें खोलीं —वो फिर उसी कमरे में थी। मेज पर रजिस्टर था,किन्तु अब उस पर सुनहरे अक्षरों में लिखा था:“लेखिका-' आर्या सान्याल ”
वो मुस्कराई —“अब कोई और नहीं लिखेगा,”पर जैसे ही उसने पन्ना पलटा, आखिरी पंक्ति में खुद-ब-खुद शब्द उभरे:“हर लेखक सोचता है कि कहानी अब उसकी है…पर कहानी कभी किसी की नहीं होती।”
आर्या ने धीरे से सिर झुका लिया।“शायद यही सच्चाई है…हम सब बस किसी और के शब्द हैं।
